Thursday, October 14, 2010

See you @ Wordpress

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Wednesday, August 11, 2010

Superbug and super-prejudice


पश्चिम का पूर्वाग्रह और एक जीवाणु  
मेडिकल रिसर्च की पत्रिका लैंसेट ने संक्रामक रोगों पर अपने हालिया विशेषांक में चेतावनी दी है कि एक ऐसा जीवाणु जिसे सुपरबग नाम दिया गया है, ब्रिटेन और अमेरिका में तेज़ी से फैल सकता है. इस सुपरबग या यूं कहें महाजीवाणु पर किसी एंटी-बायोटिक का असर नहीं होता. यानि इस से संक्रमित रोगी का इलाज बेहद मुश्किल हो सकता है. इस नई शोध की खबर से चिंता की लकीरें भारत में भी फैलेंगी क्योंकि शोध के अनुसार ये जीवाणु भारत से ही दूसरे देशों में गए हैं.शोधकर्ताओं का कहना है कि सस्ते इलाज के लिए पश्चिमी देशों के कई लोग भारत या पाकिस्तान जैसे देशों में जाकर इलाज करवाते हैं, जहाँ से वह ये सुपरबग लेकर घर लौट रहे हैं और पश्चिमी देशों में फैला रहे हैं. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में भारत के दो डॉक्टरों ने यह कहा कि भारत में चूँकि ड्रग नियंत्रण कमज़ोर है ओर एंटी-बायोटिक्स का दुरूपयोग स्व-चिकिस्ता में करते हैं तो ऐसा तो होना ही था. मतलब ये कि हमने भी इस रिपोर्ट को हाथों हाथ लिया है.
भारत को इसे आड़े हाथों लेना चाहिए. हमें इस शोध की शोध करना चाहिए और इसका सत्यापन करने के बाद ही सहयोग करना चाहिए. इसमें कोई बुराई नहीं कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में कमियों और उपमहाद्वीप के जीवाणुओं पर पूरी दुनिया रिसर्च करे. पर इस रिपोर्ट की इमानदारी पर शक होना भी अस्वाभाविक नहीं होगा. भारत में मेडिकल टूरिजम को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार ने नीतियां निर्धारित की हैं. हमारे डॉक्टर दुनिया के शीर्ष डॉक्टरों में आते हैं और हमारी मेडिकल शिक्षा को भी सम्मान की नज़र से देखा जाता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि पश्चिम के लोगों को भारत में इलाज करवाने से हतोत्साहित किया जा रहा हो? पश्चिम की मेडिकल लॉबी इस पर बहुत वक्त से काम कर रही है. लैंसेट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान पर ऊंगली उठाए बिना भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर हमारे विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए. कहीं यह हमारे बढ़ते मेडिकल पर्यटन पर चोट पहुँचाने की कोशिश तो नहीं. क्योंकि ये सुपरबग का पूरा मामला पहली नज़र में पूर्वाग्रह से ग्रसित लगता है.
यह बैक्टेरिया एक ऐसा एंजाइम पैदा करता है जो एक बिलकुल नया जीन है. यह एक जीवाणु की दवाओं से लड़ने की शक्ति बढ़ाता है. इस एंजाइम का नाम है एनडीएम-१. अब ज़रा इसके फुल फॉर्म पर नज़र डालिए. इसका पूरा नाम है न्यू डेल्ही मेटालो बीटा लैक्टमेस-१. जब भी इस जीवाणु की खोज हुई इसका नाम भारत की राजधानी पर क्यों रखा गया? अगर हम यह मान भी लें कि इसके रोगी भारत, पाकिस्तान या बंगलादेश होकर आए थे, तो भी एक जीवाणु का नाम नई दिल्ली के नाम पर क्यों? क्या कोई मेडिकल टर्म नहीं मिला? क्या इसे साउथ एशियन नहीं कहा जा सकता था? इसके नाम से ही पश्चिम के पूर्वाग्रह की बू आती है. और इसीलिए लैंसेट के इस रिपोर्ट को हमें हाथों हाथ नहीं, आड़े हाथों लेना चाहिए.        
ब्लैकबेरी या ब्लाकबेरी?
कनाडा की ब्लैकबेरी भारत समेत पूरी दुनिया के टॉप कॉर्पोरेट अधिकारियों के लिए कीमती गहने जैसा है. उसके बिना वह दिखें तो अपने आप को अधूरा महसूस करते हैं. ब्लैकबेरी मीन्स बिज़नेस. उसी ब्लैकबेरी पर काले बादल छाए हुए हैं. भारत सरकार का कहना है कि अगर ब्लैकबेरी सुरक्षा एजेंसियों को अपने सर्वर को छानने की छूट नहीं देता तो उसकी सेवाओं पर प्रतिबन्ध लग सकता है. ब्लैकबेरी अपने इमेल और इंस्टेंट मेसेजिंग के लिए जानी जाती है, जो सेवा अब हर दूसरे फोन में उपलब्ध है. पर ब्लैकबेरी में एक फर्क है. रिसर्च इन मोशन नाम की कनेडियन कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले इस फोन में ईमेल का भेजना या रिसीव करना ब्लैकबेरी सर्वर से होकर है. जो कनाडा में है. फोन से इंस्टंट मैसेज या इमेल जब निकलता है तो वह कोडेड होता है और उसका इनक्रिप्शन बहुत उच्च कोटि का है. वह बीच में कहीं इंटरसेप्ट हो भी जाए तो उसे डिकोड करना मुश्किल है. भारत सरकार का कहना है कि आतंकवादी इसका उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में कर सकते हैं. रिसर्च इन मोशन का कहना है वह डिकोड करने की इजाजत नहीं दे सकता, क्योंकि इस से उसके कॉर्पोरेट उपभोक्ताओं कि प्रायवेसी भंग होती है.
पर उसका ये उपभोक्ता प्रेम सिर्फ भारत के मामले में ही क्यों जागता है, यह ब्लैकबेरी के अफसरान नहीं बता रहे. अमेरिका को एक्सेस देने में उन्हें यह याद नहीं आया, चीन ने कान मरोड़ी तो तुरंत सर्वर चीन में लगा दिया, सउदी अरब को भी इंस्टंट मैसेज को डिकोड करने की सुविधा दे दी. अपने देश कनाडा में तो ये सुविधाएं सरकार को दे ही दीं. भारत कोई बनाना रिपब्लिक तो है नहीं जो अपने सारी कॉर्पोरेट कंपनियों के हर ईमेल को छाने. हम एक लोकतान्त्रिक देश हैं और हमारे यहाँ व्यवसाय करने के लिए हमारे कानूनों की परिधि में काम करना होगा. जब आईफोन, एंड्रोइड और सिम्बियन जैसे लोकप्रिय प्लेटफोर्म पर फोन बनाने वाली कंपनियों ने सुरक्षा के मुद्दों पर भारत के कानून के दायरे में काम करना स्वीकार किया है तो ब्लैकबेरी क्यों नहीं? वैसे भी यहाँ की कंपनियों के सारे इमेल ब्लैकबेरी से ही नहीं चलते, सबके अपने सर्वर हैं. भारत के साथ अकड़ और अमेरिका के साथ लचर, ये कौन सी प्रायवेसी है?

