Tuesday, July 21, 2009

Total Eclipse of The Mind: The World Is Not Gonna End This Time. It's Next Time, Stupid!

In a move widely heralded as unique, the Uttar Pradesh government has decided to ban the July 22 total eclipse of the Sun in the state. Chief Minister Kumari Mayawati announced this at a crowded press conference in state capital Haathi Nagar, 500 km from UP's national capital erstwhile Noida, now renamed Mayawati Nagar.
"It's a conspiracy hatched by Mulayam Singh Yadav and Rahul Gandhi. The BSP will continue its struggle against Manuvaadi forces," she told reporters.

Samajwadi Party general secretary Amar Singh, who has just received a fresh pair of kidneys in Singapore, spoke to reporters on videophone from the hospital clearly showing the urgency to criticise the government move. He said there is jungle raaj in Uttar Pradesh. BJP leader and environment activist Maneka Gandhi called for converting the state into a national park, so that the animals of this jungle could be protected. She also demanded special security for Varun Gandhi saying there is a threat to his life. "His comments against the minorities were feral and awful but his poems are worse. He deserves to be punished but he doesn't deserve to be thrown in a well. Well, no citizen or animal, deserves to be thrown in a well."

Congress President Sonia Gandhi called the move a ludicrous attempt to prevent a natural phenomenon in India's largest state. "The state government is intellectually bankrupt. If it has no idea about the scientific reasons behind the eclipse. An eclipse occurs when mating wolves demand extra time and God grants them a couple of additional minutes of darkness. It's no business of a state government to meddle in such issues. She said the Centre would look into the matter."

Environmental activists however refuted the claim saying God or Nature does not discriminate among animals. Gay wolves are no different from heterosexual wolves and gay wolves and trans-sexual wolves have never needed extra time. They said the eclipse is a result of global warming and relentless exploitation of democratic systems. "Michael Jackson has died. How many more deaths will it take for the authorities to wake up to the challenges of global warming," a press release from the Global Warming Council of India said.

The Sangh Pariwar decided to call a nationwide agitation against scientific experiments at Taregana and Indore. Shiv Sena (Self-Help Group), a fringe group of the Pariwar, threatened to stop researchers and scientists entering Taregana, a decrepit town near Patna, where the eclipse can be experienced for the longest period in India. "The Sun is worshipped by billions of Hindus across the universe. Science cannot trespass into our religious affairs. Telescopes are evil," Bal Brahmchari, the acting president of the Sena said, while burning effigies of telescopes.

"The world is not going to end," Baba Pongaprasad reassured the viewers of a Hindi news channel saying fake astrologers and greedy pandits are spreading this rumour that the world might end on July 22. "The world will end on July 10, 2010 when the next eclipse takes place. That will be a partial eclipse. There is a world of difference between a partial eclipse and a total eclipse." World of difference, he explained, meant the difference between this eclipse and the next will be the world. "That clearly shows there will be no world."

The Communist Party of India (Marxist) said no eclipse will take place in West Bengal and Kerala. "It's a capitalist conspiracy. The US wants to rob India of its daytime while they have daylight saving. The Manmohan Singh government has sold out to the US. It's no coincidence that the eclipse follows Hillary Clinton's visit to India. The people of India deserve an answer."

The film industry however was not so enthused. Amitabh Bachchan has refused to comment. He said he would write on his blog and those who are still interested in him can log on to the Big Blog. Shah Rukh Khan is away holidaying in his 20-million-pound flat in Park Lane, London. "It's just idle-talk. I am spending quality time with Gauri, who's partying her nights away in London. We get to spend a lot of time together because she and her girlfriends are regularly thrown out of the clubs. Besides, who cares about eclipses. The eclipse happened long time ago, when I bought that bungalow in Bandra. Let sleeping dogs die," he told a website. Amir Khan said Shah Rukh is no longer the king of the box office. Salman Khan denied knowing Solar Eclipse. "I haven't heard of him. Anyway, I don't want to comment on somebody else's personal life." He said he shared a good rapport with Katrina.

Internationally, the US government did not say anything officially but former George W. Bush congratulated Niel Armstrong for this giant leap for moonkind. "It took 40 years but he managed it. Exactly after 40 years, on the day he landed on the moon, the moon has managed to overshadow the Sun. An eclipse is when the moon's shadow creates darkness on the surface of the Sun. That's sort of cool." He however warned Al-Qaeda, North Korea and Iran of unimaginable retribution if they tried to mar the event.

In a tape released to the al-Jazeera channel, the terrorist organisation's second in Command Ayman al-Jawahiri said the suicide bombings have finally worked, now that moon has become bigger than the Sun. "We will continue killing ourselves until we establish Islamic Rule in Pakistan."

