Monday, March 16, 2009

ज़ख्म के भरने तलक, नाखून न बढ़ जावेंगे क्या?

पाकिस्तान एक बार फिर वापस लौटा है झुलसा हुआ. राष्ट्रपति ज़रदारी ने अपने हठ को तब त्यागा जब उनको अपना अस्तित्व इस आग में जलता दिखा. आखिरी पलों में उन्होंने अपने कदम पीछे किये वर्ना वकीलों का लॉन्ग मार्च लाहौर में एक लोकप्रिय आन्दोलन का रुख कर चुका था. पर क्या पाकिस्तान का संकट टल गया है? एक जगह हो दर्द तो डायग्नोसिस भी हो जाती है और इलाज भी पर पाकिस्तान के शरीर पर इतने घाव निकल आये हैं कि एक की पट्टी होती है और दूसरा फूट पड़ता है. कई विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे इस राजनितिक बवाल में सेना सत्ता अपने हाथ में ले लेगी. जहाँ सेना के संयम की प्रशंसा ज़रूरी है वहीँ इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि परवेज़ कियानी परवेज़ मुशर्रफ़ से अलग हैं. कियानी जानते हैं प्रॉक्सी से सरकार चलाना बागडोर अपने हाथ में लेने से बेहतर है. वह पिछली सीट पर बैठ कर ड्राइविंग करना पसंद कर रहे हैं. अगर ड्राइविंग सीट पर बैठे हों और गाड़ी सही दिशा में न चले तो ड्राईवर के छवि को बट्टा लगता है. जैसा परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ हुआ. पांच साल पाकिस्तान के हीरो रहने के बाद मुशर्रफ़ वहां के सबसे बड़े विलेन हो गए थे. वही काम ज़रदारी ने एक साल से कम समय में कर दिखाया है. ज़रदारी के खिलाफ न सिर्फ पंजाब में बल्कि उनकी पार्टी का गढ़ माने जाने वाले सिंध में भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं. ऐसा क्या कर दिया उन्होंने कि चन्द महीनों में अपने अज़ीज़ से आजिज़ आ गया पाकिस्तान?

वादे हैं वादों का क्या?
ज़रदारी ने हर वो चीज़ भुला दी जिस के दम पर वह मिस्टर टेन परसेंट से मिस्टर प्रेजिडेंट बने थे. यहाँ तक कि मोहतरमा बेनजीर भुट्टो की धरोहर भी जो उनकी कुल जमा पूंजी थी. अगर बेनजीर से उनकी शादी नहीं हुई होती तो ज़रदारी एक ज़मींदार से ज्यादा कुछ न होते. इनके कारगुजारियों के वज़ह से बेनजीर को देशनिकाला मिला और यह खुद जेल में रहे. पर बेनजीर की शहादत इनके लिए वरदान बन कर आई और इन्हें सत्ता के शिखर पर पहुंचा दिया. और वहां पहुँचते ही उन्होंने बेनजीर के सहयोगियों को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेकना शुरू किया. शेरी रहमान सिर्फ ताज़ा मिसाल हैं. शुरुआत तो मखदूम अमीन फाहिम से ही हो गयी थी जो बेनजीर के अघोषित राजनितिक उत्तराधिकारी थे जिन्होंने उनकी अनुपस्थिति में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को ज़िंदा रखा. उन्हें प्रधान मंत्री न बनाकर ज़रदारी ने युसूफ राजा गिलानी को चुना, जिन्होंने अब सेना से हाथ मिला लिया है क्यूंकि ज़रदारी से वफादारी की उम्मीद नहीं रही. हाल के समाचारों में आपने पढ़ा होगा कैसे बेनजीर के वफादार एक के बाद एक किनारे लग गए. लोगों की छोडिये, ज़रदारी ने सिद्धांतों तक को नहीं बख्शा. बेनजीर इस बात की लड़ाई लड़ रही थी के पाकिस्तान के संविधान में पुनः संशोधन कर राष्ट्रपति के हाथ से वह शक्तियां छीनी जाए जो संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री को बौना करती हैं. ज़रदारी खुद राष्ट्रपति बन बैठे और बेनजीर की लड़ाई को बौना कर दिया. जिस नवाज़ शरीफ के समर्थन से उन्होंने मुशर्रफ़ का तख्ता पलता और अपनी सरकार बनाई उसको भी गच्चा दे दिया. शरीफ की शर्त थी कि मुशर्रफ़ ने जिन जजों को रातोरात हटाया था उन्हें बहाल किया जाए. ज़रदारी इस से तब तक मुकरते रहे जब तक उनके जान पर ना बन आई.

