Wednesday, December 30, 2009

नौ के नश्तर बहुत हुए, दस में बस हो



आज २००९ हमसे विदा लेगा. इस के साथ ही २१वीं सदी का पहला दशक इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा. जाते दशक को दुनिया कोई भाव-भीनी विदाई नहीं देगी, क्योंकि इसकी मीठी यादों के साथ एक चुभन होगी, उन ज़ख्मों की जो इसके जाने के बाद भी रिसेंगे. और फिर दुनिया ये दुआ करेगी कि ऐसा दस साल फिर देखने को नहीं मिले तो अच्छा.
 
२१वीं सदी का स्वागत कितनी अपेक्षाओं और उम्मीदों के साथ हुआ था पर २००१ के नवम्बर में न्यूयोंर्क के ट्विन टॉवर के साथ वे सपने चकनाचूर हो गए. अमेरिका को नया दुश्मन मिला जो कोई देश नहीं था, और नहीं कोई सेना. ये नॉन-स्टेट एक्टर्स थे. ओसामा बिन लादेन का अल-काइदा एक बिना चेहरे वाला दुश्मन था. उस से निपटने के लिए जिस तरह की नीतियां अपनाई गई, उस से अल-काइदा कमज़ोर नहीं हुआ. ओसामा भले अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पहाडियों में सिमट गया पर उस की सोच का विस्तार होता गया. बुश की नीतियों ने अमेरिका का भला किया ना ही दुनिया का.
 
भारत में संसद से लेकर सड़क किनारे डस्टबिन तक, वह सोच बारूद बनकर फूटती रही और जाने कितने निर्दोष हिन्दुस्तानी मरे जो सिलसिला मुंबई में पिछले बरस हुए हमलों तक चलता रहा. एक दशक लहू से भींग गया. दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, बंगलौर, हैदराबाद, मुंबई... शहर के शहर ज़ख़्मी हुए. पाकिस्तान में बैठे आतंक के आकाओं ने अल-काइदा से हाथ मिला लिया. भारत के एक गैंगस्टर की भी मदद लेते रहे, भारत को तबाह करने में. कश्मीर को चैन से जीने ना दिया. जब जब आग बुझी, नई चिंगारियां भड़काई गईं.
 
पाकिस्तान ने भी वही सब कुछ भोग जिसका निर्यात वह भारत को कर रहा था. उसके अपने नागरिक उन्हीं शक्तियों का शिकार होते रहे, अपने ही घर में, अपने बाज़ारों और इबादतगाहों में. २००९ के साथ क्या ये सिलसिला थम जाएगा. नहीं पर, खून के बदले खून की नीतियों ने खूंरेजी को ज़िंदा रखा है. इस्लामिक देशों को अपने देश में आर्थिक विषमताओं, अशिक्षा, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को निपटाना होगा ताकि आतंकी संगठनों को रंगरूट नहीं मिलें वहीं पश्चिम के देशों को अपनी घरेलु और विदेश नीतियों में सौहार्द का अंश बढ़ाना होगा जिस से असंतोष कम हो.
 
पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों के युवाओं में इस दुनिया की उम्मीदें भरनी होगी ताकि वह मृत्युलोक के छल में अपनी जान देने को तैयार नहीं हों. फिर कोई अजमल कसाब अपने घर की नाइंसाफी से तंग होकर पड़ोसी के घर जान लेने और जान देने आये. इस दशक के अवसान पर यही दुआ है कि अब खून का ये खेल खत्म हो. दस के दरवाज़े पर दस्तक दे रही दुनिया आज प्रार्थना करेगी कि उसकी झोली में मरहम होंगे, नश्तर नहीं. आमीन.

Wednesday, December 23, 2009

झारखंडित जनादेश


 अगर लोकतंत्र में चुनाव परिणाम जनता की आकांक्षाओं का दर्पण होता है, तो झारखण्ड के जनादेश में जनता अपना चेहरा देख नहीं पाएगी. टूटे आईने में अक्स भी बिखर जाता है, कुछ ऐसा ही हुआ है झारखण्ड में. संभावनाओं और संपदाओं से सम्पूर्ण तथा सुविधाओं और विकास से वंचित इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहिये कि जब से इसका गठन हुआ है, इसे स्थिरता नसीब नहीं हुई. जब बीजेपी को बहुमत था तो उस पार्टी की आतंरिक अस्थिरता का बोझ तब नवजात राज्य के सीने को रौंदता रहा फिर शिबू सोरेन और लालू यादव की रचित पटकथा पर कोड़ा नायक बन बैठे. उनकी खलनायकी के राज़ जब खुलने लगे तो झारखण्ड सहम सा गया. ऎसी आशा भी की जाने लगी कि लूट-खसोट और बन्दर-बाँट की राजनीति में पिट चुकी जनता इस बार अपने लिए न्याय ढूंढेगी. कोड़ा की पत्नी भारी बहुमत से जीती. और सभी हार गए, जनता भी.
 
जो तस्वीर उभर कर सामने आई है उस से लगता है जोड़ तोड़ होगा और शासन जो भी करे बन्दर-बाँट का डर बना रहेगा. आत्म-विश्वास से लबालब कांग्रेस ने पूर्व भाजपाई और अच्छी छवि वाले बाबूलाल मरांडी की नवगठित पार्टी को ज़्यादा सीट नहीं दी पर परिणामों ने कांग्रेस को चौंका दिया. अब जो हुआ सो हुआ पर इस गठबंधन को शिबू सोरेन की झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के समर्थन की दरकार होगी. लालू की राष्ट्रीय जनता दल शायद ही पांच के अंक से आगे जाए पर ऐसे खंडित जनादेश में वह भी एक रोल निभाएंगे. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सोरेन चाहते हैं किंग बनना पर जनता ने उन्हें किंगमेकर तो बना ही दिया. उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी और उनकी जिद है कि मुख्यमंत्री वही बनेंगे. जिस खिचडी से झारखण्ड का आर्थिक स्वास्थ्य खराब हुआ वही खिचड़ी फिर पकेगी. शिबू सोरेन के दामन पर भ्रष्टाचार के गहरे धब्बे हैं और उन्हें जो पार्टी भी समर्थन दे उसे यह प्रतिज्ञा लेनी होगी कि झारखण्ड की गरीब जनता के साथ फिर धोखा ना हो. ऐसे मौकों पर कई चिन्तक द्वि-दलीय व्यवस्था की वकालत करते हैं पर क्या उस के अलावा कोई समाधान है? जनता को अपने वोट के बारे में विचार करना होगा और पार्टियों को भी चुनाव के पहले अपने साथियों को चुनना होगा, चुनाव के बाद खरीद-फरोख्त के आरोप लगते हैं और लोकतंत्र की छवि खराब होती है. झारखण्ड में लोकतंत्र की छवि का साफ़ और न्यायपूर्ण होना कहीं ज़्यादा आवश्यक है क्योंकि माओवादी संगठन ऎसी कमजोरियों को भुना कर जनता का समर्थन प्राप्त करते हैं. आज इस राज्य का एक बड़ा भाग माओवादी प्रभाव में है. उस मर्ज़ की दवा लोकतंत्र का सफल और विश्वसनीय रूप है. क्या झारखण्ड के नेता स्वच्छ और विश्वसनीय लोकतंत्र के पहरुए बनने के लिए तैयार हैं?

Tuesday, December 22, 2009

Freeloading is approved!

सादगी की कसमें खाने और शशि थरूर के केटल क्लास में सफ़र करने का शिगूफा भूल जाइए. देश हित के बिलों को सालों लटका कर रखने वाले सांसद और मंत्री अपनी ऐश के सामान पर बहस तक नहीं करते. मंगलवार को राज्य सभा में एक बिल बिना बहस पास हो गया जो अब मंत्रियों को यह अधिकार देता है कि वह जितने  सगे- संबंधी, यार-दोस्त  चाहें अपने साथ हवाई यात्रा पर ले जा सकते हैं.  मंत्रियों के वेतन और भत्तों का बिल सुधार इस के पहले लोक सभा में १८ दिसम्बर को पास हो गया था. जी हाँ, वहां भी बिना बहस के. इस पर संसद के किसी सदस्य को आपत्ति नहीं क्योंकि, उन्हें यह सुविधा पहले से मिलती है. ख़ास बात है कि अब मंत्री जी साथ हों या ना हों, उनके सगे संबंधी मंत्री जी मुफ्त हवाई यात्रा कर पायेंगे. सगे सम्बन्धियों की संख्या की कोई सीमा नहीं है और वह अकेले भी ऎसी मुफ्त यात्रा का आनंद उठा सकते हैं. मंत्री जी के के मित्र, चमचे जो चाहें इस का फायदा उठा सकते हैं अगर वह मंत्री जी के साथ लग लें.  

Wednesday, December 16, 2009

Goaah, Ouch!

From being a hippie destination in the Seventies, Goa has come a long way to become the prime holiday destination for Indians and foreigners alike. December and January are the months when the tourism season at its peak. But this December, a cloud of doubt hangs over the tourism industry in Goa. Not because domestic or foreign travelers are keeping away, but because the rising crime against tourists has triggered a debate which is unintelligible and Goa politicians are making claims which the civil society finds outrageous. Goa's tourism minister wrote to his boss, the chief minister, that if law and order is not strengthened Goa may well become the rape capital of India. Chief Minister Digamabar Kamat's reply was shocking to say the least. He said tourists are equally to blame for crime against tourists, especially women.  They should be careful as to not mix with the local populace and dress appropriately. Congress MP from the state scandalized the Rajya Sabha by hinting that recent victims of rape had invited it upon themselves. Some members of the august house were furious at this insinuation and termed it a misogynist idea to blame rape victims for rape. The National Commission for Women criticized him and the Russian consulate said they do issue travel advisories to its nationals but Naik had crossed the line. A Russian woman was recently raped in Goa and the police initially refused to register a case, saying the woman should not have gone with a man in the dark of the night. A similar argument was made when British teenager Scarlett Keeling was raped and murdered. Giving out advice to tourists is not wrong but before blaming the victims, the lawmakers and the law-keepers must take a good look at the law of the land. A husband can be charged with rape if the woman has not given consent. Violation of anyone under 16 is considered rape in the eye of the law. It does not matter whether the victim was walking with the offender or friends with him. A rape is a rape.

What Kamat said is not entirely rubbish. The government must warn tourists against dangers and possible threats in Goa. It should also advise tourists about appropriate dresses for places. That's part of the government's job. But the government must make residents and visitors confident about their security. That's the government's job too. Kamat and Naik should know that crime is committed only when the criminal thinks he can get away with it. It is not decided by the clothes on the victim but the lack of fear of law in the offender's mind. Goa politicians need to stop talking and start working. The state's prime industry is at stake, its image is being shredded in public. They should assure tourists of their safety and not scare them. And for that, they need to secure justice for the victims. A promise to act is any day better than an excuse to not act.

Wednesday, December 02, 2009

ओबामा के सपने

राष्ट्रपति बराक ओबामा के नए अफगान-पाकिस्तान रणनीति की घोषणा में नया कुछ नहीं है. यह अमेरिका की दोमुंही नीतियों का एक और दस्तावेज है, जिसमें युद्ध के अमेरिकी समर्थकों को ३०,००० और सैनिक भेजकर खुश किया गया, वहीं युद्ध के विरोधियों को अफगानिस्तान से वापसी की एक तारीख थामकर शांत किया गया. कल के एक सर्वे में पता चला युद्ध के समर्थक घट कर ३५ फीसदी रह गए हैं. और 55 फ़ीसदी अब इस खूनी खेल का अंत चाहते हैं जिसने 800 अमेरिकियों की जान और 200 बिलियन डॉलर लील चुका है. विर्दोहियों में ज़्यादातर ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक हैं. यह अमेरिका के लोगों के लिए दोमुंहा सन्देश था. कुछ ऐसा ही सन्देश पाकिस्तान को दिया गया है. स्पष्ट है अब ओबामा ने अपनी सेना को युद्धक्षेत्र पाकिस्तान के भीतर तक ले जाने को हरी झंडी डे दी है. वहीं पाकिस्तान को और मदद और हथियार की पेशकश भी कर दी गई. जिस आमूल परिवर्तन की बात ओबामा ने अपने प्रशासन के शुरुआती दिनों में की, वह इस रणनीति में नहीं दिखती. जोर्ज बुश राष्ट्रपति नहीं रहे पर ओबामा कितने अलग हैं, यह un ३०,००० सैनिकों की तैनाती के बाद पता चल जाएगा. अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध अगले 18 महीने में ख़त्म कैसे होगा जब 8 साल में तालिबान मजबूत होता दिख रहा है? यह सवाल जायज़ है पर इसके जवाब के लिए इंतज़ार ज़रूरी है. पर उस सवाल का क्या करें जो इस पुरी रणनीति पर सवाल खड़ा करता है. आप सैनिकों की वापसी का तारीख देकर कोई युद्ध कैसे जीत सकते हैं? सनद रहे, यहाँ अमेरिका किसी देश की सेना से आमने सामने नहीं है. तालिबान गुरिल्ला युद्ध कर रहे हैं? जब तालिबान को यह पता हो कि अमेरिका जुलाई २०११ में सब कुछ छोड़ वापस जाएगा, तो वह अगले १८ महीने अपने गुफाओं में काट लेंगे. अमेरिकियों के जाने के बाद फिर काबुल हथिया लेंगे. तो क्या घरेलु युद्ध विरोधियों को खुश करने में ओबामा ने एक बड़ी भूल कर दी है? इन सब जवाबों के पहले अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए कि वह किसी शत्रु देश को कराने नहीं निकले हैं. वास्तविकता यह है कि अफगानिस्तान ही एक देश नहीं. यह वह ज़मीन है, जो कबीलाई समाजों से बना है और यह ज़मीन कई आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से घिरा होने के कारण देश कहलाने लगा है. वहां लोकतंत्र की सफलता का हाल हालिया चुनावों में ज़ाहिर हो गया. उस देश के सामजिक और शासनात्मक स्थिति यह नहीं है कि वहां लोकतंत्र सफल हो. उनका लोकतंत्र लोया जिरगा तक सीमित है. सोवियत रूस ने उन्हें जबरन एक कर रखा था, पर उन्हें भी भागना पड़ा. उनके लिए आसान था क्योंकि वह आमू नदी पर कर अपने देश चले गए. अमेरिका के लिए अफगानिस्तान छोड़ना उतना आसान नहीं होगा. ओबामा के जुलाई २०११ के सपने सच होते नहीं दीखते.

