Monday, July 06, 2009

एटा की छिलो, दादा?

वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन गिने जाते थे इसी दिन के लिए?


बजट आया भी और नहीं भी आया. कुछ बदला नहीं. एक चुटकी टैक्स घटने से क्या होगा जब तीन दिन पहले पेट्रोल के दाम चार रुपये बढ़ गए थे? ऐसे विचार अगर आपके मन में आ रहे हों, तो आने दीजिये. अब सोच है कभी भी आ सकती है पर ज़रा सोचिये हम किस लिए निराश हुए. क्यूंकि हम अपनी बड़ी सी आस लेकर अपने बड़े से टीवी पर प्रणब दादा को निहार रहे थे. अगले साल यह बड़ा टीवी स्लिम हो जाएगा. एलसीडी के दाम घटा कर दादा ने इतना तो कर ही दिया. आपकी नाक रह जायेगी. और अगर नाक नुकीले करवाने थे तो बुरी खबर सूँघिये: कॉस्मेटिक सर्जरी महंगा होगा. ऐसा क्यों नहीं करते अपने नथुने के लिए ब्रांडेड ज्वेलरी ले लीजिये, वह सस्ता हो गया है. सोना महंगा होगा पर इस के लिए नींद हराम ना कीजिये.

बीजेपी राम-राम करेगी और वाम-वाम वाले सर पटकेंगे क्योंकि यह बजट इतना ठंडा-ठंडा निकला कि कहीं कोई गरमा-गरमी नहीं. अब अच्छा हो तो क्या कहें और बुरा हो तो क्या कहें. खट्टा भी, मीठा भी, खुशी भी, गम भी, आप भी, हम भी, फिराके सनम भी, विसाले सनम भी. ममता की रेल के बाद प्रणब के खेल में, लुभाने के लिए लेमनचूस भी है, सताने के लिए पाकिटमारी भी. इन्क्लूसिव का मतलब होता है, रेल लगेगी तुम्हारी भी, हमारी भी.

मूल तो मूळ, सूद वसूलेंगे
हथिया बरसे चित्त मंडराए, घर बैठे किसान नितराए. इस बार मानसून दगाबाज़ निकला तो क्या, हथिया में झम-झमा- झम नहीं हुई तो क्या, मूल बात ये है कि मूळ नक्षत्र के आखरी दिन प्रणब मुख़र्जी ने जो वादों की बरसात की, किसान नितराने लगे और कांग्रेसी इतराने. हथिया नक्षत्र वाली कहावत उनके समझ नहीं आएगी जो सेंसेक्स की नब्ज़ और मार्केट के सेंटिमेंट से देश का बुखार मापते हैं.

कुछ समझ नहीं आया कारपोरेट वालों को. प्रणब मुख़र्जी बंगाली-स्टाइल इंग्लिश में बजट भाषण देते रहे और लिफाफा देख कर ख़त का मजमून भांप लेने वाले दिग्गज लफ्ज़ सुनने और हर्फ़ चुनने में इनके दरमियान क्या था, पकड़ नहीं पाए. दलाल स्ट्रीट में सेंसेक्स धड़ाम से गिर पड़ा, करों में कटौती की आस लिए वेतनभोगी अपने सरों को खुजला रहे थे पर कांग्रेस की दफ्तरों में बैठे कांग्रेसी अपनी मुस्कान छिपा नहीं पा रहे थे. बजट का तो पता नहीं, अर्थव्यवस्था इनके पल्ले नहीं पड़ती पर वोट व्यवस्था के हालत सुधरेंगे, यह सोचकर उनके दिल का सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया. प्रणब मुख़र्जी के अभिभाषण में अभी का भाषण, गरीब का राशन और बंगाल में शासन ऐसे समाहित था जैसे आज अपने सूटकेस में अर्थनीति का दस्तावेज़ भूल कर वह राजनीति की फाइल ले आये हों.