राव के सर ठीकरा
जब भोपाल गैस कांड हुआ था तब अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री थे और नरसिम्हा राव गृह मंत्री. तब यूनियन कार्बाइड के मुखिया और कांड के मुख्य अभियुक्त एंडरसन को भारत से सहर्ष विदाई देने में अर्जुन सिंह ने मुख्य भूमिका निभाई थी. बीस हज़ार लोगों की जान गई और आज भी एंडरसन अमेरिका में खुले आम घूम रहा है. बहरहाल जब न्याय आया तो देश में अन्याय की चीख उठी. अर्जुन सिंह नहीं बोले. कल बोले तो उन्होंने सारा दोष राव पर मढ़ा. राजीव और राव दोनों इस दुनिया में नहीं हैं, उनके आरोपों का जवाब देने के लिए. अर्जुन सिंह ने राव को चुना क्योंकि राव का परिवार उनको और उनके परिवार को राजनीतिक नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं है. राजीव गाँधी का नाम लेते तो कोई अर्जुन का नामलेवा नहीं रहता.    

बड़े बेआबरू
कलमाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में गले तक धंसे हैं पर अभी भी तने बैठे हैं. उनके सिपहसालार टी.एस. दरबारी बर्खास्त हो चुके हैं और अब जो कुछ खुलासे कर रहे हैं उस से कलमाडी की जान सांसत में है. दोस्त दोस्त ना रहा... ये गाना राग दरबारी में नहीं है पर कलमाड़ी को तो ऐसा ही लग रहा होगा. और कलमाडी की राग जयजयवंती अब ज्यादा देर तक कोई सुनेगा नहीं. इस कूचे से निकालना तो है ही, पर उन्होंने ठान राखी है कि बेआबरू हो कर ही निकलेंगे.