Thursday, November 26, 2009

Stop that likelihood

What happened in parliament today, Lok Sabha to be specific, was unseemly and unfortunate. An ugly spat on what Speaker Meira Kumar rightly called a "solemn" day. But Pranab Mukherjee's statement that if Advani kept politicking, another worse attack would take place. Dada Mukherjee must have said something as a retort but this has been a refrain right from the prime minister to the lowly constable.
Prime Minister Manmohan Singh has said, in so many words and many many times, that another attack is likely. The top defence officers keep claiming we are ready but one can't rule out another attack. Can we stop this likely business? What the hell do we have a government for? Do we have an intelligence system or not? Can our leaders tell us that they will not let another 26/11 happen? At least on 26/11.

Friday, November 13, 2009

नेता नियुक्त नहीं किये जाते, नेता हो जाते हैं

अज सरे बालीने मन बर खेज़ ऐ नादाँ तबीब,
दर्द मंदे इश्क रा दारू बजुज़ दीदार नीस्त.
 
(चल हट जा मेरे सिरहाने से ऐ डॉक्टर,
मैं इश्क बीमार हूँ, सिवा दीदार कोई दवा नहीं) 
 
अमीर खुसरो रहमतुल्लाह अलय ने यह पंक्तियाँ अपने पीर की जुदाई में कही थी. पर आप इन्हें आज की बीजेपी पर बेबाक टिपण्णी कह सकते हैं. नेतृत्व-विहीन, दिशा-हीन और जघन्य कमजोरी से ग्रसित पार्टी को संजीवनी चाहिए. एक सुदृढ़, संकल्पित नेता के दीदार के सिवा कोई इलाज नहीं.  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने कहा कि दवा दारु चाहिए या कीमोथेरापी, अपनी इलाज के लिए बीमार स्वयं जिम्मेदार है. फिर अपने स्वयंसेवक नाम को सार्थक करते हुए संघ ने स्वयं देसी नुस्खे बनाना शुरू कर दिया. शुरुआत इस से हुई कि दिल्ली  का कोई नेता अब पार्टी की बागडोर नहीं थामेगा. अभी अटकलें चल रही हैं और सबसे आगे नितिन गडकरी हैं. जी हाँ, कैंसर के इलाज के लिए गुलकंद की सलाह डॉक्टर भगवत ने दी है. बीमार को अल्लाह रखे.
बीजेपी को जब भी बीमारियों ने सताया, उसने रामबाण का प्रयोग किया. आज बीजेपी का हर छुटभैया नेता एल.के आडवाणी को कोसते नहीं थकता, जो बीजेपी को पोसते पोसते बूढे हो गए. भावी प्रधानमंत्री का पद संभालते उम्र गुज़र गई, और पार्टी में कोई पद नहीं रहा. टायर नहीं हुए पर रिटायर होने पर मजबूर हैं. क्योंकि युवा शक्ति का ज़माना है. कांग्रेस के प्रधानमंत्री छरहरे जितने हों, उम्र में सिर्फ पांच साल बड़े आडवानी से बस उन्नीस हैं. युवा होना एक मनः स्थिति है, और इस लिहाज़ से बीजेपी के मुकाबले उस से ९५ साल बड़ी कांग्रेस जवान दिखती है. बीजेपी अपने लिए एक अदद राहुल गांधी को ढूँढने निकलती है तो उसे नितिन गडकरी मिलते हैं. दीवारों पर पोस्टर चिपकाने से लेकर महाराष्ट्र राज्य बीजेपी में हर पद संभालने वाले गडकरी आज कल दिल्ली में अपनी कुर्सी तलाश रहे हैं. संघ की टिकट से लैस लुटयन की दिल्ली में पार्टी के मठाधीशों से स्वीकृति की दरकार लिए. पार्टी के वर्तमान नेता झंडेवालान में संघ के दफ्तर में हाजिरी बजा रहे हैं. कीमोथेरपी करें या ऑपरेशन, इस पर विचार चल रहा है. गडकरी नामक गुलकंद से बीमार बीजेपी में नई जान आयेगी, इस का भरोसा किसी को नहीं. शिव सेना के पिछलग्गू होकर महाराष्ट्र के हालिया चुनाव में मुंह की खाए नेता अगर देशव्यापी नेतृत्व दे तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे, मठाधीशों की ये दलील नाजायज़ नहीं लगती.
खासकर तब जब राजनाथ के राज में सारी चमक मिटटी में मिल गई हो. सवाल है कि एक दल जिसने पांच साल देश की सरकार का नेतृत्व किया है उसे कौन सा लकवा मार गया कि नितिन गडकरी से बेहतर नेता नहीं मिल पा रहा. गडकरी में करिश्मा नहीं और उन्हें जनता तो क्या पार्टी के कार्यकर्ता नहीं जानते. नरेंद्र मोदी विकल्प हैं पर उनकी छवि उन्हें गुजरात के बाहर जाने से रोकेगी, यह वह भी जानते हैं. गुजरात के पांच करोड़ जनता की सेवा का संकल्प उन्होंने यूं ही नहीं लिया है. विपक्ष का नेता कैबिनेट मंत्री के दर्जे का होता है और मोदी को तो कई देशों में वीसा नहीं मिलता. आने वाले राष्ट्रप्रमुख राजनाथ से हाथ मिलाते हैं, पर उनके संग कितने लोग फोटो खिंचाएंगे इस पर संदेह है. अरुण जेटली वाक्शक्ति के पहलवान हैं पर मंच पर आने की क्षमता नहीं इसलिए नेपथ्य में ही गूँजते रहेंगे. जसवंत सिंह को जिन्ना के जिन ने निगल लिया और सुषमा स्वराज की तुलना सोनिया से होगी तो पलड़ा हल्का होगा. 
पर  खेवैया चाहिए नहीं तो डूबती नैय्या कौन बचायेगा. नेतृत्व के दिवालियेपन का नतीजा यह है कि जहाँ उभर रहे थे वहां भी डगमग हो रहे हैं. अगर मजबूत नेता होता तो रेड्डी बंधू लोकप्रिय येद्दियुरप्पा को सरेआम रुला नहीं पाते. कर्णाटक का हालिया नाटक इस बीमारी का लक्षण मात्र है. पर नेतृत्व से भी ज़्यादा ज़रूरी है अपने पैरों पर खड़ा होना. संघ के पालने में बैठकर सत्ता के दुधमुंहे सपने पालने से जीवनी शक्ति नहीं आयेगी. वाजपेयी संघ के रहते भी अपनी राजनीति स्वयं करते थे और यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों तक में अपनी छवि के बल पर पैठ बनाने की क्षमता रखते थे. बीजेपी को एक नया वाजपेयी चाहिए जो बोले तो लोग सुनें, चुनें या ना चुनें उनकी मर्जी. पहले वह करिश्मा चाहिए, एक प्राकृतिक नेतृत्व का आत्मबल चाहिए.  संघ स्वयं अपनी ज़मीन खो रहा है, क्योंकि उसकी विचारधारा प्राचीन हो गई है. नया भारत अब वापस सोने की चिडिया नहीं होना चाहता, नया भारत सिलीकोन  का चिप बनकर ज़्यादा खुश है. अगर नए भारत के साथ कदम दर कदम चलना है तो बीजेपी को मर कर ज़िंदा होना पडेगा. इस बीमारी का इलाज ढूँढने के चक्कर में वक़्त जाया किये बिना. नई पार्टी, नया संविधान फिर नेता स्वयं अवतरित होगा. नेता नियुक्त नहीं किये जाते, नेता हो जाते हैं.
अमीर खुसरो की उन पंक्तियों को कव्वाल अज़ीज़ मियाँ संशोधित कर गाते थे. पहली फ़ारसी की लाइन के बाद अपनी हिन्दुस्तानी की लाइन  लगा कर. वक़्त आ गया है बीजेपी संघ से अज़ीज़ मियां वाला वर्ज़न कहे.
अज सरे बालीने मन बर खेज़ ऐ नादाँ तबीब,
तू अच्छा कर नहीं सकता, मैं अच्छा हो नहीं सकता!

Thursday, November 12, 2009

Dawood is more powerful than Sarkozy

Dawood Ibrahim is the world's 50th most powerful person, according to a new list of powerful people published by the prestigious Forbes magazine. The mafia lord, drug dealer and now a declared terrorist is above many heads of states like Sarkozy and  rich multinational industrialists like Ratan Tata and Lakshmi Mittal. The list has 67 people in total and people selected turn out to be one in a 100 million people in the world.

American President Barack Obama tops the list, followed by Chinese bossman Hu Jintao and Russian premier Vladimir Putin. World's most wanted terrorist Osama bin Laden comes at no. 37, just below Indian Prime Minister Manmohan Singh who is at 36. Pakistani Prime Minister Yusuf Raza Gilani is at after Osama at 38.

How did terrorists prop up in a list full of CEOs, presidents, prime ministers and even the Dalai Lama? Forbes says they considered four parameters.

"First, do they have influence over lots of other people? Do they control relatively large financial resources compared with their peers? Are they powerful in multiple spheres? There are only 67 slots on our list--one for every 100 million people on the planet--so being powerful in just one area is not enough. Lastly, we insisted that our choices actively use their power."

 

Considering that Osama is believed to be living in Pakistan's northwest and Dawood in Karachi, Osama is the most powerful person living in Pakistan, more powerful than the Pakistani Prime Minister. The main accused in Mumbai serial bomb blasts case Dawood Ibrahim Kaskar is the third most powerful person living in Pakistan. And by the way Osama and Dawood are not valid Pakistani citizens, they are only sheltered and protected by the ISI. 

 

In other prominent points, Congress chief Sonia Gandhi does not figure in the list because she does not actively uses her power. Hillary Clinton is way above her husband, former President Bill Clinton.

Friday, October 23, 2009

हुआ हिन में लाल कमीज़

Diary item ...

 


लाल कमीज़
पन्द्रहवें आसियान शिखर सम्मलेन पर लाल कमीज़ का गहरा साया है. थाईलैंड के युनाइटेड फ्रंट फॉर डेमोक्रेसी अगेंस्ट डिक्टेटरशिप को अनाधिकारिक तौर पर रेड शर्ट कहते हैं क्योंकि अपने उग्र प्रदर्शनों के दौरान इसके सदस्य लाल कमीज़ पहनते हैं. ये दल पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन सिनावातरा के बाइज्ज़त थाईलैंड लौटने देने के लिए आन्दोलन कर रहा है. सितम्बर २००६ में सेना ने तख्तापलट कर थाकसिन की सरकार को हटा दिया था और उनपर भ्रष्टाचार के मुक़दमे चलाये गए. थाकसिन को दो साल की कैद की सज़ा सुनाई गई है पर वह देश से बाहर हैं. थाईलैंड के ग्रामीण और पिछडे इलाकों में थाकसिन बहुत लोकप्रिय हैं. उनके समर्थक पार्टियों ने २००७ की आम सभा में बहुमत प्राप्त कर लिया था पर उनमें से मुख्य पार्टी पीपुल्स पॉवर पार्टी को एक संवैधानिक कानून ला कर अवैध घोषित कर दिया गया. तब से उन के समर्थक लाल कमीज़ दाल अक्सर थाईलैंड के शहरों में प्रदर्शन करते हैं.


इस के पहले ये सम्मलेन थाईलैंड के पट्ट्या में होने वाला था पर लाल कमीज़ के धमकियों से उसे निरस्त करना पडा था. अब जब यह हुआ हिन् में हो रहा है, तो इस में लाल कमीज़ वालों ने वादा किया है कि वे सम्मेलन को शांतिपूर्वक चलने देंगे बशर्ते उन्हें अपनी मांगें शीर्ष नेताओं के सामने रखने दिया जाए. थाईलैंड की सेना ने उनकी बात मान ली क्योंकि हुआ हिन् में हंगामे का मतलब होता सम्मेलन का पुनः निरस्त होना.

 

फिर भी हुआ हिन की सुरक्षा व्यवस्था पुलिस के हाथों में नहीं. बैंकॉक के २०० किमी दक्षिण में स्थित चा आम और हुआ हिन बैंकॉक या पट्टाया की तरह पर्यटन स्थल तो हैं पर तुलनात्मक रूप में उनसे काफी शांत और स्वच्छ. पर आसियान बैठक को देखते हुए सेना ने सुरक्षा व्यवस्था अपने हाथों में ले ली है. आम दिनों की तरह पर्यटकों की चहल पहल कम है. १८,००० सैनिक और नौसेना के कई युद्धपोत चा आम और हुआ हिन में हर आने जाने वालों पर नज़र रख रही है.

 

भारत चाहता है कि वह दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के इस संगठन के साथ बेहतर तालमेल कर इस क्षेत्र में चीन का प्रभाव कम कर सकता है पर इसे लगता है सिर्फ भारत और चीन ही इतनी गंभीरता से लेते हैं. सदस्य देशों में कई के शीर्ष नेता सम्मेलन के उदघाटन समारोह से नदारद रहे. इंडोनेशिया, फिलिपिन्स और मलयेशिया के प्रमुखों में किसी ने ख़राब मौसम का हवाला दिया तो किसी ने घरेलू ज़रूरतों का बहाना बनाया. जो आये उनमें दुराव कम होता नहीं दिखता. थाईलैंड और फिलीपींस में चावल के दामों के ऊपर का विवाद नहीं थमा है और दूसरे पडोसी कम्बोडिया से सीमा विवाद जस का तस है. थाईलैंड के प्रधानमंत्री अभिसित विज्जजिवा को चिढाने के लिए कम्बोडिया के प्रधानमंत्री हुन सेन ने कहा कि पूर्व थाई प्रधानमंत्री थाकसिन सिनावातरा उनके निकट मित्र हैं और वह जब चाहें कम्बोडिया में उनके घर रह सकते हैं. इस पर थी प्रधानमंत्री अभिसित ने कहा कि उन्हें दूसरे दिन ही अपने मित्र को थाईलैंड के कानून के हवाले करना पड़ेगा क्योंकि कम्बोडिया और थाईलैंड के बीच संधि है कि वे एक दूसरे देश के अपराधियों को शरण नहीं देंगे. खैर इस चीख चीख में लाल कमीज़ वालों के बीच हुन सेन हीरो हो गए हैं.