Friday, July 17, 2009

दिल मिले या ना मिले

शर्म अल-शेख में भारत और पाकिस्तान के संयुक्त बयान में यह पहली बार हुआ कि साझे बयान में बलोचिस्तान में हो रहे हिंसा का जिक्र हो. पाकिस्तान के सबसे बड़े राज्य में अलगाववाद से पनपी हिंसा दशकों पुरानी है और कई बलोच संगठनों ने पाकिस्तानी सरकार की संप्रभुता को स्वीकार नहीं किया है. दूसरी तरफ पाकिस्तान कश्मीर में भारत के खिलाफ विद्रोह में सक्रिय रहा है. जब पाकिस्तान अपनी भूमिका से इनकार नहीं कर सकता तब वह भारत पर वैसे ही आरोप लगाना शुरू करता है और अक्सर बलोचिस्तान का नाम उछालता है. पर आज तक भारत पाकिस्तान के आधिकारिक वार्ता के बाद के किसी मसौदे या बयान में बलोचिस्तान नहीं आया. इस बार के वक्तव्य में कश्मीर शब्द नहीं है जो भारत-पाक कंपोजिट डायलोग का हिस्सा है. बलोचिस्तान का नाम संयुक्त वक्तव्य में आने से पाकिस्तान के अन्दर इसको एक विजय के रूप में देखा जा रहा है और पाकिस्तान इसका इस्तेमाल आधिकारिक रूप से विश्व पटल पर करेगा जहाँ वह बरसों से भारतीय आतंकवाद से पीड़ित होने का नाटक कर रहा है. अब उस के उन अनर्गल आरोपों को बल मिलेगा.

भारत ने ऐसा वक्तव्य जारी होने कैसे दिया, इस पर बहस होनी चाहिए और इस के पीछे क्या मजबूरियां थी, इस पर भी विचार होना चाहिए. भारत ने अपने कूटनीतिक ज़मीन का छोटा ही सही पर महत्वपूर्ण हिस्सा त्यागने का जो निर्णय लिया, उस के पीछे की सोच को उजागर होना ज़रूरी है. पाकिस्तान के कश्मीर राग को भारत ने नकारने के बाद स्वीकार कर लिया और अपने साझा बयानों में कश्मीर का जिक्र आम बात हो गई, जिसमें दोनों देश यह मानते थे कि यह एक ज्वलंत मुद्दा है और इसका समाधान शांति की दिशा में सबसे बड़ा कदम होगा. पर अब चूँकि भारत ने बलूचिस्तान को भी साझा मुद्दों में स्थान दे दिया है, दोनों देशों के बीच शांति के आसार और मुश्किल हो जायेंगे, क्योंकि यह जगजाहिर है कि बलोचिस्तान से भारत का कोई लेना देना नहीं है. फिर किस व्यक्ति या सोच ने बलोचिस्तान के रेफेरेंस को स्वीकार किया?

इस देश की माँओं ने अपने लाल खोये हैं, उनको जवाब चाहिए कि पाकिस्तान ने क्या किया है कि हम बात नहीं करने की कसम तोड़ने पर मजबूर हुए. आश्वाशन तो हमें अनगिनत मिले पर हमारी धरती पर बारूद और गोलियाँ बरसती रही, हमारे लोकल ट्रेन में, होटल और रेस्तरां में, हमारे बागों में बाज़ारों में बम फटते रहे और कश्मीर सुलगता रहा. चाँद दिनों पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तानी राष्ट्रपति से मिले थे तो उन्होंने दो टूक कहा था कि जब तक आप आतंक के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं करते हम आपसे बातचीत नहीं करेंगे. चार दिन पहले विदेश राज्य मंत्री प्रणीत कौर ने कहा कि पाकिस्तान आतंक के खिलाफ लड़ने के मामले में गंभीर नहीं है. फिर पाकिस्तान ने क्या किया इन चार दिनों में कि द्विपक्षीय संबंधों की काली रात पर चांदनी फ़ैल गई.

जिन मुद्दों पर भारत ने अपना रुख विश्व समुदाय के सामने स्पष्ट कर दिया था और विश्व समुदाय उन पर भारत के साथ खडा था, उन मुद्दों को यूं ही अचानक दरकिनार कर भारत क्या साबित करना चाह रहा है? इस लेन देन में भारत को क्या मिला अगर उस पर गौर करें तो यह एक हास्यास्पद त्रासदी सी दिखती है. पाकिस्तान ने कहा है कि वह भारत को खुफिया जानकारियाँ देगा और होने वाली आतंकी खतरों से आगाह करेगा. पर दोनों देशों के बीच गठित जोइंट टेरर मेकेनिजम की यही भूमिका थी. पाकिस्तान की प्रमुखतम खुफिया एजेन्सी ही तो भारत में आतंक फैलाने वाली केन्द्रीय संस्था है, वह कैसे हमें आगाह करेगी. अमेरिका और भारत दोनों ने इस बात को दुहराया है कि आईएसआई भारत के खिलाफ होने वाले गतिविधियों का केंद्र रहा है. पाकिस्तान ने यह भी कहा कि वह मुंबई हमलों के जिम्मेदार लोगों को सज़ा दिलाने का भरसक प्रयास करेगा. पर वह यह तो पहले भी कह चुका है, पर किया कुछ ख़ास नहीं. वह आसानी से इन सभी मामलों को एक लीगल केस बना कर उलझा सकता है जैसा कि उसने हाफिज़ सईद के मामले में किया है.

पर मनमोहन सिंह एक सुलझे राजनितिक हैं और कूटनीति में भी माहिर हैं. तो फिर यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि उन्होंने जो कदम पीछे हटाये हैं, सोच विचार कर हटाये होंगे. पर वही सोच उन्हें देश को समझानी होगी. इस देश को अधिकार है जानने का क्योंकि इसने बलि दी है अपने बच्चों और जवानों की.

Monday, July 06, 2009

एटा की छिलो, दादा?

वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन गिने जाते थे इसी दिन के लिए?