Tuesday, May 25, 2010

खाप का पाप: Sins of the Khap and uber-urban modesty ablaze

Khap is a dreadful word. And not without its frightening reasons. These panchayats of of village clusters in Haryana, Western UP and parts of Rajasthan are notorious for their dictats. They go so far as to sentence people to death or excommunicate families, auction their lands or better take over their property. Their victims, the accused to them, seldom defy for the fear of losing their dear life. Recently, five people were sentenced to death by the law for killing a couple on the orders of the khap. The couple, Manoj and Babli, had married in spite of being from the same gotra. The Khap panchayats decided to fight for the murderers. Cornered, they also asked their MPs and MLAs to push for a law that bans intra-gotra marriage in a last-ditch effort to add some legitimacy to their stance against such unions. 

And the Metropolitan India was furious. TV anchors and convent-educated uber-urban Indians have launched a tirade against khap panchayats and question their legitimacy. Khap panchayats have no legitimacy, so their is no question of anything legal about them. In their war on Khaps, they started questioning the custom of inter-gotra marriages. Without understanding what gotra actually means and what it means to the society in north India in general, they have been throwing talk-show explosives at Navin Jindal, an industrialist and member of Parliament from Kurukshetra. His fault was that he attended a khap meeting where villagers asked him to submit their memorandum to the government. The memorandum sought a law barring same-gotra marriage in their community.


Now the so-called educated folks in Delhi are outraged. How can an educated, young MP like Jindal do it? Jindal says he is their representative and all he did was give them a hearing. But now they are asking him whether he too believes that people from the same gotra should not wed. He lies and says no he doesn't believe in such archaic things. He lies because 99.3 per cent of Haryanvis looking for life-partners on the internet believe in it. Imagine the uneducated, non-internet users. 
People simply do not believe in intra-gotra marriage because for centuries they have been told that people from your own gotra are your cousins and in some societies marrying your cousin is not kosher. They are told that you belong to the same blood line, hence  go get married elsewhere. Which in a way is good because it promotes inter-caste marriage, which is much desirable in a caste-ridden society like theirs.

Now the question comes what if two people fall in love and are from the same gotra? Well, then they should decide. The khaps can go to hell. But on the ground, such cases are few and far between. People from same gotra in these trouble torn areas don't fall in love with each other. Like people don't fall in love with their cousins in Delhi, they don't fall in love with their cousins in Jind. Even in Delhi, in an exceptional case, a boy falls in love with a girl without knowing she is his cousin, it's their business until their families find each other out and the fathers recognise each other. They will oppose no matter how educated they are. That's what is happening in Jind, except at a very rustic level. And in some cases, surfaces in a criminally violent way.

The khaps take it to a ridiculous extent and bar marriage within a village even if its inter-khap and not intra-khap. And when they behave like law unto themselves. That's the time for the law, the constitution to arrive and make them feel the presence of their rule. That's what happened when the murderers of Manoj and Babli got death. That is what will teach the khaps a lesson. But what urban India needs a lesson in is age-old customs and cultural nuances of our society and how to deal with them. You can't rubbish it all because it sounds unscientific to you. God is unscientific so is the multiplicity of faiths and beliefs. And before you say beliefs can't decide people's personal lives when we are all ruled by law, be reminded that we have chosen to have personal laws. There is a marriage act for Hindus which differs for different regions. There is personal law for Muslims and there will soon be a personal law for Sikhs. We have no uniform law governing our personal choices because we believe in diversity.

So for sake of diversity, accept diverse cultures. These village people are your own and as Indian as the rest of us. They have some customs and beliefs and they want the rest of India to respect that. Don't believe in what they say but allow them to say what they believe in. If in the name of that belief, they kill and maim, the criminal law should take care of that. Because criminal law is uniform for all. Punish those who kill their daughters in the name of honour. But in your blind homogenised world view, don't laugh at people's way of life. If you really dream of a modern India with people with all modern beliefs, mouthing the same language, boasting about same values and heartily accepting intra-gotra marriages, go back to sleep. If you wake up, be brave enough to see many different Indias in this one India.  