 

Wednesday, October 14, 2009

चिपक रहा है बदन पर

पाकिस्तान के सेना मुख्यालय पर हुए हमले ने पाकिस्तान की तालिबान पर तथाकथित जीत की कलई खोल दी है. इस से अमेरिका की आँख खुलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं पर विश्व की नज़रें फिर पाकिस्तान पर आ टिकी हैं. और वही पुराना सवाल फिर खड़ा हो गया है कि ओबामा और उनके सहयोगियों द्बारा इस मुल्क की स्थिरता के लिए झोंके जा रहे अरबों डॉलर क्या इसे फिर फूट पड़ने से बच्चा पायेंगे. याद होगा कि मुंबई २६ नवम्बर को चले लम्बे संघर्ष का मज़ाक उडाते पाकिस्तानियों ने कहा था कि यह भारत की अंदरूनी साजिश है क्योंकि दस बंदूकधारी देश के सुरक्षाकर्मियों को इतने घंटों तक कैसे उलझा कर रख सकते हैं. यही अब उन पर आ पड़ी है. दस बंदूकधारियों ने उनकी सेना को उसके मुख्यालय में ही २२ घंटे उलझाए रखा. एक हफ्ते में यह पाकिस्तान पर तीसरा हमला था और इसे पाकिस्तानी सरकार ने बड़ी सफाई से तालिबान पर मढ़ दिया. यहाँ तक कि दक्षिणी वजीरिस्तान के तालिबान ठिकानों पर बमवर्षा तक करवा दिया गया. वह इसलिए कि हाफिज़ सईद के पाले पोसे पंजाब के आतंकी तंत्र पर दुनिया की नज़र नहीं पड़े.

यही भारत के लिए चिंता का विषय है. रावलपिंडी में सेना मुख्यालय पर हुए हमले में तालिबान की छाप नहीं है. इस पर लश्कर और जैश जैसे संगठनों की छाप है. श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर हमला करने वाले लोग भी इस दस्ते में शामिल थे. मुंबई हमलों पर भी इन्हीं की छाप थी. पर पाकिस्तान ने जैसे मुंबई और श्रीलंका टीम पर अटैक के बाद इस सच्चाई को स्वीकार नहीं किया था वैसे ही इस बार भी वह तालिबान की आड़ में छुपता दिख रहा है. इस से इस्लामाबाद को दोतरफा फायदे हैं: तालिबान को घातक और ज़्यादा खतरनाक बता कर वह अमेरिका से पैसे बटोर सकता है और उस आतंक तंत्र को भी ज़िंदा रख सकता है जिसका इस्तेमाल वह भारत के खिलाफ करता रहा है. मुश्किल यह है कि पाकिस्तान स्वयं अपनी कब्र खोद रहा है. जिन जिंदा बमों और बारूद को वह अपने पैरहन से ढँक रहा है, उस में चिंगारियां फूट रही हैं और पाकिस्तान गाहे बगाहे झुलसा है. यही चिंगारी जब लपटों में तब्दील हो जायेगी, तो ना पैरहन रहेगा ना पाकिस्तान. इसकी चिंता अमेरिका या भारत को ही नहीं बल्कि सारे विश्व को करनी चाहिए. एक परमाणु शक्ति वाला देश अगर फूटेगा तो वह इस महाद्वीप में ही नहीं धरती पर कहीं भी ज़लज़ला ला सकता है. ९/११ के बाद आतंक के लिए महाद्वीपों का अंतर ख़त्म हो गया था.

चीनी मीठी नहीं होती हमेशा

प्रधानमंत्री के अरुणाचल दौरे पर चीन की आपत्ति अस्वाभाविक नहीं लगता अगर हम अपने उत्तरी पड़ोसी की हाल की चालों पर गौर करें. इन सब की जड़ में तिब्बत है, जिस पर सैनिक आधिपत्य कायम करने के दशकों बाद भी चीन का नैतिक आधिपत्य नहीं हो पाया है. तिब्बत में चीन ने विकास और आधुनिकता की रेल दौड़ा दी पर तिब्बतियों के दिलों पर राज अभी भी उनके धार्मिक और सांस्कृतिक प्रेरणा श्रोत महामहिम दलाई लामा ही करते हैं. दलाई लामा भारत में रहते हैं और निष्काषित ही सही तिब्बत की नैतिक सरकार यहीं से चलती है. दलाई लामा अरुणाचल के दौरे पर जाने वाले हैं और चीन बेचैन है. चीन इस हद तक अरुणाचल पर दावा करता है कि हाल में आईएएस अधिकारियों की एक टीम का चीन दौरा रद्द करना पड़ा, क्योंकि अरुणाचल-मूळ के एक आईएएस अधिकारी को वीसा नहीं मिला. चीन का कहना था उन्हें वीसा की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अरुणाचल के होने के नाते चीन के ही हुए इसलिए वीसा क्यों?

अब उस घटना को दलाई लामा के परिप्रेक्ष्य में देखें. दलाई लामा का चीन में घुसना मतलब जेल की सलाखों के पीछे होना. और अगर वह अरुणाचल जाते हैं और स्वतंत्र घूमते हैं तो अरुंचल पर चीन के आधिकारिक दावों का क्या होगा. दलाई लामा का भारत में स्वच्छंद विचरण चीन के गले नहीं उतरेगी, कभी भी नहीं. उस पर प्रधानमंत्री का चुनाव के मौके पर अरुणाचल जाना चीन के लिए जले पर नमक छिड़कने जैसा है. क्योंकि लोकतंत्र चीन के लिए अनर्गल चीज़ है और चुनाव इस बात का अंतिम द्योतक है कि अरुणाचल के लोग किस देश को अपना मानते हैं. १९६२ के युद्ध में चीन ने लदाख और अरुणाचल प्रदेश के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था. लेकिन वक़्त की ज़रूरत यह थी कि उसे तिब्बत पर बेहतर नियंत्रण चाहिए था. उस के लिए ज़रूरी था की जम्मू और कश्मीर राज्य का अक्साई चीन इलाका वह अपने कब्जे में ले ले. अक्साई चीन उसके सिंकियांग प्रांत को तिब्बत से सीधे जोड़ता है. अपना प्राथमिक स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद उसने अरुणाचल प्रदेश, जिसे तब नेफा के नाम से जाना जाता था, से अपनी सेना को वापस नियंत्रण रेखा पर बुला लिया.
अक्साई चीन में बड़े हाईवे बने जिसने ना सिर्फ तिब्बत पर बीजिंग की पकड़ मजबूत की बल्कि पाकिस्तान और चीन को सड़क मार्ग से जोड़ दिया. उस के दो दशक से ज़्यादा हो गए थे, जब चीन ने अरुणाचल के तवांग पर अपनी नज़रें गड़ाई. तवांग को चीन दक्षिणी तिब्बत कहता है. अस्सी के दशक में कुछ सैन्य झड़पें भी हुई जिसके बाद दोनों देश सीमा मुद्दों को सुलझाने के लिए कई बार बैठे और कुछ समझौते भी किये गए. पर अरुणाचल, या कम से कम तवांग, पर चीन ने अपना रवैया नहीं बदला.

आर्थिक क्रान्ति के बाद बीजिंग सामरिक रूप से भी मजबूत हो गया पर इक्कीसवीं सदी आते आते भारत ने भी आर्थिक प्रगति के झंडे गाड़े. अब १९६२ जैसे हालत नहीं हैं कि चीन सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर भारत की ज़मीन हथिया सके. हमारे सेना पर्मुखों ने भी स्वीकार लिया कि हम चीन से सीधे भिड़ने में अक्षम हैं, फिर भी दुनिया बदल चुकी है. अब भारत एक आर्थिक शक्ति भी है और अमेरिका जैसे सामरिक शक्ति वाले देशों के करीब भी. अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु संधि कर यह दिखा दिया कि वह इस क्षेत्र में संतुलन के लिए भारत के पलड़े में बैठ सकता है. चीन ने उसकी काट भारत के चारो तरफ घेराबंदी कर तैयार की है. उसकी इस योजना में पाकिस्तान, बर्मा और नेपाल के माओवादी उसके साथ हैं. ऎसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि भारत क्या करे. जवाब भारत पर आर्थिक बोझ डालेंगे पर वह नितांत आवश्यक भी है. भारत के रक्षा बजट में बढोतरी का सबसे बड़ा हिस्सा वेतन बढोतरी में खर्च हो जाता है. ऐसे में भारत के लिए ज़रूरी हो जाता है कि वह अपनी सामरिक क्षमता में व्यापक वृद्धि करे. सीमावर्ती इलाकों में आधारभूत सरंचना का विकास तेजी से हो और किसी भी आपदा से निपटने के लिए अपनी सेना को ज़रूरी साजो-सामान से लैस रखा जाए. युद्ध से सीमा समस्या के समाधान की संभावना नहीं है पर जब तक समस्या है तब तक युद्ध एक संभावना है.

Wednesday, September 16, 2009

किस सादगी से तुमको खुदा कह गए हैं हम

फैशन और चलन से दूर सादगी से जीवन बिताना एक उच्च विचार है, पर अगर सादगी ही फैशन में आ जाए तो क्या करें. कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने स्वयं साधारण श्रेणी में यात्रा कर एक अच्छा उदाहरण दिया है पर पार्टी के नेताओं का बड़बोला अनुसरण और सादगी के बढ़-चढ़ के प्रचार ने सब किरकिरा कर दिया. जनसाधारण ने तिरछी मुस्कान के साथ इसका स्वागत किया है पर ज़रा सा कुरेदिए और सब इसे ढकोसला मान रहे हैं. इस का एक कारण यह है कि लगातार बयानबाजी और सादगी के दिखावे के कारण यह ढकोसले की श्रेणी में स्वयं आ जाता है. दूसरा ये कि देश में नेताओं की विश्वसनीयता का लगातार ह्रास हुआ है और ज़्यादातर लोग इसे मौसम का बुखार मान रहे हैं.

इस सादगी पे कौन ना मर जाए ऐ खुदा,
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं!
शशि थरूर वित्त मंत्री के फटकार के पहले एक पांच-सितारा होटल में रह रहे थे. उन्होंने कहा कि जब वह अगली बार केरल जायेंगे तो उन्हें मवेशी के साथ सफ़र करने में भी कोई आपत्ति नहीं. खीझ कर कांग्रेस के युवा प्रवक्ता और लुधियाना के सांसद मनीष तिवारी पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें विमान में सामानों के साथ लाद दिया जाये. एस.एम्. कृष्णा ने भी अपना पांच सितारा घोसला छोड़ कर्नाटक भवन में घर बसा लिया है. विपक्ष ने आरोप लगाया है कि सादगी के इस बड़बोले प्रचार से असली मुद्दों को दबाने की कोशिश हो रही है. आरोपों-प्रत्यारोपों को छोड़ भी दें तो भी आटे-दाल का भाव तो जनता को मालूम ही है. आलू तक आम आदमी की पहुँच के बाहर जा रही है और नेता अपनी सादगी की प्रतियोगिता में व्यस्त हैं. इस सादगी से देश का कितना भला होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता.

शशि थरूर या कृष्णा इस लिए होटल में रह रहे थे क्योंकि उनका बँगला तैयार नहीं था. पर उस बंगले में पांच-सितारा होटल से कम खर्च नहीं आयेगा. एक एक बंगले की कीमत दो-दो सौ करोड़ तक है और वहां सुरक्षाकर्मियों और अर्दलियों की भीड़ होती है. हर मंत्री के जाने के बाद दुसरे के लिए इन्हें फिर से तैयार करने पर लाखों खर्च होते हैं. इसी सरकार के तीन मंत्रियों ने अपने दफ्तर की फित्तिंग्स बदलवाने पर ३२ लाख खर्च दिए. वह जब इकोनोमी क्लास में यात्रा करते हैं तो भी खर्च कम नहीं होता क्योंकि उनके साथ कई सुरक्षाकर्मी होते हैं जिनके लिए सीट खरीदनी पड़ती है. अभी से इकोनोमी क्लास में सफ़र करने वाले शिकायत करने लगे हैं कि अब उनके आराम और शांति में खलल आयेगी अगर कोई तथाकथित अति अति-महत्वपूर्ण व्यक्ति उनके बीच आ धमके. और वहीँ इस सादगी का मूलमंत्र है. आम आदमी को सादगी का सन्देश देने के लिए अगर विशिष्ट नेता और अफसरगन आम आदमी के साथ चलना सीख लें तो फिर कोई उनके बिज़नस क्लास में सफ़र करने पर आँखें नहीं तरेरेगा. अपने आसपास सुरक्षा का आडम्बर जो आम आदमी को परेशानी में डाले वह त्याग दें तो ही काफी है. कुछ के लिए व्यापक सुरक्षा आवश्यकता है पर अधिकतर लोग इसे अपना अधिकार मान जनता से जनता पर धौंस जमाते हैं.

किस शौक़,किस तमन्ना, किस दर्जा सादगी से;
हम आपकी शिकायत करते हैं आप ही से!!

महात्मा गाँधी की सादगी पर होने वाले खर्चे के बारे में सरोजिनी नायडू के विचार दुहराने की ज़रुरत नहीं है. सोनिया गाँधी के नेतृत्व का कांग्रेस के नेताओं पर गहरी पकड़ है. कमज़ोर मानसून और खाद्यान्न संकट की आशंकाओं से अगर महात्मा गांधी के विचारों की याद आये तो गाँधी जी की आत्मा गदगद नहीं होगी. गांधीजी का अनुसरण करने की नीयत हो तो राजनीति और बाबूशाही में जड़ जमाये भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने की कसम सोनिया गाँधी अपने नेताओं को दिलाएं. यही वो जगह है जहाँ आम आदमी अपने अधिकारों के लिए नेताओं और अफसरों के पैर पकड़ता है. जहाँ आम आदमी को पुलिस के सान्निध्य में ज़्यादा असुरक्षित महसूस करता है. जहाँ उसे अहसास होता है कि वह आम है. उसकी सादगी उसकी मजबूरी है, तमाशा नहीं. उसकी बेकसी तमाशा भले हो.

सादगी तो हमारी ज़रा देखिये ऐतबार आपके वादे पर कर लिया;
अपना अंजाम सब हम को मालूम था आपसे दिल का सौदा मगर कर लिया!!