बजट आया भी और नहीं भी आया. कुछ बदला नहीं. एक चुटकी टैक्स घटने से क्या होगा जब तीन दिन पहले पेट्रोल के दाम चार रुपये बढ़ गए थे? ऐसे विचार अगर आपके मन में आ रहे हों, तो आने दीजिये. अब सोच है कभी भी आ सकती है पर ज़रा सोचिये हम किस लिए निराश हुए. क्यूंकि हम अपनी बड़ी सी आस लेकर अपने बड़े से टीवी पर प्रणब दादा को निहार रहे थे. अगले साल यह बड़ा टीवी स्लिम हो जाएगा. एलसीडी के दाम घटा कर दादा ने इतना तो कर ही दिया. आपकी नाक रह जायेगी. और अगर नाक नुकीले करवाने थे तो बुरी खबर सूँघिये: कॉस्मेटिक सर्जरी महंगा होगा. ऐसा क्यों नहीं करते अपने नथुने के लिए ब्रांडेड ज्वेलरी ले लीजिये, वह सस्ता हो गया है. सोना महंगा होगा पर इस के लिए नींद हराम ना कीजिये.

बीजेपी राम-राम करेगी और वाम-वाम वाले सर पटकेंगे क्योंकि यह बजट इतना ठंडा-ठंडा निकला कि कहीं कोई गरमा-गरमी नहीं. अब अच्छा हो तो क्या कहें और बुरा हो तो क्या कहें. खट्टा भी, मीठा भी, खुशी भी, गम भी, आप भी, हम भी, फिराके सनम भी, विसाले सनम भी. ममता की रेल के बाद प्रणब के खेल में, लुभाने के लिए लेमनचूस भी है, सताने के लिए पाकिटमारी भी. इन्क्लूसिव का मतलब होता है, रेल लगेगी तुम्हारी भी, हमारी भी.

मूल तो मूळ, सूद वसूलेंगे
हथिया बरसे चित्त मंडराए, घर बैठे किसान नितराए. इस बार मानसून दगाबाज़ निकला तो क्या, हथिया में झम-झमा- झम नहीं हुई तो क्या, मूल बात ये है कि मूळ नक्षत्र के आखरी दिन प्रणब मुख़र्जी ने जो वादों की बरसात की, किसान नितराने लगे और कांग्रेसी इतराने. हथिया नक्षत्र वाली कहावत उनके समझ नहीं आएगी जो सेंसेक्स की नब्ज़ और मार्केट के सेंटिमेंट से देश का बुखार मापते हैं.

कुछ समझ नहीं आया कारपोरेट वालों को. प्रणब मुख़र्जी बंगाली-स्टाइल इंग्लिश में बजट भाषण देते रहे और लिफाफा देख कर ख़त का मजमून भांप लेने वाले दिग्गज लफ्ज़ सुनने और हर्फ़ चुनने में इनके दरमियान क्या था, पकड़ नहीं पाए. दलाल स्ट्रीट में सेंसेक्स धड़ाम से गिर पड़ा, करों में कटौती की आस लिए वेतनभोगी अपने सरों को खुजला रहे थे पर कांग्रेस की दफ्तरों में बैठे कांग्रेसी अपनी मुस्कान छिपा नहीं पा रहे थे. बजट का तो पता नहीं, अर्थव्यवस्था इनके पल्ले नहीं पड़ती पर वोट व्यवस्था के हालत सुधरेंगे, यह सोचकर उनके दिल का सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया. प्रणब मुख़र्जी के अभिभाषण में अभी का भाषण, गरीब का राशन और बंगाल में शासन ऐसे समाहित था जैसे आज अपने सूटकेस में अर्थनीति का दस्तावेज़ भूल कर वह राजनीति की फाइल ले आये हों.

अब देखिये किन सेक्टरों को सीधा फायदा मिलेगा इस बजट से. अप्रत्यक्ष रूप से तो निर्माण उद्योग से जुड़े सबको पर राजनीति प्रत्यक्ष वोटरों पर निर्भर है सो प्रणब दादा ने प्रत्यक्ष को प्रमाण दिया. टेक्सटाइल के नए हब बनेंगे बंगाल और तमिलनाडु और राजस्थान में. महाराष्ट्र में पहले से हैं. बंगाल और महाराष्ट्र में फिर से चुनाव होने हैं. मतदाताओं, उठो और हमारे नीतियों के वस्त्र धारण करो और मतदान केंद्र की ओर बढ़ो. समझदार को इशारा काफी है. यह बजट उन गाँवों और निम्न माध्यम वर्ग के लोगों को सरकार का सलाम है जिन्होंने उसे पांच साल तक देश की आर्थिक तकदीर की ज़िम्मेदारी दी है. यह हर उस वोट का थैंक यू नोट है, जिसने युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस को लेफ्ट के लकुटीए बिना चलने की ताकत बख्शी.

पसरने को असर चाहिए
कांग्रेस की हैसियत एक राष्ट्रव्यापी पार्टी की थी पर उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के बाद इसके अस्तित्व तक पर खतरा हो गया था. इस की पारंपरिक राजनितिक ज़मीन पर जनता पार्टी की संतानों ने कब्ज़ा जमा लिया. लालू, मुलायम, मायावती, नीतिश कुमार जैसे नेताओं का जन्म उसी खालीपन में हुआ, जो कांग्रेस के जगह छोड़ने से बनी. फिर उसे इन्हीं पार्टियों का पिछलग्गू होना पड़ा जो उसके सींचे ज़मीन में पनपे थे. पिछली सरकार के आर्थिक और राहुल गाँधी के राजनितिक प्रयोगों ने यह दिखा दिया कि वह ज़मीन वापस हथिया सकती है अगर पार्टी वोटरों को विश्वास दिला सके कि वह पूंजीपतियों और उच्च वर्ग के स्वार्थ के ऊपर उनके हितों को रखेगी. बीजेपी के शहरी मध्यवर्ग वोट बैंक में सेंध लगाने के बाद कांग्रेस की नज़र उत्तर भारत के ग्रामीण और मुफस्सिल मतदाताओं पर है. इस बार के मतदान के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पार्टी के लिए यह आखिरी किला है, फिर दुःख भरे दिन बीते रे भैया.