Friday, April 23, 2010

हसीना का पसीना और पॉकेटमारों की चाल

हमारे देश के मेले मजमों में, बड़े शहरों के बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर उचक्के-उठाईगीर गैंग बना कर काम करते हैं और अगर कोई पकड़ा जाए तो उसको छुड़ाने का भी उनका अपना देसी तरीका होता है. अगर किसी की जेब तराशते कोई धरा गया और गैरमजरुआ धुनाई की संभावनाएं प्रबल हो गईं तो उसके साथी उसको बचाने के लिए उसी पर पिल पड़ते हैं. उसे तमाचे रसीद करते हैं और कान पकड़ कर ये कहते खींचते चलते हैं कि चलो पुलिस थाने में तेरी मरम्मत करवाता हूँ. उसके शिकार और पब्लिक धुनाई में भागीदार हाथ मलते खुश होते हैं कि चोर पुलिस के हत्थे चढ़ गया. उनको भनक तक नहीं लगती कि मौसेरे भाई उसे बचा ले गए. कुछ माँ बाप भी ऐसा करते देखे जाते हैं अगर लाडला किसी गैर घर का शीशा तोड़ते पकड़ा जाए. वे हलके हाथों से अपने बच्चे को खुद मारना पसंद करते हैं ताकि पड़ोसी की बुरी नज़र और निर्मम हाथ उस पर ना पड़ें.

क्रिकेट के अभिभावक अपने लाडले ललित पर ऐसे पिल पड़े हैं मानो सारा गुनाह एक मोदी का है. तीन साल से उसके चेहरे, कपड़ों और हाथों से शीरा रिस रहा था पर उसके माई-बाप और मौसेरे भाइयों को मानो भनक ही नहीं थी कि मालपुए की हांडी के गपतगोल होने में उसका हाथ है. वह ना सिर्फ खुद भकोस रहा था बल्कि उसने अपने सखी-सहेलियों के लिए विशाल भंडारे का आयोजन कर रखा था. जब सरकार के डंडा का जागरण हुआ तो बीसीसीआई का लालित्य देखिये, सारा ठीकरा आइपीएल पर फोड़ रहे हैं. आईपीएल कोई स्वयम्भू चमत्कार नहीं, बीसीसीआई की संतान है. उसमें किस किस का कितना माल कहाँ से लगा है, सब का हिसाब भी बीसीसीआई को मालूम रहा है. बीसीसीआई कहती है कि वह बिना ललित मोदी की मर्ज़ी के उनको निकाल फ़ेंक सकती है. ये गुस्सा फर्जी है क्योंकि अपनी खुदगर्जी के लिए किसी की मनमर्जी तीन साल चलने दी और जब सांच की आंच आई तो लौ मोदी की और कर दी.
इंडिया सीमेंट के मालिक एन. श्रीनिवासन बीसीसीआई के बड़े अधिकारी हैं और उनकी एक टीम भी है. क्या यहाँ टकराव नहीं? राजस्थान रॉयल्स की टीम के सारे एनआरआई हैं यह तो सबको मालूम था, पर क्या चेलाराम की पहचान बीसीसीआई के गुरु-घंटालों से छुपी थी? किंग्स इलेवन में मोदी के दामाद ऊंगली क्रिकेट खेल रहे थे, यह भी सब को पता था. फर्क इतना था जनता क्रिकेट में मस्त थी, सुस्त सरकार खुद में व्यस्त थी. थरूर अगर नौसिखिए नहीं होते तो क्रिकेट के भ्रष्टाचार की इतनी बड़ी सीख से सभी महरूम रह जाते. प्रफुल पटेल कहते हैं कि वह अपने मंत्रिमंडल सहयोगी शशि थरूर को एक टीम दिलवाने में मदद कर रहे थे. जो ईमेल पटेल की ऑफिस से थरूर को गया उसमें ऐसे आंकड़े थे कि थरूर डर जाएँ क्योंकि उसमें अगले दस साल तक करोड़ों के घाटे का सौदा दर्शाया गया था. वह थरूर की मदद कर रहे थे या उन्हें भय से भगा कर बेटी पूर्णा के मित्र ललित मोदी की मदद कर रहे थे. अगर टीम लेना इतना घाटे का सौदा है तो फिर डेढ़ हज़ार करोड़ कुर्बान करने वाले सुब्रत राय सहारा सौ फ़ीसदी सौदाई हैं. घाटे के सौदे के लिए बोली लगाई जाती है, ये तो हमें मालूम ही नहीं होता. सरकारी एजेंसियां तो तीन साल से हाथ पर हाथ धरे बैठी थीं.
भला हो उस ट्विट्टर का जिसकी चूँ-चूँ से क्रिकेट के मैदान से लेकर लोक सभा तक थू थू हो रही है. अगर शशि थरूर सुनंदा को पुश कर पाते और ललित मोदी थरूर को खुश कर पाते तो आज थरूर अपनी सीट पर होते और मोदी अपनी पुरानी हीट पर. सुनंदा की स्वेट इक्विटी अर्थात हसीना का पसीना सत्तर करोड़ का क्यों है, ये ट्वीट नहीं होता तो सब स्वीट होता. आज सबके चेहरे पर स्वेट है, और इक्वीटी इन्वेस्टिगेट हो रही है. एक ट्वीट ने खेल ही बदल डाला, खेल खेल के पन्ने पर रहा और खेल के पीछे का खेल फ्रंट पेज न्यूज़ बन गया.
वरना आज अखबार में आईपीएल होता पर बात देश के दो हीरे सचिन और धोनी के भिडंत के बारे में होती, ना इस की चिंता कि क्रिकेट के कोयले की खान में कौन काला होने से बचेगा. तीन साल में पहली बार इंडियन प्रीमियर लीग की ट्राफी किसी इंडियन के हाथ में होगी, यही सोच कर हम फूले नहीं समा रहे होते. पहली बार वार्न ने उठाया, दूसरी बार गिली ने, इस बार सचिन या धोनी, किसी के हाथ हो, ये जीत स्पेशल होना तय थी. पर हुआ क्या? एक नूराकुश्ती जिसकी दो पार्टियां हैं: बीसीसीआई और बीसीसीआई. बीसीसीआई क्रिकेट पर कंट्रोल करती है पर उस पर कंट्रोल कुछ गिने चुने मठाधीशों का है. बीसीसीआई कहेगी उसका एक लोकतान्त्रिक संविधान है. उस लोकतान्त्रिक संविधान की पोल खोलनी हो तो ललित मोदी के बीसीसीआई में एंट्री की कहानी खोल लीजिए. तब राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने आईएएस अफसर संजय दीक्षित को मोदी को नागौर के रास्ते राजस्थान क्रिकेट का अध्यक्ष बनवा दिया. फिर राजे के राज में राजस्थान क्रिकेट और उसके बाहर मोदी ने वह गुल खिलाए कि हरी भरी वसुंधरा की राजनीतिक ज़मीन मरूभूमि में तब्दील हो गई. राजे गईं, राज गया पर मोदी तब तक अपना काज निकाल चुके थे.
बस स्टैंड के उचक्कों वाली मिसाल से यहाँ मामला थोड़ा हट के है. यहाँ पुलिस भी दौड़ चुकी है. अब सवाल है कि क्या पुलिस सिर्फ उचक्के को अंदर करती है या उसे खींच कर लाने वाले को भी... पब्लिक को अब यह खेल मालूम है. मौसेरे भाइयों की भिड़ंत जिसमें बीसीसीआई यह दिखलाना चाहती है कि वह ललित मोदी को कड़ी से कड़ी सज़ा देगी. मोदी का कान पकड़ कर खींचते कह रही है चलो मैं तेरी मरम्मत करवाती हूँ पुलिस से. पुलिस यानि केन्द्र सरकार के लिए बेहतर होगा कि वह मोदी की नहीं बल्कि इस पूरे गैंग की मरम्मत करे. वरना जेबें कटती रहेंगी. उठाईगीरों की कमी नहीं इस मुल्क में.