अब देखिये किन सेक्टरों को सीधा फायदा मिलेगा इस बजट से. अप्रत्यक्ष रूप से तो निर्माण उद्योग से जुड़े सबको पर राजनीति प्रत्यक्ष वोटरों पर निर्भर है सो प्रणब दादा ने प्रत्यक्ष को प्रमाण दिया. टेक्सटाइल के नए हब बनेंगे बंगाल और तमिलनाडु और राजस्थान में. महाराष्ट्र में पहले से हैं. बंगाल और महाराष्ट्र में फिर से चुनाव होने हैं. मतदाताओं, उठो और हमारे नीतियों के वस्त्र धारण करो और मतदान केंद्र की ओर बढ़ो. समझदार को इशारा काफी है. यह बजट उन गाँवों और निम्न माध्यम वर्ग के लोगों को सरकार का सलाम है जिन्होंने उसे पांच साल तक देश की आर्थिक तकदीर की ज़िम्मेदारी दी है. यह हर उस वोट का थैंक यू नोट है, जिसने युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस को लेफ्ट के लकुटीए बिना चलने की ताकत बख्शी.

पसरने को असर चाहिए
कांग्रेस की हैसियत एक राष्ट्रव्यापी पार्टी की थी पर उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के बाद इसके अस्तित्व तक पर खतरा हो गया था. इस की पारंपरिक राजनितिक ज़मीन पर जनता पार्टी की संतानों ने कब्ज़ा जमा लिया. लालू, मुलायम, मायावती, नीतिश कुमार जैसे नेताओं का जन्म उसी खालीपन में हुआ, जो कांग्रेस के जगह छोड़ने से बनी. फिर उसे इन्हीं पार्टियों का पिछलग्गू होना पड़ा जो उसके सींचे ज़मीन में पनपे थे. पिछली सरकार के आर्थिक और राहुल गाँधी के राजनितिक प्रयोगों ने यह दिखा दिया कि वह ज़मीन वापस हथिया सकती है अगर पार्टी वोटरों को विश्वास दिला सके कि वह पूंजीपतियों और उच्च वर्ग के स्वार्थ के ऊपर उनके हितों को रखेगी. बीजेपी के शहरी मध्यवर्ग वोट बैंक में सेंध लगाने के बाद कांग्रेस की नज़र उत्तर भारत के ग्रामीण और मुफस्सिल मतदाताओं पर है. इस बार के मतदान के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पार्टी के लिए यह आखिरी किला है, फिर दुःख भरे दिन बीते रे भैया.

दूरदर्शिता के लिए फुल मार्क्स मिलते हैं प्रणब दादा को पर अगर अगर आप यह सोच रहे हैं कि इनकी नजदीक की नज़र कमज़ोर है तो एक नज़र नज़दीक के चुनावों पर डालिए. महाराष्ट्र और बंगाल चुनाव की ओर अग्रसर हैं और केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि वहां के वोटर सबसे खुश हों. कपडा उद्योग को ही ले लें, महाराष्ट्र, बंगाल और थोडा-थोडा तमिलनाडु में जो नए टेक्सटाईल हब हैं, वह नई छूटों का सबसे ज्यादा लाभ उठाएंगे. बंगाल को हैण्डलूम मेगा क्लस्टर, मुर्शिदाबाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कैम्पस हो या मुंबई को अपने नाले साफ़ करने के लिए ५०० करोड़ यही दिखाते हैं कि सरकार की नज़र आगामी चुनावों पर भी है. साइक्लोन आईला ने बंगाल में तबाही मचाई पर केंद्र घोषणाओं से बचता रहा. बजट के मौके पर १,००० करोड़ आईला से तबाह क्षेत्रों के पुनर्निमाण पर खर्च करने का इरादा तब आया जब वामपंथियों की फजीहत हो चुकी थी. एक तीर में दो शिकार.

ओ हल वाले, हलवा ले
पिछली बार किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के बाद भी महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या का दौर नहीं थमा था, क्योंकि किसान बैंक से लोन लें तो माफ़ी का असर हो. निजी सूदखोरों से लोन लिया हो तो क्या करें? इस बार प्रणब मुख़र्जी ने जब इस समस्या के लिए एक टास्क फाॅर्स के गठन की बात की तो महाराष्ट्र का नाम लेना नहीं भूले, ताकि विदर्भ के किसान मतदान के दिन इन का नाम याद रखें.