दूरदर्शिता के लिए फुल मार्क्स मिलते हैं प्रणब दादा को पर अगर अगर आप यह सोच रहे हैं कि इनकी नजदीक की नज़र कमज़ोर है तो एक नज़र नज़दीक के चुनावों पर डालिए. महाराष्ट्र और बंगाल चुनाव की ओर अग्रसर हैं और केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि वहां के वोटर सबसे खुश हों. कपडा उद्योग को ही ले लें, महाराष्ट्र, बंगाल और थोडा-थोडा तमिलनाडु में जो नए टेक्सटाईल हब हैं, वह नई छूटों का सबसे ज्यादा लाभ उठाएंगे. बंगाल को हैण्डलूम मेगा क्लस्टर, मुर्शिदाबाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कैम्पस हो या मुंबई को अपने नाले साफ़ करने के लिए ५०० करोड़ यही दिखाते हैं कि सरकार की नज़र आगामी चुनावों पर भी है. साइक्लोन आईला ने बंगाल में तबाही मचाई पर केंद्र घोषणाओं से बचता रहा. बजट के मौके पर १,००० करोड़ आईला से तबाह क्षेत्रों के पुनर्निमाण पर खर्च करने का इरादा तब आया जब वामपंथियों की फजीहत हो चुकी थी. एक तीर में दो शिकार.

ओ हल वाले, हलवा ले
पिछली बार किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के बाद भी महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या का दौर नहीं थमा था, क्योंकि किसान बैंक से लोन लें तो माफ़ी का असर हो. निजी सूदखोरों से लोन लिया हो तो क्या करें? इस बार प्रणब मुख़र्जी ने जब इस समस्या के लिए एक टास्क फाॅर्स के गठन की बात की तो महाराष्ट्र का नाम लेना नहीं भूले, ताकि विदर्भ के किसान मतदान के दिन इन का नाम याद रखें.

पच्चीस साल बाद देश के दोनों बजट दो बंगालियों ने पेश किये. बंगाल के लिए इस से बड़ा सिग्नल क्या हो सकता है! बंगाल में वामपंथियों के पैरों तले ज़मीन यूं ही खिसक रही है, उस पर कांग्रेस ने उस ज़मीन को और फिसलन भारी बना दिया है. पहले ममता बनर्जी ने अपने बंगाली रेल बजट पेश किया, अब प्रणब मुख़र्जी ने वामपंथियों के मुद्दे झपट लिए. वामपंथी जिस सर्वहारा की लड़ाई पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ रहे थे, उस सर्वहारा को कांग्रेस अपनी नीतियों से अपना कर रही है और बेचारे वामपंथी टाटा के नैनो और सलेम के मेगा पेट्रो प्रोजेक्ट के साथ दिख रहे हैं. भूमि आवंटन तो वामपंथियों ने सत्तर के दशक में कर दिया पर उस ज़मीन पर खेती करने का सामान अब कांग्रेस मुहैया करा रही है. सस्ते दर में अनाज देकर राज्य सरकारें बहुत वाहवाही लूट रही थीं, वह भी अब केंद्र ने अपना कर लिया है. शहरी गरीबों के लिए घर और ग्रामीणों के लिए रोज़गार में भारी निवेश.

वोट गरम है, चोट करो
बजट २००९-२०१० पर एक सरसरी निगाह डालें तो पता चल जाएगा कि यह बजट अर्थव्यवस्था को वहां ले जाता है जहाँ सुनते आये थे कि भारत बसता है. पिछले चुनाव में भारत ने यूपीए को गले लगाया था क्योंकि सरकार ने ग्रामीण रोज़गार योजना, किसानों की ऋण माफ़ी, ग्रामीण सड़क और विद्युतीकरण में पैसे लगाए थे जिस से गाँवों में ना सिर्फ विकास हुआ बल्कि ग्रामीणों को रोज़गार भी मिला. इस बार उन सब योजनाओं में उम्मीद से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. नेहरु ग्रामीण रोज़गार योजना में ३९,१०० करोड़, यानी १४४ फीसदी ज्यादा, लगेगा. कृषि ऋण योजनाओं में ३,२५,००० करोड़ जायेंगे, जो पुरे बजट का लगभग एक तिहाई है. किसानों के लिए ब्याज दर ७ प्रतिशत ही रहेगा और जो किसान वक़्त पर भुगतान करते हैं उन्हें सिर्फ ६ प्रतिशत ब्याज लगेगा. सिंचाई योजनाओं के लिए भी अतिरिक्त १,००० करोड़ दिया गया है वहीँ ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए ७,००० करोड़ का प्रावधान है. ग्रामीण सडकों के लिए १२,००० करोड़ मिला दें तो भारत निर्माण में पिछली बार के मुकाबले लगभग डेढ़ गुना ज्यादा पैसा लगाया जा रहा है. इंदिरा आवास योजना में खर्च ६३ प्रतिशत बढोतरी के साथ ८,८०० करोड़ का प्रावधान है वहीँ नेशनल हाऊसिंग बोर्ड को २,००० करोड़ दिए गए हैं ग्रामीण योजनाओं के लिए. इस के अलावा राष्ट्रिय महिला कोष के ५०० करोड़ और आदर्श ग्राम योजना के मद का फायदा भी गाँवों को मिलेगा.