Thursday, February 04, 2010

Tigers do, dogs do ... Mumbai micturated

Uddhav Thackeray says Shah Rukh Khan must retract his statement or it will have consequences. Shah Rukh Khan says there is nothing that he said which he can retract. Shah Rukh has not called Thackerays slappy headed sugar tits yet so what exactly should he apologise for. Shiv Sena's Saamna newspaper misuses the right to expression by calling people names, yet believes Shah Rukh doesn't have the same right to speak his mind. While all this goes on, governments at both the Centre and the state wait and watch and at best seek legal counsel.

Uddhav Thackeray says Rahul Gandhi must retract his statement about Mumbai belonging to all Indians, else he would not be allowed into Mumbai in future, clearly marking his territory.
In jungles, tigers are known to mark their territory by leaving their smell by excreting or . In , dogs can be seen lifting a hind leg against walls, car tyres and electic poles to do the same. Laws of the jungle, you know! Thackerays do not go out of Mumbai, not even to parts of Maharashtra. They remain inside their Dadar stronghold and bark at folks living in Bandra. They beat up Biharis and UP wallas. I hardly remember Bal Thackeray travelling to any other part of India. If my memory serves me right, he has visited Delhi only once in past many years. And we are told the world is small place. That we live in a freaking global village. In a country where boundaries have disappeared because of needs of economy and better means of travel, a family is redrawing boundaries. And we need their permission!