कौन है अपना कौन पराया
सोनिया गाँधी ने भी राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के ज़्यादातर मित्रों को नकार दिया और यहाँ तक कि राजीव के कई दुश्मनों को अपना बना लिया. राजीव के करीबी रहे पत्रकार एम.जे. अकबर हों या अभिनेता अमिताभ बच्चन, सब आज सोनिया के आलोचकों में खड़े हैं. वहीँ राजीव को सत्ता से बेदखल करने वाले वी.पी. सिंह सोनिया के करीबी हो गए और उनके हत्यारे लिट्टे के समर्थक गठबंधन तक में आ गए. ज़रदारी और सोनिया में एक फर्क यह है कि सोनिया में राजनितिक सूझबूझ है और ज़रदारी इसमें जीरो हैं. पर सब से बड़ा फर्क है कि सोनिया गाँधी ने राजीव की धरोहर को बट्टा नहीं लगने दिया और राजीव गाँधी के नाम का दुरुपयोग नहीं किया. ज़रदारी ने बेनजीर की फोटो संयुक्त राष्ट्र तक चमकाई पर दिल ही दिल में वह 'बीबी बैगेज' से छुटकारा पाने की जुगत में रहे. यही कारण है कि बीबी के समर्थक अब शरीफ के पाले में जा रहे हैं. किसी को ज़रदारी के काईयाँ चरित्र पर भरोसा नहीं है. अमेरिका को भी नहीं जिसका शुमार पाकिस्तान के तीन आकाओं में आता है. आर्मी ने अपना भरोसा गिलानी पर जताया है और अल्लाह की तो अल्लाह जाने. पर अल्लाह के नाम पर जिहाद करने वालों का भरोसा तालिबान पर है. यही अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है और भारत के लिए भी.

अल्लाह मालिक
उत्तर भारत में अगर मौसम में अचानक परिवर्तन हो जाए तो मौसम विभाग इसका दोष पश्चिमी गड़बडियों या वेस्टर्न डिस्टर्बेंस पर मढ़ता है. भारत के पश्चिमी पडोसी का इतना असर है इस तरफ. ख़ास कर जब तालिबानी लडाके कुछ सौ किलोमीटर तक आ गए हों तो यह चिंता बढ़ना लाजिमी है. पर भारत सरकार ने अभी तक इसे सहजता से लिया है. और यह काफी हद तक सही भी है. तालिबान की लड़ाई से भारत को सिर्फ अप्रत्यक्ष खतरा है. प्रत्यक्ष खतरा पाकिस्तान और अमेरिका को है. अमेरिका की सेना इस क्षेत्र में लड़ रही है. पाकिस्तान की सेना अमेरिका के साथ लड़ रही है पर पाकिस्तान की जनता को इस्लामाबाद यह समझाने में विफल रहा है कि यह लड़ाई अमेरिका की नहीं पाकिस्तान की लड़ाई है. अनेक विश्लेषक इस बात को नहीं मानते पर असल में यह लड़ाई पाकिस्तान की ज्यादा है और अमेरिका की कम. अमेरिका तो कल यहाँ से चला जायेगा. तालिबान का शक्तिमान होना पाकिस्तान के वजूद के खिलाफ है. तालिबान शब्द एक ढीला ढाला लबादा है जो हम हर लडाके पर लगाने की ग़लती करते हैं. तालिबान बहुवचन है तालिब का जिसका सीधा मतलब है छात्र. मदरसों में पढने वाले यह छात्र पाकिस्तान की शह पर अफगानिस्तान के शासक बन बैठे थे. इन में ज़्यादातर पश्तून लोग हैं जो पाकिस्तान के वजूद में आने से पहले से ही अंग्रेजों द्वारा खिंची गयी डूरंड लाइन को नहीं मानते. यह रेखा उनको दो देशों में बाँट देता है. यह पश्तून खान अब्दुल गफ्फार खान के वक़्त से यह लड़ाई लड़ रहे हैं जो कभी कभी पख्तूनिस्तान की मांग के रूप में मुखर होता है. और इस लड़ाई का कोई अंत नहीं है, जब तक पख्तूनिस्तान अस्तित्व में नहीं आता. अफगानिस्तान के ताजिक या उजबेक या हजारा तालिबान नहीं कहलाते. आज का तालिबान आन्दोलन पश्तूनों की लड़ाई है जो इस्लामाबाद के आधिपत्य को उतना ही नकारते हैं जितना काबुल के नेत्रित्व को. खान अब्दुल गफ्फार खान को अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया क्यूंकि जलालाबाद उनके लिए पेशावर से अलग नहीं था. सब पश्तूनों की एक ज़मीन थी और लड़ाई उस ज़मीन की है. उनको इस्लामाबाद नहीं चाहिए, उन्हें अपनी ज़मीन चाहिए.

तो फिर इलाज क्या है
पाकिस्तान को इंतज़ार है उस सुबह की जब शांति के कपोत उड़ान भरेंगे, बगैर इस भय के कि किसी एके-47 से तड़ तड़ निकलती गोलियाँ उन्हें धराशायी कर देंगे. आज की राजनैतिक अस्थिरता ख़त्म होती प्रतीत होती है पर गृहयुद्ध को ख़त्म होते बहुत देर लगेगी. जनरल जिया कहते थे कि भारत को हज़ार घाव देंगे जिन से इतना खून रिसेगा कि वह मर जायेगा. आम की टोकरियाँ फटी और जिया और न जी सके. आज उन का पाकिस्तान हज़ार नासूर पाले है. बलोच ताक़ लगाए बैठे हैं, सेना सीमान्त गाँधी के प्रान्त में घुटने टेक चुकी है, केंद्र-शासित कबायली इलाकों में कोहराम है और पंजाब और सिंध में कुलबुलाहट. ज़रदारी तो चन्द रोज़ के मेहमान हैं, सवाल आने वाले सालों का है जो इस मुल्क की हस्ती पर सवालिया निशाँ हैं. आगे आगे देखिये क्या रंग देखने को मिलते हैं. ग़ालिब कह गए थे.

ग़म-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक