Sunday, January 29, 2012

बिन डेरे हम तेरे

जो पिए छुपके वो मुनाफिक है, बेतक़ल्लुफ़ शराब पी लीजै, इस शेर पर तालियाँ बजती हैं तो ये शायरी का कमाल है, इससे शराब में कोई अच्छाई नहीं आ जाती. वैसे ही धर्म-अध्यात्म के केन्द्रों पर मत्था टेकने से सवाब मिलता है पर ये उस चौखट का करिश्मा है, इस सिर का नहीं. डेरा सच्चा सौदा पहुँच कर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि मैं यहाँ बेधड़क आता हूँ, अकालियों की तरह छुपकर नहीं. ऐसे खुलने में कौन से गर्व की बात है, छुपने में कौन सी अच्छाई? अब कैप्टन साहब चुनाव प्रचार से वक्त निकाल कर सिरसा अध्यात्म की दीक्षा लेने तो गए नहीं होंगे. बुरी शै है शराब, जिगर को खाती है चाहे छुप के पियो, या खुल के. वैसे ही धर्म गुरुओं के संगत से भला होता है, चाहे छुप के मिलो या खुल के. मालिक से लौ लगाने के बहाने उस लौ पर रोटी नहीं सेंकी जाती. सर उत्ते टोपी, ते नीयत खोटी फिर की लेना सिर धर के.
पंजाब में डेरों का इतिहास पुराना है और ये डेरे समाज में फैली कुरीतियों से लड़ने में अहम किरदार निभाते हैं. अध्यात्म से करीब और दुनियादारी से दूर रहने वाले संतों-महात्माओं को खासी मुसीबत होती होगी जब सियासत के खिलाड़ी उनसे इंतखाबात की बात करते होंगे. डेरा सच्चा सौदा सहित सभी डेरों ने साफ़ तौर पर किसी पार्टी की वकालत नहीं की और अपने मुरीदों के विवेक पर मामला छोड़ दिया. ये उनकी मेहरबानी. पर उससे सियासत के सिपाहियों को कभी सीख नहीं मिलती. वो वोटर के विवेक पर कुछ छोड़ना नहीं चाहते. वोटर के दिल तक का रास्ता बहुत लंबा है, तो वो डेरों का शॉर्टकट लेने का लोभ नहीं छोड़ पाते. अकाली पार्टियां पंथ की सियासत करती रही हैं. शिरोमणि अकाली दल को इस बात की दाद कि उन्होंने इस बार वह लीक छोड़ी और विकास को मुद्दा बनाया. पर उनके भी कई उम्मीदवार भी डेरों से उम्मीद लिए बैठे हैं. वोटर पंथ या संत नहीं देखता, नीति और नीयत देखता है. उस को मालूम है, चंडीगढ़ का रास्ता उसके घर से गुजरता है.
अध्यात्म के सहारे बात नहीं बनती तो मनोरंजन का बहकावा भी है. फ़िल्मी चेहरे मंच पर मोहरे होते हैं, साथ में थोड़ा भंगड़ा होता है, थोड़ी हीर भी. बात में दम नहीं, फिर भी हम किसी से कम नहीं. हेमा मालिनी भाजपा से राज्य सभा की सदस्य हैं, पर उनका उपयोग चुनाव प्रचार में ज्यादा है. आप यह कह सकते हैं कि फ़िल्मी सितारों को भी राजनीति का हक है पर कभी उनकी सभाओं में हो आइए. जनता उनसे शोले के डायलॉग सुनने की फरमाइश करती है, उनसे सियासी गुफ्तगू की उम्मीद नहीं करती. नगमा भी आईं पर बस भीड़ जुटाने. इस बार पंजाब में शक्ति कपूर नहीं आए, वरना अब वे भी इस काम में लाए जाते हैं. ऐसे नेता की क्या विसात जिन्हें सुनने आने के लिए जनता को देखने का इंतज़ाम चाहिए. ये पंजाब की बात नहीं, पूरे मुल्क की है. फ़िल्मी सितारों को सिर्फ इसलिए बुलाना कि लोग आ जाएं.
भला हो चुनाव आयोग का, वरना आइटम गर्ल्स भी नचा देते. इस बात का शुक्रिया तो ज़रूर कही कि चुनाव प्रचार कब थम गया पता ही नहीं चला. नेताओं के खर्चे कम हुए, जनता की परेशानी कम हुई. शोर कम हुआ, जोर भी. लाखों बोतल शराब जब्त हुई. नोट भी. पर जो बच गई, वो बंटेगी आज की रात. आज की रात बहुत कठिन होगी. जागते रहिए.

लोरी सुनो पर जागते रहो* *शर्तें लागू

राजनीतिक पार्टियों को अपने वादों के साथ एक तारा लगाकर 'शर्तें लागू' भी लिखना चाहिए. शर्तें जैसे कि अगर रेवन्यू इकठ्ठा हो पाया तभी ये योजनाएं लागू होंगी.
यूपी में अभी-अभी बीजेपी का घोषणापत्र ज़ारी हुआ है, उसमें मुलायम सिंह के लैपटॉप के बदले लैपटॉप का वादा किया है. इस प्रतियोगिता की शुरुआत तब हुई जब केन्द्र सरकार ने आकाश टैबलेट को कांग्रेसी अचीवमेंट बना कर दिखाना शुरू कर दिया. जिस मुल्क के कई खित्ते अभी स्कूल का मुंह नहीं देख पाए हैं, उस मुल्क में १,००० रूपए का टैबलेट एक गोली नहीं तो क्या है. आईआईटी जोधपुर, जिसने आकाश प्रोजेक्ट का बीज बोया था, उसने भी आकाश को फेल करार दिया है. कम्प्यूटर के शोर में असली मुद्दों की आह सुनाई नहीं दे रही, पर चुनाव के बाद उनका सामना तो करना ही पड़ेगा.
यूपी को पहले स्कूल चाहिए, ६५ फ़ीसदी बच्चे स्कूल से बहुत दूर हैं, जहाँ स्कूल है वहाँ लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट चाहिए, क्योंकि अक्सर ऎसी दिखने-में-छोटी ज़रूरतों के चलते लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है. ऐसे हजारों स्कूल हैं जहाँ छत नहीं, छत है तो टीचर नहीं. टीचर है तो वे अपनी सैलेरी के लिए हड़ताल पर हैं. सरकार उनसे कहती है पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं, कहाँ से दें. पैसे किसान उगाते हैं पर उनको उतने पैसे नहीं मिलते जितने का पसीना खेत सोंख जाता है. मिनिमम सपोर्ट प्राइस बढ़ नहीं सकती क्योंकि सरकार कहती है पैसे पेड़ पर नहीं उगते. अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं, डॉक्टर है तो दवा नहीं, दवा है तो नकली है, असली है तो उसमें एनएचआरएम घोटाला है. फिर भी यूपी जैसे गरीब राज्य में पार्टियां लैपटॉप बांटने को आतुर है. भले ही राज्य कर्जे पर ब्याज का भुगतान करने के हालात में नहीं. क्योंकि चुनाव के वक्त हम वादों की चकाचौंध में बहुत कुछ देख नहीं पाते और आरोप-प्रत्यारोप के शोर में कुछ सुनाई नहीं पड़ता.
अपने पंजाब के हालात देखिए. कांग्रेस शिरोमणि अकाली दल पर आरोप लगाती है कि राज्य पर ७८००० करोड़ का क़र्ज़ हो गया है, मानो ये क़र्ज़ सिर्फ एक सरकार ने लिया हो. १९९७ में कांग्रेस सरकार गई तो पंजाब पर क़र्ज़ था १२,००० करोड़, जब २००२ में अकाली गए तो वह दुगुना हो गया यानि २४,००० करोड़, फिर जब आई कांग्रेस आई तो ये कम नहीं हुआ, बल्कि 2007 में जाते जाते क़र्ज़ दुगुना हो गया यानि ४८,००० करोड़. क़र्ज़ का घी पीना राजनीतिक परंपरा है.
बैंक क़र्ज़ देने से हाथ खड़े कर रहे हैं. वह भी भारत के सबसे खुशहाल राज्य को. क्योंकि आर्थिक नीतियां पंजाब-केंद्रित नहीं हैं, वोट-केंद्रित हैं. जिस राज्य के विकास दर से अन्य राज्य सीख लेते थे, उसका विकास दर ६ प्रतिशत से नीचे है. पड़ोस के हरियाणा का ११ प्रतिशत है. हिमाचल जैसे दुर्गम राज्य का ९.५ फ़ीसदी है और झारखण्ड जैसे भ्रष्ट-त्रस्त राज्य का ९.८ फ़ीसदी है. मुफ्त की बिजली ने पंजाब बिजली निगम की कमर तोड़ दी है जिसे किश्तों के भुगतान होने का टोटा है. ये आंकड़े सिर्फ आंकड़े नहीं हैं. ये एक बुरा सपना है जिस से जागना ज़रूरी है. राज्य को जगाने की ज़िम्मेदारी जिनकी है वह जनता को लोकलुभावन लोरी सुना कर सुला देना चाहते हैं. बस आप जागते रहिए. वोट उन मुद्दों पर दीजिए जो असली मुद्दे हैं. वोट बिजली पैदा करने के लिए दीजिए, मुफ्त की बिजली के लिए नहीं. वोट रोज़गार पैदा करने वाली नीतियों के आधार पर कीजिए, सरकारी रोजगार योजनाओं या नौकरी के नाम पर नहीं. वोट महंगाई कम करने वाली नीतियों पर दीजिए, मुफ्त के राशन पर नहीं. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार खत्म करने के उपायों को देखिए, ना कि वादों को. सरकार जिनकी भी बने उनको राज्य की प्राथमिकताएं सुशासन के चश्मे से देखनी पड़ेगी, क्योंकि पंजाब को तेज आर्थिक विकास की पटरी पर वापस आना है. आप उसे चुनिए जो यह कर सके. सही को चुनिए.