The Congress in its zeal to see the Sena divided allows both the young Thackerays to fight and prove who can do maximum damage to Maximum City. It's a turf war between two cousins that may cost India its founding principles. The basic idea of India is that people who speak different languages can live together in harmony. That unity in diversity is under attack by two cousins and we can do nothing about it. It's not Congress's shame. It must ashame all of us.
That a bunch of hoodlums can slur Shah Rukh Khan because he, a Muslim, dared inviting Pakistani players is a national shame. That a political party with an increasingly minor following can bar citizens from other parts of the country from seeking in employment in Mumbai must reflect upon all of us. That a family decides which feature film can be shown in theatres has been a burden that we all must bear.

We keep blasting Australia for racist attacks on Indians Down Under. We have no blasted ability to stop the same right here, on our soil. The attacks are not on Shah Rukh Khan or so-called north Indians. It's an attack on India and is potentially far more dangerous that the non-state actors from Pakistan inflict upon us. Pakistani terrorists kill Indians, Thackerays try to kill India, the very idea of India.

Wednesday, February 03, 2010

तालिबान से सौदा उलटा पड़ेगा




अफगानिस्तान में खूनी संघर्ष से निकलने की ख्वाहिश बराक ओबामा पर हावी होती जा रही है. उन्होंने वहां से अमेरिकी फौज वापस बुलाने की तारीख भी तय कर दी है पर युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ. तालिबान और ओसामा बिन लादेन का अल काईदा नेटवर्क अभी भी ज़िंदा और खतरनाक हैं. पर अपनी जनता को किये गए वादे के चक्कर में अमेरिका अफगानिस्तान की जनता की फ़िक्र छोड़ रहा है. पिछले हफ्ते लन्दन में हुए अफगानिस्तान कांफेरेंस में यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित भले तालिबान से बातचीत शुरू की जायेगी और शांति नहीं तो समझौते का भ्रम पैदा कर अमेरिका और ब्रिटेन अफगान पचड़े से हाथ खींच लेंगे. अफगानिस्तान का भारत के हितों से सीधा राब्ता है और अब भारत पर दबाव है कि उन हितों की अनदेखी कर वह पश्चिमी ताकतों के साथ हो ले. दबाव किस कदर होगा इस का अंदाजा इस बात से हो जाता है कि विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा से यह उगलवा लिया गया कि भारत "भले" तालिबान से बातचीत के पक्ष में है. उस भले तालिबान का चरित्र कैसा होगा इस का अंदाजा उसमें शामिल मुल्ला मुत्तवकील भी हैं जिन्होंने कंधार विमान अपहरण कांड में भूमिका निभाई थी. तब तालिबान-शासित अफगानिस्तान में मंत्री थे और ऊपरी तौर पर भारत और अपहरणकर्ताओं के बीच मध्यस्थता कर रहे थे. पर सारे राज़ खुले तो पता चला वह और उनका पूरा तालिबानी तंत्र आतंकियों से मिला हुआ था. उस तालिबान से बात करने का मतलब यह है कि उन्हें काबुल की सत्ता में साझेदारी देना, जो भारत के हित में कतई नहीं है. दूसरी बात तालिबान के बहाने पाकिस्तान और आईएसआई फिर से काबुल पर अपना नियंत्रण बना लेंगे ताकि सारी ऊर्जा भारत को रक्तरंजित करने में लगाई जा सके. यह जग जाहिर है कि अफगानिस्तान की ज़्यादातर जनता भारत को अपना मित्र मानती है और पाकिस्तान को अफगानिस्तान की आतंरिक मामलों में दखल देने वाला पड़ोसी.
अमेरिका की योजना में तथाकथित "भले" तालिबान को पैसे दे कर अपनी तरफ करना भी है. यह सौदा अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के उन शहीदों का अपमान है जिन्होंने तालिबान से लड़ने में अपने प्राण त्याग दिए. यह उन हज़ारों अफगान नागरिकों के मुंह पर तमाचा है जिन्होंने तालिबान के खिलाफ जंग में अपना सब कुछ गँवा दिया. यह भारत की पीठ में भी छुरा है जिसने अफगानिस्तान में आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में अपने नागरिकों की बलि दी और करोड़ों डॉलर खर्च किये. पाकिस्तान ने इस युद्ध में पैसा कमाया है और वह इस का अंत काबुल में इस्लामाबाद का एक पिट्ठू बिठाना चाहता है. ओबामा ने जो पासा फेंका है वह अमेरिका के लिए उलटा पड़े ना पड़े भारत के लिए उलटा ही पडेगा. भारत को तालिबान से बातचीत या सौदा कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए और अमेरिका को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह अपने स्वार्थों के लिए भारत के हितों को दरकिनार नहीं कर सकता. सत्ता में साझेदारी तालिबान को और मजबूत करेगी, जो ना अमेरिका के हित में है ना भारत के. यह अल काईदा और पाकिस्तानी आईएसआई के हित में है. 

