Wednesday, February 03, 2010

तालिबान से सौदा उलटा पड़ेगा




अफगानिस्तान में खूनी संघर्ष से निकलने की ख्वाहिश बराक ओबामा पर हावी होती जा रही है. उन्होंने वहां से अमेरिकी फौज वापस बुलाने की तारीख भी तय कर दी है पर युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ. तालिबान और ओसामा बिन लादेन का अल काईदा नेटवर्क अभी भी ज़िंदा और खतरनाक हैं. पर अपनी जनता को किये गए वादे के चक्कर में अमेरिका अफगानिस्तान की जनता की फ़िक्र छोड़ रहा है. पिछले हफ्ते लन्दन में हुए अफगानिस्तान कांफेरेंस में यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित भले तालिबान से बातचीत शुरू की जायेगी और शांति नहीं तो समझौते का भ्रम पैदा कर अमेरिका और ब्रिटेन अफगान पचड़े से हाथ खींच लेंगे. अफगानिस्तान का भारत के हितों से सीधा राब्ता है और अब भारत पर दबाव है कि उन हितों की अनदेखी कर वह पश्चिमी ताकतों के साथ हो ले. दबाव किस कदर होगा इस का अंदाजा इस बात से हो जाता है कि विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा से यह उगलवा लिया गया कि भारत "भले" तालिबान से बातचीत के पक्ष में है. उस भले तालिबान का चरित्र कैसा होगा इस का अंदाजा उसमें शामिल मुल्ला मुत्तवकील भी हैं जिन्होंने कंधार विमान अपहरण कांड में भूमिका निभाई थी. तब तालिबान-शासित अफगानिस्तान में मंत्री थे और ऊपरी तौर पर भारत और अपहरणकर्ताओं के बीच मध्यस्थता कर रहे थे. पर सारे राज़ खुले तो पता चला वह और उनका पूरा तालिबानी तंत्र आतंकियों से मिला हुआ था. उस तालिबान से बात करने का मतलब यह है कि उन्हें काबुल की सत्ता में साझेदारी देना, जो भारत के हित में कतई नहीं है. दूसरी बात तालिबान के बहाने पाकिस्तान और आईएसआई फिर से काबुल पर अपना नियंत्रण बना लेंगे ताकि सारी ऊर्जा भारत को रक्तरंजित करने में लगाई जा सके. यह जग जाहिर है कि अफगानिस्तान की ज़्यादातर जनता भारत को अपना मित्र मानती है और पाकिस्तान को अफगानिस्तान की आतंरिक मामलों में दखल देने वाला पड़ोसी.
अमेरिका की योजना में तथाकथित "भले" तालिबान को पैसे दे कर अपनी तरफ करना भी है. यह सौदा अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के उन शहीदों का अपमान है जिन्होंने तालिबान से लड़ने में अपने प्राण त्याग दिए. यह उन हज़ारों अफगान नागरिकों के मुंह पर तमाचा है जिन्होंने तालिबान के खिलाफ जंग में अपना सब कुछ गँवा दिया. यह भारत की पीठ में भी छुरा है जिसने अफगानिस्तान में आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में अपने नागरिकों की बलि दी और करोड़ों डॉलर खर्च किये. पाकिस्तान ने इस युद्ध में पैसा कमाया है और वह इस का अंत काबुल में इस्लामाबाद का एक पिट्ठू बिठाना चाहता है. ओबामा ने जो पासा फेंका है वह अमेरिका के लिए उलटा पड़े ना पड़े भारत के लिए उलटा ही पडेगा. भारत को तालिबान से बातचीत या सौदा कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए और अमेरिका को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह अपने स्वार्थों के लिए भारत के हितों को दरकिनार नहीं कर सकता. सत्ता में साझेदारी तालिबान को और मजबूत करेगी, जो ना अमेरिका के हित में है ना भारत के. यह अल काईदा और पाकिस्तानी आईएसआई के हित में है. 

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