जो पिए छुपके वो मुनाफिक है, बेतक़ल्लुफ़ शराब पी लीजै, इस शेर पर तालियाँ बजती हैं तो ये शायरी का कमाल है, इससे शराब में कोई अच्छाई नहीं आ जाती. वैसे ही धर्म-अध्यात्म के केन्द्रों पर मत्था टेकने से सवाब मिलता है पर ये उस चौखट का करिश्मा है, इस सिर का नहीं. डेरा सच्चा सौदा पहुँच कर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि मैं यहाँ बेधड़क आता हूँ, अकालियों की तरह छुपकर नहीं. ऐसे खुलने में कौन से गर्व की बात है, छुपने में कौन सी अच्छाई? अब कैप्टन साहब चुनाव प्रचार से वक्त निकाल कर सिरसा अध्यात्म की दीक्षा लेने तो गए नहीं होंगे. बुरी शै है शराब, जिगर को खाती है चाहे छुप के पियो, या खुल के. वैसे ही धर्म गुरुओं के संगत से भला होता है, चाहे छुप के मिलो या खुल के. मालिक से लौ लगाने के बहाने उस लौ पर रोटी नहीं सेंकी जाती. सर उत्ते टोपी, ते नीयत खोटी फिर की लेना सिर धर के.
पंजाब में डेरों का इतिहास पुराना है और ये डेरे समाज में फैली कुरीतियों से लड़ने में अहम किरदार निभाते हैं. अध्यात्म से करीब और दुनियादारी से दूर रहने वाले संतों-महात्माओं को खासी मुसीबत होती होगी जब सियासत के खिलाड़ी उनसे इंतखाबात की बात करते होंगे. डेरा सच्चा सौदा सहित सभी डेरों ने साफ़ तौर पर किसी पार्टी की वकालत नहीं की और अपने मुरीदों के विवेक पर मामला छोड़ दिया. ये उनकी मेहरबानी. पर उससे सियासत के सिपाहियों को कभी सीख नहीं मिलती. वो वोटर के विवेक पर कुछ छोड़ना नहीं चाहते. वोटर के दिल तक का रास्ता बहुत लंबा है, तो वो डेरों का शॉर्टकट लेने का लोभ नहीं छोड़ पाते. अकाली पार्टियां पंथ की सियासत करती रही हैं. शिरोमणि अकाली दल को इस बात की दाद कि उन्होंने इस बार वह लीक छोड़ी और विकास को मुद्दा बनाया. पर उनके भी कई उम्मीदवार भी डेरों से उम्मीद लिए बैठे हैं. वोटर पंथ या संत नहीं देखता, नीति और नीयत देखता है. उस को मालूम है, चंडीगढ़ का रास्ता उसके घर से गुजरता है.
अध्यात्म के सहारे बात नहीं बनती तो मनोरंजन का बहकावा भी है. फ़िल्मी चेहरे मंच पर मोहरे होते हैं, साथ में थोड़ा भंगड़ा होता है, थोड़ी हीर भी. बात में दम नहीं, फिर भी हम किसी से कम नहीं. हेमा मालिनी भाजपा से राज्य सभा की सदस्य हैं, पर उनका उपयोग चुनाव प्रचार में ज्यादा है. आप यह कह सकते हैं कि फ़िल्मी सितारों को भी राजनीति का हक है पर कभी उनकी सभाओं में हो आइए. जनता उनसे शोले के डायलॉग सुनने की फरमाइश करती है, उनसे सियासी गुफ्तगू की उम्मीद नहीं करती. नगमा भी आईं पर बस भीड़ जुटाने. इस बार पंजाब में शक्ति कपूर नहीं आए, वरना अब वे भी इस काम में लाए जाते हैं. ऐसे नेता की क्या विसात जिन्हें सुनने आने के लिए जनता को देखने का इंतज़ाम चाहिए. ये पंजाब की बात नहीं, पूरे मुल्क की है. फ़िल्मी सितारों को सिर्फ इसलिए बुलाना कि लोग आ जाएं.
भला हो चुनाव आयोग का, वरना आइटम गर्ल्स भी नचा देते. इस बात का शुक्रिया तो ज़रूर कही कि चुनाव प्रचार कब थम गया पता ही नहीं चला. नेताओं के खर्चे कम हुए, जनता की परेशानी कम हुई. शोर कम हुआ, जोर भी. लाखों बोतल शराब जब्त हुई. नोट भी. पर जो बच गई, वो बंटेगी आज की रात. आज की रात बहुत कठिन होगी. जागते रहिए.