Monday, February 01, 2010

आज तक कोई भी रहा ही नहीं

On the Day, A.R. Rahman shared another award for Jai Ho with Gulzar, there is a controversy raging in India whether Gulzar lifted a popular Ishqiya song from a poem written by Sarveshwar Dayal Saxena. Saxena had written a poem for kids “Ibn-e-batuta, pahan ke juuta, nikal pade tuufan mein” and Gulzar wrote a song in Ishqiya as an obvious tribute to Saxena and gave his own twist to it “Ibn-e-batuta, bagal mein juuta, pahne to kartaa hai churrr”. Sarveshwar Dayal Saxena is not alive to see this day when half-wits with little knowledge of his work or Gulzar’s for that matter were dragging both of them in a controversy that is not. My own little survey of 10 people by showing them both these poems/songs threw a scary result. 9 out of 10 said it was plagiarism because the “meaningless” word Ibne batuta had been invented by Saxena and hence Gulzar should have invented his own to rhyme with juuta. These nine did not know that Ibn-e-Batuta was a living creature who walked this earth. But that’s sad, and not so infuriating as calling Gulzar a thief. If that’s how we are going to decide, then Faiz, Insha, Kaifi or Faraz all of them can be accused of committing theft.

If we accuse Gulzar of plagiarism for “Ibn-e-Batuta” then he is never been original. The hugely popular Kar thaiya thaiya is by Bulle Shah. The opening lines of “Dil dhoondhta hai phir wahi fursat ke raat din” is lifted in its entirety from a ghazal by Ghalib titled “Muddat huii hai yaar ko mehmaan kiye hue”. Yet I would recognize it as a Gulzar song and it will remain a Gulzar song. Because he has written it. Period. In fact, Ghalib’s kaafiyaa has been used by poets from Faiz to Gulzar as they weave their own words around the great man’s words to create poetry that resonates with original thought and déjà vu. This is a tradition in Hindustani poetry that goes back to the origins of Hindustani poetry.
And most readers understand the obvious yet subtle tributes. They are never called a tribute to X or Y. I am reminded of many films where great filmmakers pay tributes to past masters or people they admired by designing a scene around a memorable scene from the past. They don’t subtitle it as this scene is a tribute to X. They expect the viewer to understand and rejoice in it.
No one went to Gulzar and asked him before throwing dirt at him. He would have told them of tens of his own work lifted from popular folk or poetry of the great masters. That’s one of the problems with journalism today, an industry I am part of. But it goes beyond this. Ahmed Faraz wrote a heart-breaking nazm about sectarian violence in Pakistan titled Ae mere Logo. Now, we had a patriotic song called Ae mere watan ke logo, immortalized by Lata. Should Faraz credit the songwriter because three words are common? Both these works are entirely different in their treatment and purpose. My answer is no. In Ibn-e-batuta case, it’s so obviously a tribute to Saxena’s poem for kids. By that logic, Jai Ho is too similar to Jai he by Ravindranath Tagore. And the Lage Raho Munnabhai song "Bande mein tha dum" should be attributed to Bankim Chandra Chatterjee for the words Vande Mataram. And "Chal Akela Chal Akela" by Mukesh was a Tagore song.

Pity, Gulzar writes for films where too many thieves masquerade as originals. It is easier to cast aspersions on Bollywood because there are too many phonies inhabiting that world. Gulzar is a misfit and his white kurta is tainted because of this association. Piyush Mishra played around the Jinhein naaz hai Hind par wo kahan hain in Gulaal to perfection. It was an original. But then with people in mood to attack Gulzar for Ibn-e-Batuta, he should hide.