यह आंकड़े जहाँ देश की अर्थव्यवस्था को आधारभूत मजबूती देंगे, वहीँ कांग्रेस के नए और उभरते वोट बैंक को सुदृढ़ करेंगे. विकास की लौ से दूर अँधेरे गाँव, अल्पसंख्यक वर्ग, महिलायें और युवा वर्ग कांग्रेस के चार स्तम्भ बने हैं और यह बजट उन्हीं को समर्पित है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को पिछली बार के १,००० करोड़ के मुकाबले इस बार १,७४० करोड़ रुपये दिए गए हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दो और कैम्पस मुर्शिदाबाद और मल्लापुरम में खोले जायेंगे. यह दोनों मुस्लिम-बहुल जिले वामपंथ के दो किलों में स्थित हैं. एक बंगाल में और दूसरा केरल में. यह लेफ्ट को बचे खुचे मुस्लिम समर्थन से महरूम करने का इरादा दर्शाता है. यह बजट वामपंथियों के सपोर्ट बेस पर चोट करता है. युवा वर्ग को लुभाने के लिए एजूकेशन लोन के ब्याज पर सौ फीसदी सब्सिडी और कई और नए आईआईटी खोलने की घोषणा.

सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं
कारपोरेट वर्ल्ड निराश है कि सरकारी कंपनियों में डिसइनवेस्टमेंट या उनके निजीकरण की कोई बात नहीं की गई. पर वह बंगाल चुनावों में खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता. लेफ्ट फिर से गुलामी का हौव्वा खड़ा करता और मतदाताओं की सहानुभूति लूटता. प्रणब दादा ने सोते शैतान को नहीं जगाना ही बेहतर समझा. यह ठंडा बजट है. गरमा-गरम बहस तो होगी पर ना ही बीजेपी ना ही लेफ्ट इस पर कुछ ठोस बोल पायेंगे. और क्षेत्रीय पार्टियां अब तैयार रहे सिकुड़ने के लिए, क्योंकि कांग्रेस को उनकी ज़मीन पर जगह चाहिए. वोट गरम हो तो चोट अभी चाहिए, सेंसेक्स चढ़े या लुढ़के, पार्टी का चढ़ता ग्राफ अगर फिसला तो नक्षत्र गड़बड़ा जायेंगे. आज से पूर्व आषाढ़ नक्षत्र शुरू है. सावन श्रवण का अपभ्रंश है, श्रावण श्रवण या सुनने का संबोधक है. देश की धड़कन पर कान रखिये, राजनीति के नब्ज़ पर हाथ. शेयर बाज़ार में बिकवाली कोई जंतर नहीं अगर आपके पास वोट शेयर का मंतर नहीं. सेक्स अपील से काम चलता तो मल्लिका शेरावत बॉलीवुड में टॉप पर होती. सेंसेक्स अपील काम करता तो राकेश झुनझुनवाला वित्त मंत्री होते. यहाँ वोटर अपील चलता है, इस लिए सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं.

एंटी-क्लाइमेक्स?

बजट आ गया. अगर यह एंटी-क्लाइमेक्स था तो दोष प्रणब मुख़र्जी को मत दीजिये. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बजट के बाद अपनी प्रतिक्रया में कहा यह बजट भारत और इंडिया के बीच की दूरी को कम करने के लिए उठाया गया कदम है. आपके लिए घरेलु बजट का बैलेंस बिगाड़ने वाली महंगाई सबसे बड़ा आर्थिक मुद्दा रहा हो पर सरकार के लिए बैलेंस बजट का मतलब है देश के आर्थिक हितों और अपने पार्टी की राजनितिक हितों के बीच बैलेंस बनाना. और अगर इस तराजू पर प्रणब मुख़र्जी के २००९-२०१० बजट को तौलें तो यह बजट कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी पार्टियों पर भारी पड़ेगा.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों द्वि-दलीय व्यवस्था की ओर जाना चाहते हैं और छोटे दलों को पंख कतरना चाहते हैं. वह दल जो एक राज्य की राजनीति करते हैं पर केंद्र में सत्ता की हिस्सेदारी चाहते हैं क्योंकि छोटी पार्टियों के समर्थन के बिना सरकार बनाना मुश्किल हो गया है. इन पार्टियों का वोट बैंक मुख्यतः ग्रामीण है और उस पर कांग्रेस ने धावा बोल दिया है. राजनीतिक पार्टियों को उद्योगपति चंदा देते हैं पर यह सब पिछले दरवाज़े से होता आया है. इस बजट में पहली बार इस लेने-देने को सामने लाने का प्रयास किया गया है. पार्टियों को दिए गए चंदे पर कोई टैक्स नहीं लगेगा. इसका फायदा कांग्रेस और बीजेपी को मिलेगा, और छोटी पार्टियों को नुक्सान होगा.