Friday, September 04, 2009

वाईएसआर १९४९-२००९


बुधवार सुबह साक्षी टीवी का एक क्रू चीफ मिनिस्टर राजशेखर रेड्डी के निवास के बाहर अपना कैमरा ट्राईपोड पर रख रहा था. यह सामान्य बात थी, यह वह अक्सर करते थे जब चीफ मिनिस्टर दौरे पर जाते थे तो वह मुख्यमंत्री की एक बाईट ले लेते थे. यह चैनल मुख्यमंत्री का परिवार चलाता था इस लिए टीवी कर्मी कोई ग़लती नहीं कर सकते थे. तस्वीर और आवाज़ साफ़ होनी चाहिए. पर वह सुबह सामान्य नहीं थी, कैमरामैन ने जब हेड फ़ोन लगा कर चेक किया तो हवा के शोर ने उसे कई एडजस्टमेंट करने पर मजबूर किया. तब तक मुख्यमंत्री बाहर आ गए और अपनी पहले से स्टार्ट स्कॉर्पियो में बैठने को थे की उन्हें टीवी वालों का ख़याल आया. उन्होंने एक छोटी बाईट दी: मैं सुखा-ग्रस्त इलाके के एक गाँव में जाकर औचक निरीक्षण करूंगा की हमारी कल्याणकारी योजनाओं पर कैसा काम हो रहा है. उनकी समस्याओं को जानूंगा."
कैमरामैन साऊंड क्वालिटी से संतुष्ट नहीं था पर दुबारा बाईट देने को कहने की हिम्मत नहीं थी. ये नेता ही नहीं, उनके मालिक भी थे. उसने मौसम को कोसा और तेज़ हवा के बारे में बुदबुदाता हुआ, जाती हुई काली स्कॉर्पियो की लाल बत्तियों को फिल्माता रहा. 
स्कॉर्पियो बेगमपेट एअरपोर्ट की तरफ बढी, जहाँ से वह दक्षिण आंध्र के चित्तूर के लिए उडेंगे और फिर दो गाँवों का दौरा शुरू होगा. यही तो उनकी शक्ति थी, पेशे से कभी डॉक्टर थे पर अब मरीज की नब्ज़ कम पकड़ते थे पर गरीब और गाँव की नब्ज़ पर मजबूत पकड़ रखते थे. लोक सभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता का मद उनके सर कभी नहीं चढा, वह लगातार गाँवों की तरफ बढ़ते चले गए थे.
एअरपोर्ट पर हवा और तेज़ थी. कंक्रीट की सतह पर सरपट दौड़ती हवा को देख कर ग्रुप कैप्टेन एस.के. भाटिया और कैप्टेन एम्.एस.रेड्डी को कोई झिझक नहीं हुई. बेल ४३० हेलीकॉप्टर उडाने का उनको बहुत अनुभव था. ऎसी तेज़ हवाएं उन्होंने बहुत देखी थी. भाटिया ने अपने जीवन के ५६०० घंटे हवा में बिठाये थे और साथी पायलट एम्.एस.रेड्डी के ३००० से ऊपर उड़ान घंटे का अनुभव ज़्यादातर इसी क्षेत्र में था. तीन साल से तो वह आन्ध्र सरकार के लिए ही हेलीकॉप्टर उडाते थे. वह तो मौसम विभाग की चेतावनी थी जिस पर उन्होंने थोड़े समय विचार किया था. मौसम विभाग की चेतावनी उतने ही स्पष्ट रूप से अस्पष्ट थी जितनी अक्सर होती है: घने बादल छाये हैं और मध्य आन्ध्र में हलके से भारी वर्षा की संभावना है. हेलीकॉप्टर पुराना था और इसे झाड़ पोछ कर बाहर किया गया था. ये बेल ४३० रिटायर नहीं हुआ था पर जब से नई अगुस्ता खरीदी गई थी तब से इसका उपयोग कम ही होता था. पर मशीन बहुत उडी-उडाई थी और दोनों पायलट एक बार फिर इसकी रोल्स रोयस इंजन को खड़े खड़े गुर्राने के मिजाज़ में थे. हनीवेल ऑटोमेटिक फ्लाईट कण्ट्रोल सिस्टम के बटन पर हाथ फेरते हुए दोनों एक और उड़ान के लिए तैयार थे तभी तय समय ८.३० पर 'वाईएसआर' आ गए. ग्रुप कैप्टेन भाटिया ने उन्हें मौसम की जानकारी दी तो राजशेखर रेड्डी के चेहरे पर चिंता की नहीं सहज मुस्कान की लकीरें फ़ैल गईं. आखिर इन्द्र देव मेहरबान थे उनके राज्य पर. वर्षा तो शुभ था. अगर यही बादल पहले से बरस रहे होते तो शायद उन्हें आज ये दौरा करना ही नहीं पड़ता. पर मानसून दगाबाज़ निकला और उसकी देरी से राज्य का एक बड़ा भाग सूखे की चपेट में आ गया था. उन्होंने पायलट को कहा, टेक ऑफ. एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल की हरी झंडी मिल चुकी थी और पलों में हेलीकॉप्टर के पंखे हरकत में आ गए. दो दो इंजन और अपनी ७५० शाफ्ट बीएचपी की चिंघाड़ से लैस इसके बिना बेअरिंग के पंखे कुछ देर खड़े खड़े गुर्राए फिर हवा को चीरते हुए उठ गए. विजिबिलिटी अच्छी थी और तीन हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पाते ही हैदराबाद का विहंगम दृश्य सबके सामने था. चीफ सिक्यूरिटी ऑफिसर ए.एस.सी. वेस्ली पूरे वक़्त इस का आनंद ले रहे थे जब मुख्यमंत्री अपने सचिव सुब्रह्मनिं से गुफ्तगू में व्यस्त हो गए. हेलीकॉप्टर कुछ और ऊंचाई प्राप्त करने में जुटा था और पायलट भाटिया और रेड्डी दूर काले बादलों की फोरमेशन देख रहे थे. लगभग ८००० फ़ुट की ऊंचाई से दूर तक देखना आसान होता है खासकर जब वह विसुअल फ्लाईट रूल्स पर चल रहे हों, पर यह स्पष्ट था कि यह रिमझिम कभी भी भारी बारिश में तब्दील हो सकती है. ऊपर से हवाएं रुख बदलें तो उन्हिएँ रास्ता भी बदलना पद सकता है. मुख्यमंत्री भी मौसम के बदलते रंगों से ज्यादा देर नावाकिफ नहीं रहे. पर पायलट की तरह उन्हें भी उड़ने का बहुत अनुभव था. तटीय आन्ध्र प्रदेश में ऐसे मौसम के बदलाव उन्होंने बहुत देखे थे और पिछले चार महीनों में उन्होंने भी सौ से ज्यादा घंटे हवा में बिठाये थे. उन्होंने भगवान् को याद किया और फिर अपने दिन के बारे में सोचने लगे. २५० किमी प्रति घंटे के रफ़्तार से चल रहे हेलीकॉप्टर ने आधे घंटे बाद ही खुद को बादलों के बीच ला खडा किया था. ८.३८ में उड़ान के बाद अभी नौ बजे थे और आम तौर पर नीचे के नालामल्ला जंगलों का दृश्य एक हरे मखमली चादर की तरह होता है जिसमें चेंचू जनजाति के लोगों की बस्तियां यहाँ वहाँ बूते की तरह जडी होती हैं. पर उस हरे चादर पर बरसते पानी की बूंदों ने पानी की एक धुंधली चादर बिछा रखी थी. कुरनूल सामने थे और आज की मंजिल चित्तूर उसके भी आगे. बस दक्षिण दिशा में बढ़ते रहना था. इतने भीषण बारिश में आगे बादलों के भयावह नृत्य को देखकर पायलट ने प्रकृति के तांडव से नहीं टकराना ही बेहतर समझा और अपने पूर्व निर्धारित रास्ते से थोडा बायें मुड़ गए.  

ऑटो पायलट पर होते तो हेलीकॉप्टर अपने पूर्व निर्धारित रास्ते पर चलता है. चाहे बादल कितने घने हों. पर विजुअल फ्लाइंग में आगे देख कर दिशा बदल सकते हैं. काले घने बादलों में वह कितना मुड़े किसको पता, वहां कुछ दिख नहीं रहा था.

कोकपिट में शांति थी पर साँसे तेज़ चल रही थी.  बाहर की बारिश से शीशे पर नमी जम रही थी फिर ओस की बूंदों सरीखी ऐसे टपक रही थी मानो बारिश शीशे से रिस रही हो. विजिबिलिटी कुछ सौ मीटर की होती पर इस ने इसे घटाकर कुछ मीटर का रख दिया था. ज़मीन दिखती रहे इस के लिए कॉप्टर नीचा उड़ रहा था और बार बार उन्हें इसकी ऊंचाई कम करनी पड़ रही थी. तभी अचानक एक दीवार सा उग आया. एक छोटी पहाडी उनका रास्ता रोके खडी थी. दोनों पायलट हरकत में आ गए और तीनो सवार दहशत में. जब तक हेलीकॉप्टर मुड़ता, ४२ फ़ुट लम्बे पंखे उस पहाडी को खुरच चुके थे, दूसरे  पल उस पहाडी पर एक हेलीकॉप्टर के टुकड़े थे. विमान में चार सौ लीटर इंधन था जिस से आग आग फैल गई, पर बारिश ने उसे भी मिनटों में बुझा दिया. इस के पहले कि उसका धुंआ उठे.
९ बजकर तेरह मिनट पर हैदराबाद एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल से संपर्क टूट चुका था और अब चेन्नई को संपर्क करना था. पर किसी को खबर नहीं थी मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर कहाँ गया. हैदराबाद में हड़कंप था पर अनहोनी की आशंका को कोई हवा नहीं देना चाहता था. नालामल्ला के जंगल वैसे भी नक्सालियों से भरे पड़े हैं, कहीं वो इसका फायदा ना उठा लें. खुदा ना करे कहीं उन्होंने ही तो कुछ नहीं कर दिया. कैबिनेट की मीटिंग बुला ली गई, दिल्ली में कांग्रेस सरकार सकते में थी और मुख्यमंत्री की खोज शुरू हो गई. बंगलोर, हैदराबाद, चेन्नई और यहाँ तक कि बरेली से हेलीकॉप्टर और लडाकू विमान नालामल्ला के जंगलों की ओर कूच कर गए. २००० से ज्यादा पुलिस, क्र्प्फ़ और कमांडो दस्ते जंगलों को छानने में जुट गए. बीएसएनएल ने अपने टावरों की क्षमता बढ़ा दी कि वो जंगल के सिग्नल रिसीव कर सकें. पर तीन सौ वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल में एक हेलीकॉप्टर ढूँढना आसान नहीं होता. अमेरिका से कहा गया कि वह अपने सतेलाईट के कैमरे से इन जंगलों पर नज़र रखे, इसरो का एक विमान अपने थर्मल इमजिंग मशीन लेकर जंगलों के ऊपर मंडराता रहा. वक़्त के खिलाफ ज़ंग शुरू हो गई. सब को रात का दर था. नालामल्ला के जंगल तेंदुओं और बाघों का भी घर है और भगवान् ना करे अगर मुख्यमंत्री घायल हों और ऎसी काली रात. मटमैले जंगल में जीवन की तलाश में चेंचू आबादी भी लग गई. आत्मकुर गाँव के लोगों ने खतरनाक ढंग से नीचे उड़ते हेलीकॉप्टर को देखा था, उन्होंने उसकी दिशा बताई. तभी बीएसएनएल के एक टावर ने एक एसएम्एस डिलिवरी की सूचना दी, जो उस सुदूर क्षेत्र में कसी मोबाइल को गया था. पर तब तक देर हो चुकी थी. पूरा दिन आसमान ने जंगल पर पानी उडेला था.  रात ने जंगल पर अपनी काली चादर रख दी थी. पर इतना भरोसा था कि सुबह ये खोज ख़त्म होगी. सारे संकेत बता रहे थी श्रीसैलम क्षेत्र में उफनते जंगली नालों के पार यह खोज ख़त्म होगी.
और सुबह सारी मशीनरी वहां झोंक दी गई, आसमान में उड़ते विमान और ज़मीन पर झाडी दर झाडी झांकते जवान और आम नागरिक. तभी ऊपर उड़ते एक विमान ने लाइफबॉय साबुन लपेट एक टुकडा नीचे चल रहे खोजी दस्ते के बीच फेंका. उन्होंने जीपीएस लोकेशन भेजा था, जो तुंरत समझ भी लिया गया क्योंकि नीचे के दस्ते भी जीपीएस यंत्रों से लैस थे. वह तब भी कोई आठ किलोमीटर दूर थे. उनके पहले ही एक दूसरे विमान से रस्सी के सहारे जवान उस पहाडी पर कूद चुके थे. उन्हें तीन शव तो तुंरत दिख गए पर दो और को ढूँढने के लिए मशक्कत करनी पडी. मलबा और मानव अंग यहाँ वहाँ बिखरे पड़े थे. बादलों भी थक गए थे और सुस्ता रहे थे. साक्षी टीवी पर वाईएसआर के साथ १९४९-२००९ लग चुका था. गणेश विसर्जन की तैयारी धरी की धरी रह गई और पूरे राज्य में लोग अपने नेता को विदाई की तैयारियों में जुट गए. वाईएसआर की तरह. एक काम ख़त्म होने से पहले दूसरे का श्रीगणेश.

Friday, August 28, 2009

इक सब्ज़ा-ए-पामाल

कह गया बार्ड किसी नाम से पुकारो गुल को
उसकी हस्ती-ए-खुश्बू बता देगी कौन है वो
कँवल का क्या होगा कोई नहीं जानता है
बागबाँ ने कह दिया कँवल का कँवल जाने

गुल फरोश नज़रें गड़ाए बैठे हैं
ये कुम्ह्लाता हुआ फूल खरीदेगा कौन
कोई खुश्बू नहीं, कोई रंगत नहीं
ऎसी हालत पे किसी को भी हैरत नहीं
और क्यों होगी?

Tuesday, August 25, 2009

Kutte by Faiz

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ भर का दुत्कार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
जो बिगडें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता कर मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक गर सर उठाये
तो इन्सां सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियां तक चबा लें
कोई इनको अहसास-ए-जिल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

वो रात नहीं थी भैया

वो रात नहीं थी भैया

जिस रात को कांपा था ये शहर
जब गलियों में बरपा था कहर
छुप छुप के शाम के परदे में
रावण आया था अपने घर

दस दस सर थे और दस दस धड़
बंदूक के नालों की तड तड
मजलूमों की वो थर थर थर
खूं से लथपथ था मेरा शहर

वो रात नहीं थी भैया

लहरों पर लहरा लहरा कर
दहशत ने नापा एक सागर
फिर चार दिशाओं में बँट कर
शैतानी हुई इन्सां की नज़र

वो रात नहीं थी भैया

जब वीटी पर कोहराम हुआ
इक कैफे में कत्ले आम हुआ
जब ताज का मर्मर लाल हुआ
बू-ए-बारूद हर गाम हुआ

वो रात नहीं थी भैया

जो आये थे वो आदमी थे
जो मारे गए वो आदमी थे
कहने को तो सब आदमी हैं
कहने को तो बस इक रात थी वो

वो रात नहीं थी भैया

शैतान का सूरज निकला था
इन्सां की रात जलाने को
अब बंद करो अपने झगडे
हम सब को याद दिलाने को

वो रात नहीं थी भैया


इश्वर, अल्लाह, सबके दाता
उस आदम की औलादों को
इक नए नाग ने काटा है
इस ज़हर से तेरी दुनिया को
अब तू ही बचा अपने बच्चे
अपने बच्चों से मेरे खुदा

वो रात नहीं थी या दाता
वो रात नहीं थी ओ भगवन
वो रात नहीं थी या अल्लाह

Monday, August 17, 2009

खान की टोस्ट किसने गरमाई Or Who cheesed off the Khan?