पच्चीस साल बाद देश के दोनों बजट दो बंगालियों ने पेश किये. बंगाल के लिए इस से बड़ा सिग्नल क्या हो सकता है! बंगाल में वामपंथियों के पैरों तले ज़मीन यूं ही खिसक रही है, उस पर कांग्रेस ने उस ज़मीन को और फिसलन भारी बना दिया है. पहले ममता बनर्जी ने अपने बंगाली रेल बजट पेश किया, अब प्रणब मुख़र्जी ने वामपंथियों के मुद्दे झपट लिए. वामपंथी जिस सर्वहारा की लड़ाई पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ रहे थे, उस सर्वहारा को कांग्रेस अपनी नीतियों से अपना कर रही है और बेचारे वामपंथी टाटा के नैनो और सलेम के मेगा पेट्रो प्रोजेक्ट के साथ दिख रहे हैं. भूमि आवंटन तो वामपंथियों ने सत्तर के दशक में कर दिया पर उस ज़मीन पर खेती करने का सामान अब कांग्रेस मुहैया करा रही है. सस्ते दर में अनाज देकर राज्य सरकारें बहुत वाहवाही लूट रही थीं, वह भी अब केंद्र ने अपना कर लिया है. शहरी गरीबों के लिए घर और ग्रामीणों के लिए रोज़गार में भारी निवेश.

वोट गरम है, चोट करो
बजट २००९-२०१० पर एक सरसरी निगाह डालें तो पता चल जाएगा कि यह बजट अर्थव्यवस्था को वहां ले जाता है जहाँ सुनते आये थे कि भारत बसता है. पिछले चुनाव में भारत ने यूपीए को गले लगाया था क्योंकि सरकार ने ग्रामीण रोज़गार योजना, किसानों की ऋण माफ़ी, ग्रामीण सड़क और विद्युतीकरण में पैसे लगाए थे जिस से गाँवों में ना सिर्फ विकास हुआ बल्कि ग्रामीणों को रोज़गार भी मिला. इस बार उन सब योजनाओं में उम्मीद से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. नेहरु ग्रामीण रोज़गार योजना में ३९,१०० करोड़, यानी १४४ फीसदी ज्यादा, लगेगा. कृषि ऋण योजनाओं में ३,२५,००० करोड़ जायेंगे, जो पुरे बजट का लगभग एक तिहाई है. किसानों के लिए ब्याज दर ७ प्रतिशत ही रहेगा और जो किसान वक़्त पर भुगतान करते हैं उन्हें सिर्फ ६ प्रतिशत ब्याज लगेगा. सिंचाई योजनाओं के लिए भी अतिरिक्त १,००० करोड़ दिया गया है वहीँ ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए ७,००० करोड़ का प्रावधान है. ग्रामीण सडकों के लिए १२,००० करोड़ मिला दें तो भारत निर्माण में पिछली बार के मुकाबले लगभग डेढ़ गुना ज्यादा पैसा लगाया जा रहा है. इंदिरा आवास योजना में खर्च ६३ प्रतिशत बढोतरी के साथ ८,८०० करोड़ का प्रावधान है वहीँ नेशनल हाऊसिंग बोर्ड को २,००० करोड़ दिए गए हैं ग्रामीण योजनाओं के लिए. इस के अलावा राष्ट्रिय महिला कोष के ५०० करोड़ और आदर्श ग्राम योजना के मद का फायदा भी गाँवों को मिलेगा.