Friday, July 03, 2009

जल बिन मछली, रेल बिन लालू

लालू की ग़ज़ल

तू किसी रेल सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
--- दुष्यंत कुमार

Complete Ghazal

खबर आई है लालू ने मछली खाना फिर से शुरू कर दिया है. एक नजूमी ने उनसे कहा था कि मांस-मछली त्याग दें तो चारा घोटाले की काली घटायें छंट जायेंगीं. चारा का बेचारा देखता रह गया और रेल भी छूट गई. मछली की प्रेमी ममता जब रेल ले भागी तो लालू ने मछली को फिर से चारा डालना शुरू कर दिया है.

रेल अधिकारियों ने अपने औफिशिअल वेबसाइट पर ममता का जो भाषण लगाया है उसमें तुरंतो को दुरंतो लिखा गया है. तुरंतो तो तुंरत का बंगाली उच्चारण है पर दुरंतो एक दुर्लभ शब्द है बांगला में. इसका मतलब होता है बेलगाम. लालू जी हामी भरेंगे.

परे हो जा लालू रे, साड्डी रेल गड्डी आई

लालू के लोक लुभावन रेल के खेल में ममता ने उन्हें मात दे दी है. रेलवे में प्रशासनिक सुधार, आधारभूत ढाँचे में सुधार और ये वादे और इरादे ज़मीन पर ज़रूर उतरें, इस के बारे में बिना कुछ बोले नए रेल मंत्री ने अपनी रेल दौड़ा दी. इस दर्जा सादगी से उन्होंने सूटकेस त्याग कर झोला लेकर संसद पहुँची, कि लालू भी शर्मा गए होंगे. फिर उन्होंने लालू की दुखती रगों को छेड़ा. वह भी इज्ज़त के साथ. गरीब रथ के जवाब में इज्ज़त योजना जिसमें २५ रुपये में १०० किमी तक की दूरी तय कर सकेंगे गरीब लोग. इस के साथ ही घोषणाओं की झड़ी सी लग गई, वादों की बरसात में कई राज्य भींगे और कई सूखे के सूखे रह गए. पुराने, जर्जर पटरियों पर नए मंत्रियों की नयी गाडियां पुरानी बात है, ममता के ट्रेन की दिशा पर दस नज़र.

१. लालू, नीतिश, पासवान जैसे कई मंत्रियों ने कई सालों तक रेल मंत्रालय को पटना की दिशा में दौड़ाया था. अब ममता ने रेल मुख्यालय कोलकाता शिफ्ट कर दिया है.
२. इस बार मालपुआ बंगाल और महाराष्ट्र को मिला जहाँ जल्द ही विधान सभा चुनाव आने वाले हैं. ५७ नई गाड़ियों में १४ अकेले बंगाल को गई.
३. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रभुत्व वापस लाने में भिडे राहुल गाँधी को ममता की तरफ से कुछ बल मिला है. कई वर्षों बाद यूपी को न सिर्फ नई गाडियां मिली हैं बल्कि कई प्रोजेक्ट्स भी मिलेंगे.
४. सुपर-फास्ट गाड़ियों को नया नाम मिला है, तुरंतो. ममता के उच्चारण को कई लोगों ने दुरोंतो सुना. तुरोंतो असल में तुंरत है. ये गाडियां राजधानी से ज्यादा तेज़ होंगी, पर यह दावे हैं, दावों का क्या.
५. एक दर्ज़न नॉन-स्टाप लम्बी दूरी की ट्रेनों की घोषणा भी हो गई है. घबराएं नहीं, ये ट्रेनें रास्ते में कुछ स्टेशनों पर रुकेंगी पर सवारी नहीं उठाएंगी. इन में से चार बंगाल को मिले हैं.
६. ममता बनर्जी ने लालू के समय घोषित योजनाओं पर श्वेत पत्र जारी करने की बात कर लालू को छेड़ दिया. श्वेत पत्र में किसी काले कारनामे की चर्चा नहीं होगी, बस कागज़ काले किये जायेंगे.
७. लम्बी दूरी की गाड़ियों में डॉक्टर होंगे. गंदे बेड रोल और कोकरोच-युक्त खाने से ट्रेन में बीमार हुए लोगों का ट्रेन में ही इलाज हो तो अच्छा है.
८. महानगरों में महिलाओं के लिए स्पेशल ट्रेन की घोषणा हुई है. पर वहाँ भी अगर लफंगे उन्हें परेशां करें तो महिला कमांडो की व्यवस्था है. युवाओं के लिए स्पेशल ट्रेन भी चलेगी, इसमें किराया कम होगा. सिर्फ बैठने को जगह मिलेगी.
९. कई बड़े स्टेशनों पर ऑटोमेटिक टिकेट-वेंडिंग मशीन लगेंगे. लोग मुक्के मार मार इसे खराब ना करें.
१०.लालू जी के भाषणों में शीरीं जबान के कई लफ्ज़ दुर्घटना के शिकार हो जाया करते थे. इस बार भी एक गंभीर दुर्घटना घटी. एक लंगडा मगर चालू शेर का ममता बनर्जी से सीधा भिडंत हुआ. वैसे ही फटेहाल उस शेर का क्या हुआ, मुलाहिजा फरमाइए:
रोशनी चाँद से होता है, सितारों से नहीं;
मुहब्बत कामयाबी से होता है, जूनून से नहीं.