शाह रुख खान को अमेरिका में नेवार्क एअरपोर्ट पर रोक कर पूछताछ की गई. भारतीय फिल्मों के बादशाह को अमेरिकी आव्रजन विभाग के अधिकारियों ने दो घंटे बिठाये रखा और उनके सामान की जांच की. खास आदमी से आम बर्ताव उनको नहीं जांचा और उन्होंने कहा की उनके मुस्लिम नाम के कारण ही उनके साथ यह बर्ताव हुआ. शाह रुख खान को गुस्सा आया तो आया, भारत सरकार में मंत्री अम्बिका सोनी को और ज़्यादा गुस्सा आया और उन्होंने यहाँ तक कह डाला की भारत में आने वाले विशिष्ट अमेरिकी नागरिकों के साथ भी वही सुलूक किया जाना चाहिए, जो भारतीयों के साथ अमेरिका में हो रहा है. शाह रुख खान पहले व्यक्ति नहीं हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के साथ एक अमेरिकी एयरलाइन के कर्मचारियों ने भारत में ही वह सब किया जो शाह रुख के साथ अमेरिका में हुआ. गेओर्गे फेर्नान्देस के तो जूते तक उतरवा कर फ्रिस्किंग की गई थी, अमेरिका में. अमेरिका ने हर बार कहा कि हम से भूल हो गई पर नियम तो नियम हैं और वह सब पर लागू होते हैं.

अम्बिका सोनी जो अमेरिकियों के साथ करना चाहती हैं वह उनके साथ पहले से होता रहा है. भारत में हॉलीवुड के कई विशिष्ट कलाकार आते हैं जिन्हें हर कस्टम अधिकारी नहीं पहचानता और उनके सामानों की जांच की जाती है. उन्होंने इसका बावेला कभी खडा नहीं किया, क्योंकि वहां इसे सामान्य प्रक्रिया का अंग माना जाता है. भारत में ख़ास लोगों को आम लोगों वाले नियम पालन करने की आदत नहीं है और वह विदेश में भी यह सुविधा चाहते हैं. यह सच है अमेरिका में लोगों की धार्मिक आधार पर प्रोफाइलिंग होती है और मुस्लिम नामों पर उनके कान खड़े हो जाते हैं. पर बदसलूकी शायद ही होती है और पंक्ति से अलग कर पूछ ताछ उतनी बुरी चीज़ नहीं जितनी यह प्रतीत होती है. इस से पंक्ति में पीछे के लोगों को आसानी होती है, वरना दो घंटे की पूछ ताछ में सब को दो घंटे इंतज़ार करना पड़ता. ९/११ के बाद अमेरिका अपनी सुरक्षा के बारे में अत्यंत सख्त है और इस गंभीरता का शिकार शाह रुख जैसे भारतियों या मुसलामानों को ही नहीं बनाना पड़ता. जिस किसी का नाम भी एलर्ट में आता है उन्हें पूछताछ से गुजरना पड़ता है.

अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर हों या सेनेटर एडवर्ड केनेडी, इन सबको ऎसी परेशानी का सामना उठाना पड़ा है. उन्होंने अपने देश में ही उन के साथ हुए तथाकथित बदसलूकी पर शोर नहीं मचाया क्योंकि वह यह मानते हैं कि कानून सबके लिए बराबर है और यह सब उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है. अम्बिका सोनी जैसे वरिष्ठ मंत्री का आपा खो देना राजनयिक दृष्टि से बचपना है पर मानसिकता के हिसाब से देखें तो भारतीय नेताओं को कभी उन प्रक्रियाओं से गुजरना भी नहीं पड़ता, जिस से आम भारतीय रोजाना रु-बा-रु होते हैं. शायद इसीलिए उन्हें आम आदमी की परेशानियों का अंदाजा भी नहीं होता.

टोनी ब्लेयर जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे तो उनके बेटे को उम्र से पहले शराब पीने के आरोप में पकडा गया था. ऎसी ग़लती करने पर वहां नियम है कि अभिभावक को थाने आना पड़ता है और थानेदार से अंतिम चेतावनी सुननी पड़ती है. प्रधानमंत्री और उनकी पत्नी पुलिस स्टेशन गए, उन्हें वहाँ तीस मिनट बिताना पड़ा और एक इंसपेक्टर ने उन्हें फाईनल वार्निंग दी. अब अपने देश में प्रधानमंत्री तो छोड़िये, किसी अदना विधायक पुत्र को भी अगर गिरफ्तार किया जाए तो थानेदार की शामत आ जाती है. लोकतंत्र में कानून सबके लिए बराबर होता है पर हमारे देश में कटु सत्य ये है कि कुछ ख़ास लोग कानून से ऊपर हैं. और जब उन्हें बाहर के देशों में पता चलता है कि आम कानून उनपर भी लागू है तो उन्हें गुस्सा आता है. कानून को शाह रुख खान और एक अदने खान में, किसी खान और जॉन में फर्क नहीं करना चाहिए. अमेरिका में मुस्लिम यात्रियों की प्रोफाइलिंग अशोभनीय है पर अम्बिका सोनी को इस पर आपत्ति नहीं. उन्हें शाह रुख खान की सुरक्षा जांच पर आपत्ति है. और अमेरिका को इस पर आपत्ति होना आपत्तिजनक नहीं.

Tuesday, July 21, 2009

Total Eclipse of The Mind: The World Is Not Gonna End This Time. It's Next Time, Stupid!

In a move widely heralded as unique, the Uttar Pradesh government has decided to ban the July 22 total eclipse of the Sun in the state. Chief Minister Kumari Mayawati announced this at a crowded press conference in state capital Haathi Nagar, 500 km from UP's national capital erstwhile Noida, now renamed Mayawati Nagar.
"It's a conspiracy hatched by Mulayam Singh Yadav and Rahul Gandhi. The BSP will continue its struggle against Manuvaadi forces," she told reporters.

Samajwadi Party general secretary Amar Singh, who has just received a fresh pair of kidneys in Singapore, spoke to reporters on videophone from the hospital clearly showing the urgency to criticise the government move. He said there is jungle raaj in Uttar Pradesh. BJP leader and environment activist Maneka Gandhi called for converting the state into a national park, so that the animals of this jungle could be protected. She also demanded special security for Varun Gandhi saying there is a threat to his life. "His comments against the minorities were feral and awful but his poems are worse. He deserves to be punished but he doesn't deserve to be thrown in a well. Well, no citizen or animal, deserves to be thrown in a well."

Congress President Sonia Gandhi called the move a ludicrous attempt to prevent a natural phenomenon in India's largest state. "The state government is intellectually bankrupt. If it has no idea about the scientific reasons behind the eclipse. An eclipse occurs when mating wolves demand extra time and God grants them a couple of additional minutes of darkness. It's no business of a state government to meddle in such issues. She said the Centre would look into the matter."

Environmental activists however refuted the claim saying God or Nature does not discriminate among animals. Gay wolves are no different from heterosexual wolves and gay wolves and trans-sexual wolves have never needed extra time. They said the eclipse is a result of global warming and relentless exploitation of democratic systems. "Michael Jackson has died. How many more deaths will it take for the authorities to wake up to the challenges of global warming," a press release from the Global Warming Council of India said.

The Sangh Pariwar decided to call a nationwide agitation against scientific experiments at Taregana and Indore. Shiv Sena (Self-Help Group), a fringe group of the Pariwar, threatened to stop researchers and scientists entering Taregana, a decrepit town near Patna, where the eclipse can be experienced for the longest period in India. "The Sun is worshipped by billions of Hindus across the universe. Science cannot trespass into our religious affairs. Telescopes are evil," Bal Brahmchari, the acting president of the Sena said, while burning effigies of telescopes.

"The world is not going to end," Baba Pongaprasad reassured the viewers of a Hindi news channel saying fake astrologers and greedy pandits are spreading this rumour that the world might end on July 22. "The world will end on July 10, 2010 when the next eclipse takes place. That will be a partial eclipse. There is a world of difference between a partial eclipse and a total eclipse." World of difference, he explained, meant the difference between this eclipse and the next will be the world. "That clearly shows there will be no world."

The Communist Party of India (Marxist) said no eclipse will take place in West Bengal and Kerala. "It's a capitalist conspiracy. The US wants to rob India of its daytime while they have daylight saving. The Manmohan Singh government has sold out to the US. It's no coincidence that the eclipse follows Hillary Clinton's visit to India. The people of India deserve an answer."

The film industry however was not so enthused. Amitabh Bachchan has refused to comment. He said he would write on his blog and those who are still interested in him can log on to the Big Blog. Shah Rukh Khan is away holidaying in his 20-million-pound flat in Park Lane, London. "It's just idle-talk. I am spending quality time with Gauri, who's partying her nights away in London. We get to spend a lot of time together because she and her girlfriends are regularly thrown out of the clubs. Besides, who cares about eclipses. The eclipse happened long time ago, when I bought that bungalow in Bandra. Let sleeping dogs die," he told a website. Amir Khan said Shah Rukh is no longer the king of the box office. Salman Khan denied knowing Solar Eclipse. "I haven't heard of him. Anyway, I don't want to comment on somebody else's personal life." He said he shared a good rapport with Katrina.

Internationally, the US government did not say anything officially but former George W. Bush congratulated Niel Armstrong for this giant leap for moonkind. "It took 40 years but he managed it. Exactly after 40 years, on the day he landed on the moon, the moon has managed to overshadow the Sun. An eclipse is when the moon's shadow creates darkness on the surface of the Sun. That's sort of cool." He however warned Al-Qaeda, North Korea and Iran of unimaginable retribution if they tried to mar the event.

In a tape released to the al-Jazeera channel, the terrorist organisation's second in Command Ayman al-Jawahiri said the suicide bombings have finally worked, now that moon has become bigger than the Sun. "We will continue killing ourselves until we establish Islamic Rule in Pakistan."

Friday, July 17, 2009

दिल मिले या ना मिले

शर्म अल-शेख में भारत और पाकिस्तान के संयुक्त बयान में यह पहली बार हुआ कि साझे बयान में बलोचिस्तान में हो रहे हिंसा का जिक्र हो. पाकिस्तान के सबसे बड़े राज्य में अलगाववाद से पनपी हिंसा दशकों पुरानी है और कई बलोच संगठनों ने पाकिस्तानी सरकार की संप्रभुता को स्वीकार नहीं किया है. दूसरी तरफ पाकिस्तान कश्मीर में भारत के खिलाफ विद्रोह में सक्रिय रहा है. जब पाकिस्तान अपनी भूमिका से इनकार नहीं कर सकता तब वह भारत पर वैसे ही आरोप लगाना शुरू करता है और अक्सर बलोचिस्तान का नाम उछालता है. पर आज तक भारत पाकिस्तान के आधिकारिक वार्ता के बाद के किसी मसौदे या बयान में बलोचिस्तान नहीं आया. इस बार के वक्तव्य में कश्मीर शब्द नहीं है जो भारत-पाक कंपोजिट डायलोग का हिस्सा है. बलोचिस्तान का नाम संयुक्त वक्तव्य में आने से पाकिस्तान के अन्दर इसको एक विजय के रूप में देखा जा रहा है और पाकिस्तान इसका इस्तेमाल आधिकारिक रूप से विश्व पटल पर करेगा जहाँ वह बरसों से भारतीय आतंकवाद से पीड़ित होने का नाटक कर रहा है. अब उस के उन अनर्गल आरोपों को बल मिलेगा.

भारत ने ऐसा वक्तव्य जारी होने कैसे दिया, इस पर बहस होनी चाहिए और इस के पीछे क्या मजबूरियां थी, इस पर भी विचार होना चाहिए. भारत ने अपने कूटनीतिक ज़मीन का छोटा ही सही पर महत्वपूर्ण हिस्सा त्यागने का जो निर्णय लिया, उस के पीछे की सोच को उजागर होना ज़रूरी है. पाकिस्तान के कश्मीर राग को भारत ने नकारने के बाद स्वीकार कर लिया और अपने साझा बयानों में कश्मीर का जिक्र आम बात हो गई, जिसमें दोनों देश यह मानते थे कि यह एक ज्वलंत मुद्दा है और इसका समाधान शांति की दिशा में सबसे बड़ा कदम होगा. पर अब चूँकि भारत ने बलूचिस्तान को भी साझा मुद्दों में स्थान दे दिया है, दोनों देशों के बीच शांति के आसार और मुश्किल हो जायेंगे, क्योंकि यह जगजाहिर है कि बलोचिस्तान से भारत का कोई लेना देना नहीं है. फिर किस व्यक्ति या सोच ने बलोचिस्तान के रेफेरेंस को स्वीकार किया?

इस देश की माँओं ने अपने लाल खोये हैं, उनको जवाब चाहिए कि पाकिस्तान ने क्या किया है कि हम बात नहीं करने की कसम तोड़ने पर मजबूर हुए. आश्वाशन तो हमें अनगिनत मिले पर हमारी धरती पर बारूद और गोलियाँ बरसती रही, हमारे लोकल ट्रेन में, होटल और रेस्तरां में, हमारे बागों में बाज़ारों में बम फटते रहे और कश्मीर सुलगता रहा. चाँद दिनों पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तानी राष्ट्रपति से मिले थे तो उन्होंने दो टूक कहा था कि जब तक आप आतंक के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं करते हम आपसे बातचीत नहीं करेंगे. चार दिन पहले विदेश राज्य मंत्री प्रणीत कौर ने कहा कि पाकिस्तान आतंक के खिलाफ लड़ने के मामले में गंभीर नहीं है. फिर पाकिस्तान ने क्या किया इन चार दिनों में कि द्विपक्षीय संबंधों की काली रात पर चांदनी फ़ैल गई.