Gulzar ko to bakhsh do

हमारे संगीत का सितारा ए.आर. रहमान ने अपनी धुन में रहने वाले पश्चिम के आकाश पर शान से चमक रहा है. ऑस्कर के बाद ग्रैमी अवार्ड भी उन्होंने हथियाया. स्लमडॉग मिलियनेयर के जय हो के लिए जो ग्रैमी उन्हें आज मिला उसमें स्पैनिश शब्दों के लिए तन्वी शाह और हिन्दुस्तानी शब्दों के लिए गुलज़ार का भी नाम आया. किसी विडम्बना है कि देश में गुलज़ार पर कविता चोरी करने के आरोप लग रहे हैं. उस से बड़ी विडम्बना यह कि हम अपने देश के इस काल के एक नामवर कवि की साख पर बेवजह बट्टा लगा रहे हैं. सोमवार को अखबारों और टीवी चैनलों पर गुलज़ार पर अभद्र टिप्पणियाँ की गईं और उन पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता चुराने का आरोप लगाया गया. ये अनावश्यक विवाद फिल्म इश्किया के लिए गुलज़ार के गाने "इब्ने बतूता" को लेकर है जिसमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता से उठाये दो शब्द "इब्ने बतूता" और "जूता" तुक में आते हैं. इतना होना था कि इलाहाबाद में प्रेस कांफेरेंस हो गया और कई लेखों में गुलज़ार की रचनाशीलता पर प्रश्न उठा दिए गए. प्रेरित रचना और रचना सृजन के बीच एक बेहद पतली लकीर होती है. यह संभव है और यहाँ तक कि हो सकता है कि गुलज़ार ने यह गाना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचना से प्रेरित हो कर लिखा है पर उन्होंने उस लकीर को लांघा नहीं. दोनों कृतियों में यही फर्क है. पर आधी जानकारी और कविता सृजन की आधी समझ वाले टिप्पणीकारों ने गुलज़ार पर हमला सा बोल दिया है कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को क्रेडिट क्यों नहीं दी गई. कीचड़ उछालने से पहले कम से कम गुलज़ार से एक बार पूछ लेते, उन्हें सर्वेश्वर दयाल की कविता से प्रेरित होने की बात स्वीकारने से गुरेज़ नहीं होती.
अगर ऐसा है तो फिर चल छैयां-छैयां के लिए बुल्ले शाह के साथ क्रेडिट बांटने की आवाज़ क्यों नहीं उठी या फिर दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन जिसका मुखडा ग़ालिब के मुद्दत हुई है यार को मेहमान किये हुए ग़ज़ल का एक शेर है. यह बात गुलज़ार ने छुपाई नहीं पर हिन्दुस्तानी रचनाओं में ग़ालिब के शब्दों में "अगले ज़माने के" कृतियों को आगे ले जाने की परम्परा है. उस हिसाब से "जय हो" शब्द हमारे लोक काव्यों से लेकर कई साहित्यिक रचनाओं में इस्तेमाल हुआ है, फिर गुलज़ार किस के साथ इस का ऑस्कर बांटें. कुंवर महेंद्र सिंह बेदी का उर्दू गज़ल की दुनिया में अपना रूतबा है पर उन्होंने फैज़ के काफिये को पकड़ पूरी गज़ल लिख दी और उस महान फैज़ ने भी ग़ालिब की ग़ज़लों में अपने मजमून ढूंढे. हज़रत मिर्ज़ा ताहिर अहमद साहिब ने थोमस मूर की कविता "द लाईट ऑफ अदर डेज़" का अनुवाद किया और वह अनुवाद "अक्सर शबे तन्हाई में" मूर की कविता से अलग और कई मायनों में बेहतर हो गया. अक्सर शबे तन्हाई में मिर्ज़ा की सृजनशीलता कस कस कर भरी है, आज पढ़ने वाले मूर की कविता को प्रेरणा भर मानते हैं. गुलज़ार फिल्मों में लिखने के कारण मारे गए. दर असल हमारी फिल्मवालों ने प्रेरणा के नाम पर इतनी चोरियां की हैं कि हमें यकीन नहीं होता कि काजल की कोठरी में किसी का कुर्ता सफ़ेद बचेगा. यकीन का मरना अच्छी बात नहीं है.

Monday, January 25, 2010

Rock is On! Hail Arjun.

January 25, 2010 will go down in history as the day India finally grew up. Arjun Rampal has won a much-deserved National Award for Rock On. Best supporting role. Arjun Rampal is the Rock that supported the On in Rock On. Arjun Rampal has reinvented the art of acting with as many expressions as a rock can have. Arjun Rampal is a living example of deadpan acting. Pan because you don't zoom on his face, nothing happens there. Just some perspiration. yet, he is an inspiration to us all. Thank you Arjun for showing to us that no handicap can come in the way of sheer lack of talent. Shah Rukh Khan counts him as his chaddi-buddy. Yes Shah Rukh likes his buddies, hold your pants.

You are jealous. Especially those of you who are actors. But now acting is not actor's only territory. In a democracy like ours, everyone has the right to act and win a national award. You hate Arjun because he did it. You laugh at him because you know he cannot laugh or cry on screen. He is a method actor, only you don't know the method. His family is family friends with the Khans who are family friends of first family of the country. The first family controls the government that runs the nation. It's family first in the first family. Well, well, you can now link it all and make baseless allegations and indulge in gossip.