जैसा सोचा था वैसा ही पाया

ममता बनर्जी कभी निराश नहीं करती हैं. राजनीति में हो या रेल में आप ममता के कदमों की भविष्यवाणी कर सकते हैं. उनका रेल बजट देश ने जैसा सोचा था वैसा ही पाया. रेल या माल भाड़े में कोई बढोतरी नहीं, ढेर सारी नई ट्रेनें, बंगाल का ख़ास ख्याल आदि आदि. रेल अकेला ऐसा मंत्रालय है जिसका आम बजट से अलग बजट होता है और इसी लिए रेल मंत्रालय पाने के लिए इतनी मारामारी होती है. पूरा देश अपना पर अपना राज्य सबसे पहले की नीति सभी मंत्री अपनाते हैं, और ममता ने पुरे देश पर दृष्टि की जिम्मेदारी पिछले कई मंत्रियों से बेहतर निभाया है. कुल मिलाकर यह लोक-लुलोभी रेल बजट अच्छा है, देश के लिए, भारतीय रेल के लिए. ममता ने लालू के राज की पोल खोली पर लालू की तरह लोक-लुभावन योजनायें लाने से नहीं चूकीं. पर कुछ आधारभूत मुद्दे हैं जो ममता बनर्जी भी नज़रंदाज़ कर गईं.

रेलवे की आधारभूत संरचना पर जोर और बढ़ गया है पर उसके संवर्धन के लिए कोई जोर नहीं लगाना चाहता, क्योंकि उस से कोई राजनितिक स्वार्थ पूरा नहीं होता हर बजट में नई ट्रेनों का एलान हो जाता है और इस बार भी 57 नई ट्रेनें चलाने की घोषणा कर दी गई पर ये सब ट्रेनें उन्हीं पटरियों पर दौडेंगी जिन अभी ही काफी बोझ है. पुलें जर्जर हैं और पटरियों की हालत खस्ता है, जो न सिर्फ गाड़ियों की रफ़्तार पर रोक लगा रही हैं बल्कि दुर्घटनाओं का कारण बन रही हैं. इस रेल बजट में फिर नेटवर्क ने नवीनीकरण के बारे में कुछ नहीं है.

एक महत्वपूर्ण बात ममता बनर्जी ने कही इज्ज़त के बारे में. और उन्होंने गरीब लोगों को पच्चीस रुपये में १०० किमी की दूरी तक महीने भर यात्रा की सुविधा दी. पर आजादी के बासठ साल बाद भी सामान्य श्रेणी के डिब्बों में लोग लकड़ी के पट्टों पर बैठ कर सफ़र करते हैं. डिब्बा चाहे आरक्षित हो या अनारक्षित, बैठने के लिए मुलायम सीट का ना होना सामान्य श्रेणी में बैठने वालों को उनकी औकात दिखाने जैसा है. छूट ना दो, सोने की जगह ना दो पर रेक्सीन का ही सही सीट कवर होना अनिवार्य होना चाहिए. लालू के बाद ममता ने भी ग्रीन टॉयलेट की घोषणा की है, देखना है यह कब तक हो पाता है. भारत के रेलवे स्टेशनों पर देर से आ रही गाड़ियों का इंतज़ार लोग अपनी नाक पर रुमाल रख कर करते हैं. सारे स्टेशन मानव मॉल से पटे पड़े रहते हैं. यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, और आशा है ममता बनर्जी का एलान कागजों से पटरियों तक जाएगा.

बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा

बंगाल में नगर निगम चुनाव में सत्ताधारी वामपंथी गठबंधन का सूपड़ा साफ़ हो गया है और कांग्रेस-तृणमूल गठजोड़ विजयी बन कर उभरी है. इस के ठीक पहले लोक सभा चुनाव में भी कुल मिला कर ऎसी ही स्थिति थी. तीन दशकों से शासन में रहे कम्युनिस्ट पार्टियों की ऎसी दुर्दशा कभी नहीं हुई. और यह लक्षण रहे तो आगामी विधान सभा चुनावों में वामपंथी बंगाल में सत्ता से बाहर हो जायेंगे. ऐसे में कई विश्लेषक और राजनीति के पंडित यह मान रहे हैं की बंगाल में जहाँ मार्क्स और लेनिन दीवारों में पुतते थे अब सड़क पर आ गए हैं. बत्तीस साल बाद, बंगाल वामपंथ से ऊब गया है. इस बात पर गौर करने की ज़रुरत है, क्यूंकि बंगाल वामपंथ से नहीं ऊबा, हो सकता है वामपंथी वामपंथ से हट गए हों.