जिन मुद्दों पर भारत ने अपना रुख विश्व समुदाय के सामने स्पष्ट कर दिया था और विश्व समुदाय उन पर भारत के साथ खडा था, उन मुद्दों को यूं ही अचानक दरकिनार कर भारत क्या साबित करना चाह रहा है? इस लेन देन में भारत को क्या मिला अगर उस पर गौर करें तो यह एक हास्यास्पद त्रासदी सी दिखती है. पाकिस्तान ने कहा है कि वह भारत को खुफिया जानकारियाँ देगा और होने वाली आतंकी खतरों से आगाह करेगा. पर दोनों देशों के बीच गठित जोइंट टेरर मेकेनिजम की यही भूमिका थी. पाकिस्तान की प्रमुखतम खुफिया एजेन्सी ही तो भारत में आतंक फैलाने वाली केन्द्रीय संस्था है, वह कैसे हमें आगाह करेगी. अमेरिका और भारत दोनों ने इस बात को दुहराया है कि आईएसआई भारत के खिलाफ होने वाले गतिविधियों का केंद्र रहा है. पाकिस्तान ने यह भी कहा कि वह मुंबई हमलों के जिम्मेदार लोगों को सज़ा दिलाने का भरसक प्रयास करेगा. पर वह यह तो पहले भी कह चुका है, पर किया कुछ ख़ास नहीं. वह आसानी से इन सभी मामलों को एक लीगल केस बना कर उलझा सकता है जैसा कि उसने हाफिज़ सईद के मामले में किया है.

पर मनमोहन सिंह एक सुलझे राजनितिक हैं और कूटनीति में भी माहिर हैं. तो फिर यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि उन्होंने जो कदम पीछे हटाये हैं, सोच विचार कर हटाये होंगे. पर वही सोच उन्हें देश को समझानी होगी. इस देश को अधिकार है जानने का क्योंकि इसने बलि दी है अपने बच्चों और जवानों की.

Monday, July 06, 2009

एटा की छिलो, दादा?

वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन गिने जाते थे इसी दिन के लिए?


बजट आया भी और नहीं भी आया. कुछ बदला नहीं. एक चुटकी टैक्स घटने से क्या होगा जब तीन दिन पहले पेट्रोल के दाम चार रुपये बढ़ गए थे? ऐसे विचार अगर आपके मन में आ रहे हों, तो आने दीजिये. अब सोच है कभी भी आ सकती है पर ज़रा सोचिये हम किस लिए निराश हुए. क्यूंकि हम अपनी बड़ी सी आस लेकर अपने बड़े से टीवी पर प्रणब दादा को निहार रहे थे. अगले साल यह बड़ा टीवी स्लिम हो जाएगा. एलसीडी के दाम घटा कर दादा ने इतना तो कर ही दिया. आपकी नाक रह जायेगी. और अगर नाक नुकीले करवाने थे तो बुरी खबर सूँघिये: कॉस्मेटिक सर्जरी महंगा होगा. ऐसा क्यों नहीं करते अपने नथुने के लिए ब्रांडेड ज्वेलरी ले लीजिये, वह सस्ता हो गया है. सोना महंगा होगा पर इस के लिए नींद हराम ना कीजिये.

बीजेपी राम-राम करेगी और वाम-वाम वाले सर पटकेंगे क्योंकि यह बजट इतना ठंडा-ठंडा निकला कि कहीं कोई गरमा-गरमी नहीं. अब अच्छा हो तो क्या कहें और बुरा हो तो क्या कहें. खट्टा भी, मीठा भी, खुशी भी, गम भी, आप भी, हम भी, फिराके सनम भी, विसाले सनम भी. ममता की रेल के बाद प्रणब के खेल में, लुभाने के लिए लेमनचूस भी है, सताने के लिए पाकिटमारी भी. इन्क्लूसिव का मतलब होता है, रेल लगेगी तुम्हारी भी, हमारी भी.

मूल तो मूळ, सूद वसूलेंगे
हथिया बरसे चित्त मंडराए, घर बैठे किसान नितराए. इस बार मानसून दगाबाज़ निकला तो क्या, हथिया में झम-झमा- झम नहीं हुई तो क्या, मूल बात ये है कि मूळ नक्षत्र के आखरी दिन प्रणब मुख़र्जी ने जो वादों की बरसात की, किसान नितराने लगे और कांग्रेसी इतराने. हथिया नक्षत्र वाली कहावत उनके समझ नहीं आएगी जो सेंसेक्स की नब्ज़ और मार्केट के सेंटिमेंट से देश का बुखार मापते हैं.

कुछ समझ नहीं आया कारपोरेट वालों को. प्रणब मुख़र्जी बंगाली-स्टाइल इंग्लिश में बजट भाषण देते रहे और लिफाफा देख कर ख़त का मजमून भांप लेने वाले दिग्गज लफ्ज़ सुनने और हर्फ़ चुनने में इनके दरमियान क्या था, पकड़ नहीं पाए. दलाल स्ट्रीट में सेंसेक्स धड़ाम से गिर पड़ा, करों में कटौती की आस लिए वेतनभोगी अपने सरों को खुजला रहे थे पर कांग्रेस की दफ्तरों में बैठे कांग्रेसी अपनी मुस्कान छिपा नहीं पा रहे थे. बजट का तो पता नहीं, अर्थव्यवस्था इनके पल्ले नहीं पड़ती पर वोट व्यवस्था के हालत सुधरेंगे, यह सोचकर उनके दिल का सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया. प्रणब मुख़र्जी के अभिभाषण में अभी का भाषण, गरीब का राशन और बंगाल में शासन ऐसे समाहित था जैसे आज अपने सूटकेस में अर्थनीति का दस्तावेज़ भूल कर वह राजनीति की फाइल ले आये हों.

अब देखिये किन सेक्टरों को सीधा फायदा मिलेगा इस बजट से. अप्रत्यक्ष रूप से तो निर्माण उद्योग से जुड़े सबको पर राजनीति प्रत्यक्ष वोटरों पर निर्भर है सो प्रणब दादा ने प्रत्यक्ष को प्रमाण दिया. टेक्सटाइल के नए हब बनेंगे बंगाल और तमिलनाडु और राजस्थान में. महाराष्ट्र में पहले से हैं. बंगाल और महाराष्ट्र में फिर से चुनाव होने हैं. मतदाताओं, उठो और हमारे नीतियों के वस्त्र धारण करो और मतदान केंद्र की ओर बढ़ो. समझदार को इशारा काफी है. यह बजट उन गाँवों और निम्न माध्यम वर्ग के लोगों को सरकार का सलाम है जिन्होंने उसे पांच साल तक देश की आर्थिक तकदीर की ज़िम्मेदारी दी है. यह हर उस वोट का थैंक यू नोट है, जिसने युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस को लेफ्ट के लकुटीए बिना चलने की ताकत बख्शी.

पसरने को असर चाहिए
कांग्रेस की हैसियत एक राष्ट्रव्यापी पार्टी की थी पर उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के बाद इसके अस्तित्व तक पर खतरा हो गया था. इस की पारंपरिक राजनितिक ज़मीन पर जनता पार्टी की संतानों ने कब्ज़ा जमा लिया. लालू, मुलायम, मायावती, नीतिश कुमार जैसे नेताओं का जन्म उसी खालीपन में हुआ, जो कांग्रेस के जगह छोड़ने से बनी. फिर उसे इन्हीं पार्टियों का पिछलग्गू होना पड़ा जो उसके सींचे ज़मीन में पनपे थे. पिछली सरकार के आर्थिक और राहुल गाँधी के राजनितिक प्रयोगों ने यह दिखा दिया कि वह ज़मीन वापस हथिया सकती है अगर पार्टी वोटरों को विश्वास दिला सके कि वह पूंजीपतियों और उच्च वर्ग के स्वार्थ के ऊपर उनके हितों को रखेगी. बीजेपी के शहरी मध्यवर्ग वोट बैंक में सेंध लगाने के बाद कांग्रेस की नज़र उत्तर भारत के ग्रामीण और मुफस्सिल मतदाताओं पर है. इस बार के मतदान के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पार्टी के लिए यह आखिरी किला है, फिर दुःख भरे दिन बीते रे भैया.

दूरदर्शिता के लिए फुल मार्क्स मिलते हैं प्रणब दादा को पर अगर अगर आप यह सोच रहे हैं कि इनकी नजदीक की नज़र कमज़ोर है तो एक नज़र नज़दीक के चुनावों पर डालिए. महाराष्ट्र और बंगाल चुनाव की ओर अग्रसर हैं और केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि वहां के वोटर सबसे खुश हों. कपडा उद्योग को ही ले लें, महाराष्ट्र, बंगाल और थोडा-थोडा तमिलनाडु में जो नए टेक्सटाईल हब हैं, वह नई छूटों का सबसे ज्यादा लाभ उठाएंगे. बंगाल को हैण्डलूम मेगा क्लस्टर, मुर्शिदाबाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कैम्पस हो या मुंबई को अपने नाले साफ़ करने के लिए ५०० करोड़ यही दिखाते हैं कि सरकार की नज़र आगामी चुनावों पर भी है. साइक्लोन आईला ने बंगाल में तबाही मचाई पर केंद्र घोषणाओं से बचता रहा. बजट के मौके पर १,००० करोड़ आईला से तबाह क्षेत्रों के पुनर्निमाण पर खर्च करने का इरादा तब आया जब वामपंथियों की फजीहत हो चुकी थी. एक तीर में दो शिकार.

ओ हल वाले, हलवा ले
पिछली बार किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के बाद भी महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या का दौर नहीं थमा था, क्योंकि किसान बैंक से लोन लें तो माफ़ी का असर हो. निजी सूदखोरों से लोन लिया हो तो क्या करें? इस बार प्रणब मुख़र्जी ने जब इस समस्या के लिए एक टास्क फाॅर्स के गठन की बात की तो महाराष्ट्र का नाम लेना नहीं भूले, ताकि विदर्भ के किसान मतदान के दिन इन का नाम याद रखें.

पच्चीस साल बाद देश के दोनों बजट दो बंगालियों ने पेश किये. बंगाल के लिए इस से बड़ा सिग्नल क्या हो सकता है! बंगाल में वामपंथियों के पैरों तले ज़मीन यूं ही खिसक रही है, उस पर कांग्रेस ने उस ज़मीन को और फिसलन भारी बना दिया है. पहले ममता बनर्जी ने अपने बंगाली रेल बजट पेश किया, अब प्रणब मुख़र्जी ने वामपंथियों के मुद्दे झपट लिए. वामपंथी जिस सर्वहारा की लड़ाई पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ रहे थे, उस सर्वहारा को कांग्रेस अपनी नीतियों से अपना कर रही है और बेचारे वामपंथी टाटा के नैनो और सलेम के मेगा पेट्रो प्रोजेक्ट के साथ दिख रहे हैं. भूमि आवंटन तो वामपंथियों ने सत्तर के दशक में कर दिया पर उस ज़मीन पर खेती करने का सामान अब कांग्रेस मुहैया करा रही है. सस्ते दर में अनाज देकर राज्य सरकारें बहुत वाहवाही लूट रही थीं, वह भी अब केंद्र ने अपना कर लिया है. शहरी गरीबों के लिए घर और ग्रामीणों के लिए रोज़गार में भारी निवेश.

वोट गरम है, चोट करो
बजट २००९-२०१० पर एक सरसरी निगाह डालें तो पता चल जाएगा कि यह बजट अर्थव्यवस्था को वहां ले जाता है जहाँ सुनते आये थे कि भारत बसता है. पिछले चुनाव में भारत ने यूपीए को गले लगाया था क्योंकि सरकार ने ग्रामीण रोज़गार योजना, किसानों की ऋण माफ़ी, ग्रामीण सड़क और विद्युतीकरण में पैसे लगाए थे जिस से गाँवों में ना सिर्फ विकास हुआ बल्कि ग्रामीणों को रोज़गार भी मिला. इस बार उन सब योजनाओं में उम्मीद से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. नेहरु ग्रामीण रोज़गार योजना में ३९,१०० करोड़, यानी १४४ फीसदी ज्यादा, लगेगा. कृषि ऋण योजनाओं में ३,२५,००० करोड़ जायेंगे, जो पुरे बजट का लगभग एक तिहाई है. किसानों के लिए ब्याज दर ७ प्रतिशत ही रहेगा और जो किसान वक़्त पर भुगतान करते हैं उन्हें सिर्फ ६ प्रतिशत ब्याज लगेगा. सिंचाई योजनाओं के लिए भी अतिरिक्त १,००० करोड़ दिया गया है वहीँ ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए ७,००० करोड़ का प्रावधान है. ग्रामीण सडकों के लिए १२,००० करोड़ मिला दें तो भारत निर्माण में पिछली बार के मुकाबले लगभग डेढ़ गुना ज्यादा पैसा लगाया जा रहा है. इंदिरा आवास योजना में खर्च ६३ प्रतिशत बढोतरी के साथ ८,८०० करोड़ का प्रावधान है वहीँ नेशनल हाऊसिंग बोर्ड को २,००० करोड़ दिए गए हैं ग्रामीण योजनाओं के लिए. इस के अलावा राष्ट्रिय महिला कोष के ५०० करोड़ और आदर्श ग्राम योजना के मद का फायदा भी गाँवों को मिलेगा.

यह आंकड़े जहाँ देश की अर्थव्यवस्था को आधारभूत मजबूती देंगे, वहीँ कांग्रेस के नए और उभरते वोट बैंक को सुदृढ़ करेंगे. विकास की लौ से दूर अँधेरे गाँव, अल्पसंख्यक वर्ग, महिलायें और युवा वर्ग कांग्रेस के चार स्तम्भ बने हैं और यह बजट उन्हीं को समर्पित है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को पिछली बार के १,००० करोड़ के मुकाबले इस बार १,७४० करोड़ रुपये दिए गए हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दो और कैम्पस मुर्शिदाबाद और मल्लापुरम में खोले जायेंगे. यह दोनों मुस्लिम-बहुल जिले वामपंथ के दो किलों में स्थित हैं. एक बंगाल में और दूसरा केरल में. यह लेफ्ट को बचे खुचे मुस्लिम समर्थन से महरूम करने का इरादा दर्शाता है. यह बजट वामपंथियों के सपोर्ट बेस पर चोट करता है. युवा वर्ग को लुभाने के लिए एजूकेशन लोन के ब्याज पर सौ फीसदी सब्सिडी और कई और नए आईआईटी खोलने की घोषणा.

सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं
कारपोरेट वर्ल्ड निराश है कि सरकारी कंपनियों में डिसइनवेस्टमेंट या उनके निजीकरण की कोई बात नहीं की गई. पर वह बंगाल चुनावों में खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता. लेफ्ट फिर से गुलामी का हौव्वा खड़ा करता और मतदाताओं की सहानुभूति लूटता. प्रणब दादा ने सोते शैतान को नहीं जगाना ही बेहतर समझा. यह ठंडा बजट है. गरमा-गरम बहस तो होगी पर ना ही बीजेपी ना ही लेफ्ट इस पर कुछ ठोस बोल पायेंगे. और क्षेत्रीय पार्टियां अब तैयार रहे सिकुड़ने के लिए, क्योंकि कांग्रेस को उनकी ज़मीन पर जगह चाहिए. वोट गरम हो तो चोट अभी चाहिए, सेंसेक्स चढ़े या लुढ़के, पार्टी का चढ़ता ग्राफ अगर फिसला तो नक्षत्र गड़बड़ा जायेंगे. आज से पूर्व आषाढ़ नक्षत्र शुरू है. सावन श्रवण का अपभ्रंश है, श्रावण श्रवण या सुनने का संबोधक है. देश की धड़कन पर कान रखिये, राजनीति के नब्ज़ पर हाथ. शेयर बाज़ार में बिकवाली कोई जंतर नहीं अगर आपके पास वोट शेयर का मंतर नहीं. सेक्स अपील से काम चलता तो मल्लिका शेरावत बॉलीवुड में टॉप पर होती. सेंसेक्स अपील काम करता तो राकेश झुनझुनवाला वित्त मंत्री होते. यहाँ वोटर अपील चलता है, इस लिए सेंस देखिये, सेंसेक्स नहीं.

एंटी-क्लाइमेक्स?

बजट आ गया. अगर यह एंटी-क्लाइमेक्स था तो दोष प्रणब मुख़र्जी को मत दीजिये. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बजट के बाद अपनी प्रतिक्रया में कहा यह बजट भारत और इंडिया के बीच की दूरी को कम करने के लिए उठाया गया कदम है. आपके लिए घरेलु बजट का बैलेंस बिगाड़ने वाली महंगाई सबसे बड़ा आर्थिक मुद्दा रहा हो पर सरकार के लिए बैलेंस बजट का मतलब है देश के आर्थिक हितों और अपने पार्टी की राजनितिक हितों के बीच बैलेंस बनाना. और अगर इस तराजू पर प्रणब मुख़र्जी के २००९-२०१० बजट को तौलें तो यह बजट कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी पार्टियों पर भारी पड़ेगा.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों द्वि-दलीय व्यवस्था की ओर जाना चाहते हैं और छोटे दलों को पंख कतरना चाहते हैं. वह दल जो एक राज्य की राजनीति करते हैं पर केंद्र में सत्ता की हिस्सेदारी चाहते हैं क्योंकि छोटी पार्टियों के समर्थन के बिना सरकार बनाना मुश्किल हो गया है. इन पार्टियों का वोट बैंक मुख्यतः ग्रामीण है और उस पर कांग्रेस ने धावा बोल दिया है. राजनीतिक पार्टियों को उद्योगपति चंदा देते हैं पर यह सब पिछले दरवाज़े से होता आया है. इस बजट में पहली बार इस लेने-देने को सामने लाने का प्रयास किया गया है. पार्टियों को दिए गए चंदे पर कोई टैक्स नहीं लगेगा. इसका फायदा कांग्रेस और बीजेपी को मिलेगा, और छोटी पार्टियों को नुक्सान होगा.

Friday, July 03, 2009

जल बिन मछली, रेल बिन लालू

लालू की ग़ज़ल

तू किसी रेल सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
--- दुष्यंत कुमार

Complete Ghazal

खबर आई है लालू ने मछली खाना फिर से शुरू कर दिया है. एक नजूमी ने उनसे कहा था कि मांस-मछली त्याग दें तो चारा घोटाले की काली घटायें छंट जायेंगीं. चारा का बेचारा देखता रह गया और रेल भी छूट गई. मछली की प्रेमी ममता जब रेल ले भागी तो लालू ने मछली को फिर से चारा डालना शुरू कर दिया है.

रेल अधिकारियों ने अपने औफिशिअल वेबसाइट पर ममता का जो भाषण लगाया है उसमें तुरंतो को दुरंतो लिखा गया है. तुरंतो तो तुंरत का बंगाली उच्चारण है पर दुरंतो एक दुर्लभ शब्द है बांगला में. इसका मतलब होता है बेलगाम. लालू जी हामी भरेंगे.

परे हो जा लालू रे, साड्डी रेल गड्डी आई

लालू के लोक लुभावन रेल के खेल में ममता ने उन्हें मात दे दी है. रेलवे में प्रशासनिक सुधार, आधारभूत ढाँचे में सुधार और ये वादे और इरादे ज़मीन पर ज़रूर उतरें, इस के बारे में बिना कुछ बोले नए रेल मंत्री ने अपनी रेल दौड़ा दी. इस दर्जा सादगी से उन्होंने सूटकेस त्याग कर झोला लेकर संसद पहुँची, कि लालू भी शर्मा गए होंगे. फिर उन्होंने लालू की दुखती रगों को छेड़ा. वह भी इज्ज़त के साथ. गरीब रथ के जवाब में इज्ज़त योजना जिसमें २५ रुपये में १०० किमी तक की दूरी तय कर सकेंगे गरीब लोग. इस के साथ ही घोषणाओं की झड़ी सी लग गई, वादों की बरसात में कई राज्य भींगे और कई सूखे के सूखे रह गए. पुराने, जर्जर पटरियों पर नए मंत्रियों की नयी गाडियां पुरानी बात है, ममता के ट्रेन की दिशा पर दस नज़र.

१. लालू, नीतिश, पासवान जैसे कई मंत्रियों ने कई सालों तक रेल मंत्रालय को पटना की दिशा में दौड़ाया था. अब ममता ने रेल मुख्यालय कोलकाता शिफ्ट कर दिया है.
२. इस बार मालपुआ बंगाल और महाराष्ट्र को मिला जहाँ जल्द ही विधान सभा चुनाव आने वाले हैं. ५७ नई गाड़ियों में १४ अकेले बंगाल को गई.
३. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रभुत्व वापस लाने में भिडे राहुल गाँधी को ममता की तरफ से कुछ बल मिला है. कई वर्षों बाद यूपी को न सिर्फ नई गाडियां मिली हैं बल्कि कई प्रोजेक्ट्स भी मिलेंगे.
४. सुपर-फास्ट गाड़ियों को नया नाम मिला है, तुरंतो. ममता के उच्चारण को कई लोगों ने दुरोंतो सुना. तुरोंतो असल में तुंरत है. ये गाडियां राजधानी से ज्यादा तेज़ होंगी, पर यह दावे हैं, दावों का क्या.
५. एक दर्ज़न नॉन-स्टाप लम्बी दूरी की ट्रेनों की घोषणा भी हो गई है. घबराएं नहीं, ये ट्रेनें रास्ते में कुछ स्टेशनों पर रुकेंगी पर सवारी नहीं उठाएंगी. इन में से चार बंगाल को मिले हैं.
६. ममता बनर्जी ने लालू के समय घोषित योजनाओं पर श्वेत पत्र जारी करने की बात कर लालू को छेड़ दिया. श्वेत पत्र में किसी काले कारनामे की चर्चा नहीं होगी, बस कागज़ काले किये जायेंगे.
७. लम्बी दूरी की गाड़ियों में डॉक्टर होंगे. गंदे बेड रोल और कोकरोच-युक्त खाने से ट्रेन में बीमार हुए लोगों का ट्रेन में ही इलाज हो तो अच्छा है.
८. महानगरों में महिलाओं के लिए स्पेशल ट्रेन की घोषणा हुई है. पर वहाँ भी अगर लफंगे उन्हें परेशां करें तो महिला कमांडो की व्यवस्था है. युवाओं के लिए स्पेशल ट्रेन भी चलेगी, इसमें किराया कम होगा. सिर्फ बैठने को जगह मिलेगी.
९. कई बड़े स्टेशनों पर ऑटोमेटिक टिकेट-वेंडिंग मशीन लगेंगे. लोग मुक्के मार मार इसे खराब ना करें.
१०.लालू जी के भाषणों में शीरीं जबान के कई लफ्ज़ दुर्घटना के शिकार हो जाया करते थे. इस बार भी एक गंभीर दुर्घटना घटी. एक लंगडा मगर चालू शेर का ममता बनर्जी से सीधा भिडंत हुआ. वैसे ही फटेहाल उस शेर का क्या हुआ, मुलाहिजा फरमाइए:
रोशनी चाँद से होता है, सितारों से नहीं;
मुहब्बत कामयाबी से होता है, जूनून से नहीं.

जैसा सोचा था वैसा ही पाया

ममता बनर्जी कभी निराश नहीं करती हैं. राजनीति में हो या रेल में आप ममता के कदमों की भविष्यवाणी कर सकते हैं. उनका रेल बजट देश ने जैसा सोचा था वैसा ही पाया. रेल या माल भाड़े में कोई बढोतरी नहीं, ढेर सारी नई ट्रेनें, बंगाल का ख़ास ख्याल आदि आदि. रेल अकेला ऐसा मंत्रालय है जिसका आम बजट से अलग बजट होता है और इसी लिए रेल मंत्रालय पाने के लिए इतनी मारामारी होती है. पूरा देश अपना पर अपना राज्य सबसे पहले की नीति सभी मंत्री अपनाते हैं, और ममता ने पुरे देश पर दृष्टि की जिम्मेदारी पिछले कई मंत्रियों से बेहतर निभाया है. कुल मिलाकर यह लोक-लुलोभी रेल बजट अच्छा है, देश के लिए, भारतीय रेल के लिए. ममता ने लालू के राज की पोल खोली पर लालू की तरह लोक-लुभावन योजनायें लाने से नहीं चूकीं. पर कुछ आधारभूत मुद्दे हैं जो ममता बनर्जी भी नज़रंदाज़ कर गईं.

रेलवे की आधारभूत संरचना पर जोर और बढ़ गया है पर उसके संवर्धन के लिए कोई जोर नहीं लगाना चाहता, क्योंकि उस से कोई राजनितिक स्वार्थ पूरा नहीं होता हर बजट में नई ट्रेनों का एलान हो जाता है और इस बार भी 57 नई ट्रेनें चलाने की घोषणा कर दी गई पर ये सब ट्रेनें उन्हीं पटरियों पर दौडेंगी जिन अभी ही काफी बोझ है. पुलें जर्जर हैं और पटरियों की हालत खस्ता है, जो न सिर्फ गाड़ियों की रफ़्तार पर रोक लगा रही हैं बल्कि दुर्घटनाओं का कारण बन रही हैं. इस रेल बजट में फिर नेटवर्क ने नवीनीकरण के बारे में कुछ नहीं है.

एक महत्वपूर्ण बात ममता बनर्जी ने कही इज्ज़त के बारे में. और उन्होंने गरीब लोगों को पच्चीस रुपये में १०० किमी की दूरी तक महीने भर यात्रा की सुविधा दी. पर आजादी के बासठ साल बाद भी सामान्य श्रेणी के डिब्बों में लोग लकड़ी के पट्टों पर बैठ कर सफ़र करते हैं. डिब्बा चाहे आरक्षित हो या अनारक्षित, बैठने के लिए मुलायम सीट का ना होना सामान्य श्रेणी में बैठने वालों को उनकी औकात दिखाने जैसा है. छूट ना दो, सोने की जगह ना दो पर रेक्सीन का ही सही सीट कवर होना अनिवार्य होना चाहिए. लालू के बाद ममता ने भी ग्रीन टॉयलेट की घोषणा की है, देखना है यह कब तक हो पाता है. भारत के रेलवे स्टेशनों पर देर से आ रही गाड़ियों का इंतज़ार लोग अपनी नाक पर रुमाल रख कर करते हैं. सारे स्टेशन मानव मॉल से पटे पड़े रहते हैं. यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, और आशा है ममता बनर्जी का एलान कागजों से पटरियों तक जाएगा.

बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा

बंगाल में नगर निगम चुनाव में सत्ताधारी वामपंथी गठबंधन का सूपड़ा साफ़ हो गया है और कांग्रेस-तृणमूल गठजोड़ विजयी बन कर उभरी है. इस के ठीक पहले लोक सभा चुनाव में भी कुल मिला कर ऎसी ही स्थिति थी. तीन दशकों से शासन में रहे कम्युनिस्ट पार्टियों की ऎसी दुर्दशा कभी नहीं हुई. और यह लक्षण रहे तो आगामी विधान सभा चुनावों में वामपंथी बंगाल में सत्ता से बाहर हो जायेंगे. ऐसे में कई विश्लेषक और राजनीति के पंडित यह मान रहे हैं की बंगाल में जहाँ मार्क्स और लेनिन दीवारों में पुतते थे अब सड़क पर आ गए हैं. बत्तीस साल बाद, बंगाल वामपंथ से ऊब गया है. इस बात पर गौर करने की ज़रुरत है, क्यूंकि बंगाल वामपंथ से नहीं ऊबा, हो सकता है वामपंथी वामपंथ से हट गए हों.

अगर लड़ाई देखें तो वही है जो सत्तर के दशक में थी. पूंजीवादी पार्टियां और उनके सत्ता-लोलुप कारिंदे एक तरफ और एक जनांदोलन एक तरफ. उसस समयर मुद्दे भी वही थे. सरकार का आम जनता से सरोकार का कम हो जाना और सत्ता से निकट लोगों का विकास के मालपुए को भकोस जाना, जब की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के पैसे के असली हकदारों तक धेले तक का नहीं पहुंचना. फर्क इतना है की तब वामपंथी सरकार में नहीं थे, बल्कि .जन आन्दोलन का हिस्सा थे. भूमि वितरण की लड़ाई लड़ रहे थे, सामंतवाद की खिलाफ डंका पीट रहे थे. हँसिया, हथौडा हाथ लिए लाल रंग से गाँव-दर-गाँव पोत रहे थे.
ममता बनर्जी भले मार्क्स और लेनिन को उधृत नहीं करती हो पर विचारधारा उनकी धुर वामपंथी है जब की वामपंथ के नाम पर राज-पाट संभाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोग सामंतवाद का चलता फिरता नमूना बन गए हैं. उनके कारिंदे कस्बों पर ऐसे राज करते हों जैसे वह पुलिस और प्रशासन के मुखिया हों. पुलिस काडर के लोगों की पिछलग्गू बनी रहती है. ग़रीबों और मजलूमों की आवाज़ बन कर तीन दशक सत्ता में रहे पर फिर उसी आवाज़ को दबाने के लिए काडर का उपयोग हुआ. आज औद्योगीकरण और अत्याचार के खिलाफ ममता आवाज़ उठाती हैं और माओवादियों की माने तो उन्हें ममता बनर्जी का साथ मिला है. लगे हाथों एक माओवादी कमांडर ने यह खुलासा भी कर दिया की लोक सभा चुनाव में उन्होंने ममता की मदद की थी.