यह आंकड़े जहाँ देश की अर्थव्यवस्था को आधारभूत मजबूती देंगे, वहीँ कांग्रेस के नए और उभरते वोट बैंक को सुदृढ़ करेंगे. विकास की लौ से दूर अँधेरे गाँव, अल्पसंख्यक वर्ग, महिलायें और युवा वर्ग कांग्रेस के चार स्तम्भ बने हैं और यह बजट उन्हीं को समर्पित है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को पिछली बार के १,००० करोड़ के मुकाबले इस बार १,७४० करोड़ रुपये दिए गए हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दो और कैम्पस मुर्शिदाबाद और मल्लापुरम में खोले जायेंगे. यह दोनों मुस्लिम-बहुल जिले वामपंथ के दो किलों में स्थित हैं. एक बंगाल में और दूसरा केरल में. यह लेफ्ट को बचे खुचे मुस्लिम समर्थन से महरूम करने का इरादा दर्शाता है. यह बजट वामपंथियों के सपोर्ट बेस पर चोट करता है. युवा वर्ग को लुभाने के लिए एजूकेशन लोन के ब्याज पर सौ फीसदी सब्सिडी और कई और नए आईआईटी खोलने की घोषणा.

सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं
कारपोरेट वर्ल्ड निराश है कि सरकारी कंपनियों में डिसइनवेस्टमेंट या उनके निजीकरण की कोई बात नहीं की गई. पर वह बंगाल चुनावों में खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता. लेफ्ट फिर से गुलामी का हौव्वा खड़ा करता और मतदाताओं की सहानुभूति लूटता. प्रणब दादा ने सोते शैतान को नहीं जगाना ही बेहतर समझा. यह ठंडा बजट है. गरमा-गरम बहस तो होगी पर ना ही बीजेपी ना ही लेफ्ट इस पर कुछ ठोस बोल पायेंगे. और क्षेत्रीय पार्टियां अब तैयार रहे सिकुड़ने के लिए, क्योंकि कांग्रेस को उनकी ज़मीन पर जगह चाहिए. वोट गरम हो तो चोट अभी चाहिए, सेंसेक्स चढ़े या लुढ़के, पार्टी का चढ़ता ग्राफ अगर फिसला तो नक्षत्र गड़बड़ा जायेंगे. आज से पूर्व आषाढ़ नक्षत्र शुरू है. सावन श्रवण का अपभ्रंश है, श्रावण श्रवण या सुनने का संबोधक है. देश की धड़कन पर कान रखिये, राजनीति के नब्ज़ पर हाथ. शेयर बाज़ार में बिकवाली कोई जंतर नहीं अगर आपके पास वोट शेयर का मंतर नहीं. सेक्स अपील से काम चलता तो मल्लिका शेरावत बॉलीवुड में टॉप पर होती. सेंसेक्स अपील काम करता तो राकेश झुनझुनवाला वित्त मंत्री होते. यहाँ वोटर अपील चलता है, इस लिए सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं.

2 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

बहुत खूब |

जगदीश त्रिपाठी said...

सर, आपका आलेख पढ़ कर मन झूंम उठा। बजट का विश्षेलषण तो बढ़िया है ही,हथिया और मूल नक्षत्र की चर्चा लाजवाब है। हथिया बरसे चित्त मंडराए, घर बैठे किसान नितराए. इस बार मानसून दगाबाज़ निकला तो क्या, हथिया में झम-झमा- झम नहीं हुई तो क्या, मूल बात ये है कि मूळ नक्षत्र के आखरी दिन प्रणब मुख़र्जी ने जो वादों की बरसात की, किसान नितराने लगे और कांग्रेसी इतराने। क्या बात है। बेजोड़ ।.
और यह टिप्पणी की कि हथिया नक्षत्र वाली कहावत उनके समझ नहीं आएगी जो सेंसेक्स की नब्ज़ और मार्केट के सेंटिमेंट से देश का बुखार मापते हैं,अतुलनीय है। आज के पत्रकारों में से अधिकतर को मूल या हथिया ( या 27 नक्षत्रों में से किसी भी)के बारे में पता हो। लेकिन यह सौ प्रतिशत सत्य है कि जिन्हें इनके बारे में नहीं पता होगा उसे देश की नब्ज के बारे में नहीं पता होगा ।
वैसे भाई साहब आपने जानकारी दी है कि बजट मूल नक्षत्र में आया है। तो जाहिर है कि यह मूल अपना असर तो दिखाएगा ही।