अगर लड़ाई देखें तो वही है जो सत्तर के दशक में थी. पूंजीवादी पार्टियां और उनके सत्ता-लोलुप कारिंदे एक तरफ और एक जनांदोलन एक तरफ. उसस समयर मुद्दे भी वही थे. सरकार का आम जनता से सरोकार का कम हो जाना और सत्ता से निकट लोगों का विकास के मालपुए को भकोस जाना, जब की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के पैसे के असली हकदारों तक धेले तक का नहीं पहुंचना. फर्क इतना है की तब वामपंथी सरकार में नहीं थे, बल्कि .जन आन्दोलन का हिस्सा थे. भूमि वितरण की लड़ाई लड़ रहे थे, सामंतवाद की खिलाफ डंका पीट रहे थे. हँसिया, हथौडा हाथ लिए लाल रंग से गाँव-दर-गाँव पोत रहे थे.
ममता बनर्जी भले मार्क्स और लेनिन को उधृत नहीं करती हो पर विचारधारा उनकी धुर वामपंथी है जब की वामपंथ के नाम पर राज-पाट संभाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोग सामंतवाद का चलता फिरता नमूना बन गए हैं. उनके कारिंदे कस्बों पर ऐसे राज करते हों जैसे वह पुलिस और प्रशासन के मुखिया हों. पुलिस काडर के लोगों की पिछलग्गू बनी रहती है. ग़रीबों और मजलूमों की आवाज़ बन कर तीन दशक सत्ता में रहे पर फिर उसी आवाज़ को दबाने के लिए काडर का उपयोग हुआ. आज औद्योगीकरण और अत्याचार के खिलाफ ममता आवाज़ उठाती हैं और माओवादियों की माने तो उन्हें ममता बनर्जी का साथ मिला है. लगे हाथों एक माओवादी कमांडर ने यह खुलासा भी कर दिया की लोक सभा चुनाव में उन्होंने ममता की मदद की थी.

सच यह है की बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा वह अब भी वामपंथ के साथ खडा है. और चूँकि वामपंथ की विचारधारा के साथ ममता बनर्जी खडी हैं, इसलिए जनता अब उनकी तरफ हो गई है. बंगाल के वामपंथी नाम के थे, काम के नहीं. कम्युनिस्ट कारिंदों का काम तो राज करना था. उनका नियंत्रण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज से लेकर केबल टीवी तक पर था. आम आदमी हर छोटे बड़े काम के लिए पार्टी के लोकल मेंबर से हामी लेनी होती थी. पर हर नियंत्रण वादी ताक़त के साथ यही होता है, जब नियंत्रित अनियंत्रित हो जाते हैं तो तख्ता पलट जाता है और ताज उलट.

हथियार इन्हें चलाते हैं

लालगढ़ और आस पास के तथाकथित 'मुक्त' इलाकों को माओवादियों से मुक्त करवा लिया गया है. केंद्र और राज सरकारें राहत की सांस ले रही हैं. खून बहा पर उतना नहीं जितना डर था. पुलिस अपना पीठ थपथपा रही है और ऎसी उपलब्धि पर गर्व होना स्वाभाविक भी है. पर सब शायद जल्दी में हैं. गौरतलब है कि गाँव दर गाँव जब सुरक्षा बल पहुंचे तो वहां सिर्फ बूढे और महिलायें बचे थे, जो माओवादियों पर ज़ुल्म का आरोप लगा रहे थे और सुरक्षाबलों का धन्यवाद कर रहे थे. यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने आदिवासी ऐसे थे जिनके हाथों में कल तक तीर और गंडासे थे और होठों पर माओवाद का नारा. और लालगढ़, रामगढ़ या पीरकाटा के सैकडों युवकों का क्या हुआ. आसमान या ज़मीन तो उन्हें लील नहीं गया, बल्कि वह माओवादियों के गुरिल्ला तकनीक में माहिर हो गए हैं.

गुरिल्ला युध्ध में पीछे हटना भी एक कला है वापस हमले के लिए. जब गुरिल्ला लड़ाके संख्या बल में कम होते हैं तो दुह्साहस और दंभ किनारे कर रिट्रीट कर जाते हैं. चे गुएवारा इस तकनीक को मांजा और तराशा, जिसका उपयोग कर विएतनाम के मुट्ठी भर वामपंथियों ने अमेरिका को पछाड़ा. दक्षिण अमेरिका से लेकर दक्षिण एशिया तक हिंसावादी वामपंथी इस का उपयोग करते हैं. माओवाद के सिपाही बड़ी लड़ाई से भागते हैं और छोटी लड़ाईयों में यकीन रखते हैं.

अब सुरक्षा बलों को ऐसी छोटी लड़ाईयों के लिए तैयार रहना पड़ेगा और राज्य और केंद्र की सरकारों को एक रास्ता निकालने में जिसमें लालगढ़ जैसे पिछडे इलाकों में प्रशासन और विकास का कोई गैर-सरकारी विकल्प ना तैयार हो सके. बातचीत का द्वार खुला रखते हुए, नाक्सालवाद से प्रभावित सभी सरकारों और केंद्र को एक समन्वय समिति तत्काल बनाना चाहिए, जो भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक बने रेड कॉरिडोर में माओवाद के खात्मे के लिए युद्घ-स्तर पर काम करे. अब एक डन्दकारन्य नहीं रहा, लाल गलियारा फैलता जा रहा है. झारखण्ड में कुछ माओवादी नेताओं ने मुख्य-धारा में आने की कोशिश की है. सरकार अपने सूचना तंत्र को मजबूत कर ऐसे सभी लोगों को मनाये जो हिंसा की राह छोड़ना चाहते हैं और बदलाव के लिए वोट का रास्ता अपनाना चाहते हैं.

भारतीय माओवादियों को भारत के दुश्मन नचा रहे हैं. लिट्टे ने इन्हें ट्रेनिंग दी, उत्तरपूर्व के कई संगठन खुले आम इनसे हथियार देते लेते हैं. हाल में लश्कर के पकडे गए बड़े एजेंट ने खुलासा किया कि लश्कर-इ-तय्यबा भी इनको ट्रेनिंग दे रहा है. हथियार से चलने वाले आन्दोलन स्वयं हथियार बन जाते हैं या फिर हथियार इन्हें चलाते हैं. इनका किसी पंथ से सरोकार नहीं रहता.