Friday, July 03, 2009

बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा

बंगाल में नगर निगम चुनाव में सत्ताधारी वामपंथी गठबंधन का सूपड़ा साफ़ हो गया है और कांग्रेस-तृणमूल गठजोड़ विजयी बन कर उभरी है. इस के ठीक पहले लोक सभा चुनाव में भी कुल मिला कर ऎसी ही स्थिति थी. तीन दशकों से शासन में रहे कम्युनिस्ट पार्टियों की ऎसी दुर्दशा कभी नहीं हुई. और यह लक्षण रहे तो आगामी विधान सभा चुनावों में वामपंथी बंगाल में सत्ता से बाहर हो जायेंगे. ऐसे में कई विश्लेषक और राजनीति के पंडित यह मान रहे हैं की बंगाल में जहाँ मार्क्स और लेनिन दीवारों में पुतते थे अब सड़क पर आ गए हैं. बत्तीस साल बाद, बंगाल वामपंथ से ऊब गया है. इस बात पर गौर करने की ज़रुरत है, क्यूंकि बंगाल वामपंथ से नहीं ऊबा, हो सकता है वामपंथी वामपंथ से हट गए हों.

अगर लड़ाई देखें तो वही है जो सत्तर के दशक में थी. पूंजीवादी पार्टियां और उनके सत्ता-लोलुप कारिंदे एक तरफ और एक जनांदोलन एक तरफ. उसस समयर मुद्दे भी वही थे. सरकार का आम जनता से सरोकार का कम हो जाना और सत्ता से निकट लोगों का विकास के मालपुए को भकोस जाना, जब की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के पैसे के असली हकदारों तक धेले तक का नहीं पहुंचना. फर्क इतना है की तब वामपंथी सरकार में नहीं थे, बल्कि .जन आन्दोलन का हिस्सा थे. भूमि वितरण की लड़ाई लड़ रहे थे, सामंतवाद की खिलाफ डंका पीट रहे थे. हँसिया, हथौडा हाथ लिए लाल रंग से गाँव-दर-गाँव पोत रहे थे.
ममता बनर्जी भले मार्क्स और लेनिन को उधृत नहीं करती हो पर विचारधारा उनकी धुर वामपंथी है जब की वामपंथ के नाम पर राज-पाट संभाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोग सामंतवाद का चलता फिरता नमूना बन गए हैं. उनके कारिंदे कस्बों पर ऐसे राज करते हों जैसे वह पुलिस और प्रशासन के मुखिया हों. पुलिस काडर के लोगों की पिछलग्गू बनी रहती है. ग़रीबों और मजलूमों की आवाज़ बन कर तीन दशक सत्ता में रहे पर फिर उसी आवाज़ को दबाने के लिए काडर का उपयोग हुआ. आज औद्योगीकरण और अत्याचार के खिलाफ ममता आवाज़ उठाती हैं और माओवादियों की माने तो उन्हें ममता बनर्जी का साथ मिला है. लगे हाथों एक माओवादी कमांडर ने यह खुलासा भी कर दिया की लोक सभा चुनाव में उन्होंने ममता की मदद की थी.

सच यह है की बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा वह अब भी वामपंथ के साथ खडा है. और चूँकि वामपंथ की विचारधारा के साथ ममता बनर्जी खडी हैं, इसलिए जनता अब उनकी तरफ हो गई है. बंगाल के वामपंथी नाम के थे, काम के नहीं. कम्युनिस्ट कारिंदों का काम तो राज करना था. उनका नियंत्रण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज से लेकर केबल टीवी तक पर था. आम आदमी हर छोटे बड़े काम के लिए पार्टी के लोकल मेंबर से हामी लेनी होती थी. पर हर नियंत्रण वादी ताक़त के साथ यही होता है, जब नियंत्रित अनियंत्रित हो जाते हैं तो तख्ता पलट जाता है और ताज उलट.

1 comment:

जगदीश त्रिपाठी said...

आपके लेख से यह चिंता पनपती है कि अगर चरम वामपंथियों के सहयोग से माकपा को ममता ने सत्ता से दूर भी कर दिया तो क्या होगा,सांपनाथ की जगह नागनाथ गली-मोहल्लों से लेकर कोलकाता तक सक्रिय हो जाएंगे।
एक ही दिन में आपने पढ़ने के लिए बहुत कुछ दे दिया। लेकिन इसमें ममता जी को जोड़ लें तो सारा कुछ बंगाल पर ही केंद्रित है।