सच यह है की बंगाल ने वामपंथ से मुंह नहीं मोडा वह अब भी वामपंथ के साथ खडा है. और चूँकि वामपंथ की विचारधारा के साथ ममता बनर्जी खडी हैं, इसलिए जनता अब उनकी तरफ हो गई है. बंगाल के वामपंथी नाम के थे, काम के नहीं. कम्युनिस्ट कारिंदों का काम तो राज करना था. उनका नियंत्रण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज से लेकर केबल टीवी तक पर था. आम आदमी हर छोटे बड़े काम के लिए पार्टी के लोकल मेंबर से हामी लेनी होती थी. पर हर नियंत्रण वादी ताक़त के साथ यही होता है, जब नियंत्रित अनियंत्रित हो जाते हैं तो तख्ता पलट जाता है और ताज उलट.

हथियार इन्हें चलाते हैं

लालगढ़ और आस पास के तथाकथित 'मुक्त' इलाकों को माओवादियों से मुक्त करवा लिया गया है. केंद्र और राज सरकारें राहत की सांस ले रही हैं. खून बहा पर उतना नहीं जितना डर था. पुलिस अपना पीठ थपथपा रही है और ऎसी उपलब्धि पर गर्व होना स्वाभाविक भी है. पर सब शायद जल्दी में हैं. गौरतलब है कि गाँव दर गाँव जब सुरक्षा बल पहुंचे तो वहां सिर्फ बूढे और महिलायें बचे थे, जो माओवादियों पर ज़ुल्म का आरोप लगा रहे थे और सुरक्षाबलों का धन्यवाद कर रहे थे. यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने आदिवासी ऐसे थे जिनके हाथों में कल तक तीर और गंडासे थे और होठों पर माओवाद का नारा. और लालगढ़, रामगढ़ या पीरकाटा के सैकडों युवकों का क्या हुआ. आसमान या ज़मीन तो उन्हें लील नहीं गया, बल्कि वह माओवादियों के गुरिल्ला तकनीक में माहिर हो गए हैं.

गुरिल्ला युध्ध में पीछे हटना भी एक कला है वापस हमले के लिए. जब गुरिल्ला लड़ाके संख्या बल में कम होते हैं तो दुह्साहस और दंभ किनारे कर रिट्रीट कर जाते हैं. चे गुएवारा इस तकनीक को मांजा और तराशा, जिसका उपयोग कर विएतनाम के मुट्ठी भर वामपंथियों ने अमेरिका को पछाड़ा. दक्षिण अमेरिका से लेकर दक्षिण एशिया तक हिंसावादी वामपंथी इस का उपयोग करते हैं. माओवाद के सिपाही बड़ी लड़ाई से भागते हैं और छोटी लड़ाईयों में यकीन रखते हैं.

अब सुरक्षा बलों को ऐसी छोटी लड़ाईयों के लिए तैयार रहना पड़ेगा और राज्य और केंद्र की सरकारों को एक रास्ता निकालने में जिसमें लालगढ़ जैसे पिछडे इलाकों में प्रशासन और विकास का कोई गैर-सरकारी विकल्प ना तैयार हो सके. बातचीत का द्वार खुला रखते हुए, नाक्सालवाद से प्रभावित सभी सरकारों और केंद्र को एक समन्वय समिति तत्काल बनाना चाहिए, जो भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक बने रेड कॉरिडोर में माओवाद के खात्मे के लिए युद्घ-स्तर पर काम करे. अब एक डन्दकारन्य नहीं रहा, लाल गलियारा फैलता जा रहा है. झारखण्ड में कुछ माओवादी नेताओं ने मुख्य-धारा में आने की कोशिश की है. सरकार अपने सूचना तंत्र को मजबूत कर ऐसे सभी लोगों को मनाये जो हिंसा की राह छोड़ना चाहते हैं और बदलाव के लिए वोट का रास्ता अपनाना चाहते हैं.

भारतीय माओवादियों को भारत के दुश्मन नचा रहे हैं. लिट्टे ने इन्हें ट्रेनिंग दी, उत्तरपूर्व के कई संगठन खुले आम इनसे हथियार देते लेते हैं. हाल में लश्कर के पकडे गए बड़े एजेंट ने खुलासा किया कि लश्कर-इ-तय्यबा भी इनको ट्रेनिंग दे रहा है. हथियार से चलने वाले आन्दोलन स्वयं हथियार बन जाते हैं या फिर हथियार इन्हें चलाते हैं. इनका किसी पंथ से सरोकार नहीं रहता.

Friday, June 26, 2009

माई का लाल जयकिशन मर गया

माइकल जैक्सन नहीं रहे. वह सितारा जो फर्श से अर्श तक गया था, और वापस फर्श पर पडा था हमेशा के लिए खो गया. पर भारत में इतना बावेला क्यों? शास्त्रीय संगीत पर सर हिलता है, पश्चिमी संगीत पर पैर. हर इंसान का एक सर है, दो पैर हैं. अधमी कह लो, ओछा कह लो पर लोकतंत्र में संख्या बल पर दुनिया के दिलों पर राज करने का मेंडेट माइकल जैक्सन को मिला था. ये हंगामा इसलिए बरपा है कि माइकल जैक्सन के चाहने वाले बहुत ज्यादा हैं, उनके लिए पागलपन दुनिया के कोने कोने में है और इस सच से कोई इनकार नहीं कि जैक्सन का नाम उन चंद सितारों में है, जिसे भाषा, रंग, देश और नस्ल की सीमाओं को लाँघने वाली मुहब्बत मिली. पश्चिमी मनोरंजन फलक पर उभरा वह सबसे बड़ा सितारा है जिस की रौशनी ने पूरी दुनिया की रातों पर राज किया और दिनों पर दमका.

स्वर्गीय एल्विस प्रेस्ले पश्चिम में उनसे ज़्यादा प्रभाव रखते हैं, पर पूरब तक धौंस तो माइकल जैक्सन की ही रही है. बीटल्स के चाहने वाले यहाँ भी बहुत हैं और वहां भी बहुत, पर लोकप्रियता के पैमाने पर माइकल जैक्सन को मात नहीं दे सकते. गाँव-गाँव की मिटटी की दीवारों पर ठुके थे माइकल जैक्सन के पोस्टर. अस्सी और नब्बे के दशक में मुफस्सिल कस्बों में ज़मीन पर फ़िल्मी और धार्मिक पोस्टरों के बीच एक आदमी टेढा पडा रहता था और बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों को मालूम था, वह कौन है. भारत में यह चमकीले पोस्टर अब भी छोटे शहरों के सलून और चाय की गुमटियों की शोभा बढाती हैं. गाँव के किशोर दो पोस्टर ज़रूर पहचानते हैं, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर और माइकल जैक्सन. पहले वाले उनकी पसंद हैं जो शरीर को गठीला बनाने के लिए दंड पेलते हैं, और दूसरे वाले उनको जो शरीर को लचीला बनाने के लिए मूनवॉक करते हैं. अपनी अपनी पसंद, पर टेप रिकॉर्डर पर से आवाज़ आती थी थ्रिलर के बूम बूम की और चाहे एक शब्द पल्ले ना पड़ता हो, पर लब गुनगुनाते थे और पाँव थिरकते थे. एक जादू सा था, जो शब्दों को निरर्थक कर शोर में अर्थ भर देता था. एक कहानी जो सात समंदर पार शुरू हुई और सब को डुबो गयी थी अपने रस में.

माइकल १९९६ में भारत आये थे. मुंबई में उनका स्वागत और सत्कार बाल ठाकरे तक ने किया था. राज ठाकरे जो लोगों को मुंबई में हिंदी बोलने पर पीटते हैं वह एक अमेरिकन एक्सेंट में अंग्रेजी बोलने वाले के दर्शन के लिए सहार एअरपोर्ट पर क्यू में खड़े थे. और फिर भारत ने उस पर ऐसे प्यार उडेला था जैसे वह इसी मिटटी का लाल हो, माइकल जैक्सन नहीं माई का लाल जयकिशन हो. जटिल वस्त्र धारी और जटिलतर व्यक्तित्व के मालिक माइकल ने कुर्ता धारण किया था और हमारे सादे वस्त्र की बड़ी प्रशंसा की थी. पर एक अश्वेत बालक का मनोरंजन की दुनिया के शिखर पर पहुंचना प्रेरणा देता था ऐसे हर कौम को जो अभी भी श्वेत लोगों की प्रभुता के तले कुचले पड़े थे. अपने देश में देख लीजिये, गिने चुने साँवले लोग ही हिन्दी फिल्म या टीवी की दमक में टिक पाए हैं. दक्षिण ने इस रंग भेद की दीवार को भले छेदा हो पर मुंबई की फ्लिम इंडस्ट्री में गोरे छोरे ही छाये हैं. उसी दक्षिण में प्रभु देवा नाम के एक युवक ने माइकल को द्रोणाचार्य मान कर अपने नृत्य को ऐसे तराशा कि फिल्मस्टार बन गए. सुल्तानपुर का गोरख भले प्रभु देवा नहीं बन पाया हो पर अपने मोहल्ले में माइकल जैक्सन कि ख्याति पा गया था. ऐसे अनेक अनाम, अनजान किशोर मुंबई से लेकर मिदनापुर तक सड़क पर ऐसे चलते थे जैसे उनके पाँव तले ज़मीन सरक रही हो.

तब भी जब उनका आदर्श सफलता की फिसलन भारी ज़मीन पर फिसल रहा था. ब्लैक ऑर व्हाइट गाने वाला वह शख्स खुद ब्लैक से व्हाइट हो रहा था. अगाध संपत्ति और अपार लोकप्रियता सर पर ऐसे चढी की मानसिक विक्षिप्तता के लक्षण उभरने लगे. प्लास्टिक सर्जरी ने चेहरा बिगाड़ दिया और यौन शोषण के आरोपों ने ख्याति खराब कर दी. पर प्रशंसक अब भी उनकी तरह कपडे पहने, नृत्य करते उनके प्राइवेट इस्टेट नेवरलैंड और अदालत के बीच उनकी एक झलक पाने को बेचैन रहते. आंसू बहाते और अपने व्यक्तिगत भगवान् के दुर्दिन के ख़त्म होने का इंतज़ार करते. हाल में खबर आई कि इंतज़ार की घडियां ख़त्म होने वाली थी. माइकल जैक्सन एक धमाकेदार वापसी करने वाले थे. लन्दन से एक वर्ल्ड टूर का सिलसिला शुरू होने वाला था. पर गुरूवार को इस गुरु की घडियां ख़त्म हो गईं. जादूगर अपनी अंतिम आइटम के पहले ही छू-मंतर हो गया. एक दिल के दौरे को करोडों दिलों ने महसूस किया. उनके प्रशंसक उसकी दवा अब थ्रिलर के संगीत में ढूँढेंगे, जिसमें एक बिल्ली जैसी आवाज़ में कोई चीखेगा तो पैर ज़मीन पर फिसलने लगेंगे और शरीर मानों चाँद पर चल रहा होगा, एक सितारे को अपनी आँख में बसाए.

Saturday, May 30, 2009

ज्वलनशील हैं हम

रविदासी संतों पर वियेना में हुए हमले से पंजाब में जैसी आग भड़की, उसने देश सहम सा गया. वह आग बुझ गई है, पर उसने हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया कि कितने कमज़र्फ़ हैं हम, इतने ज्वलनशील कि एक चिंगारी, एक पलीता दरकार होती है धू-धू जल उठने के लिए. हमारी शांति की सतह के नीचे न जाने कितने जलजले अंगडाइयां ले रहे हैं. कब वह ज्वालामुखी बनकर फट पड़ें, मालूम नहीं. जिन से हम निजात पा चुके होने का दंभ भरते हैं, वो विसंगतियां हमारे साथ न सिर्फ पल रही होती हैं बल्कि हमारी गफलत उन्हें सींच कर पुष्ट बनाते हैं. सिख पंथ जात-पात को वैधता नहीं देता. पर ५०० साल हो गए, सिख अभी भी जात के नाम पर बँटे हुए हैं. ग्रन्थ साहिब एक हैं पर गुरुद्वारे अलग-अलग. हिन्दू धर्म की जिन कुरीतियों के खिलाफ सिख धर्मगुरुओं ने हल्ला बोला था, वह कुरीतियाँ अब भी लोगों को बाँट रही हैं.

क्या है जाति में जो हमें छोड़कर जाती ही नहीं. एक चिन्तक ने मुझसे कहा था कुछ तो अच्छाइयां रही होंगी, वर्ना आधारहीन सिद्धांतों की तरह कब की भसक चुकी होती. उनका कहना था जाति व्यवस्था में व्यवस्था थी और हर समाज व्यवस्था को अव्यवस्था पर तरजीह देता है. मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा पर इतना ज़रूर कहा कि इस कुव्यवस्था में गंभीर बुराइयां हैं, जो यह हमारा दामन नहीं छोड़ रही. अच्छाइयां तो नज़र हटाओ और फुर्र हो जाती हैं. बुरी आदत कोई भी हो बा-आसानी नहीं जाती. अच्छाई को ज़िंदा रख पाना कठिन है, बुराई तो अमर बेल है, आपके सिरहाने उग आई तो आपको फाँस लगा देगी.

यह सवाल ज़िंदा है कि क्यूँ जातिवाद हमारे लोकतंत्र को अपनाने के बाद भी हमारे बीच न सिर्फ जिंदा है पर हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मुहावरे तय करता है, हमारे चुनावी समीकरणों का पर्यायवाची बन बैठा है? इस्लाम और क्रिश्चियनिटी बहुत पहले भारत में आये और उनके समता-मूलक सिद्धांतों से प्रभावित हो कईयों ने अपना धर्म त्याग इन धर्मों को अपनाया. इन में से एक बड़ा वर्ग उनका था जो पारंपरिक हिन्दू धर्म कि विषमताओं के भुक्तभोगी थे और सम्मान और समता की आस में मुसलमान या ईसाई बने. पर जातिवाद का चंगुल वहाँ भी बरकरार है.

बिहार में नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग का एक बड़ा हिस्सा है मुसलमानों में पिछडी जातियों को लामबंद करना. इनको पसमांदा मुस्लिम समाज का नाम दिया गया है, ऐसा समाज जिसे शेखों या सैयेदों ने कभी बराबरी का अहसास नहीं दिलाया, भले उनको अपना धर्म भाई माना हो. ठीक वैसे ही जैसे पंजाब में जाट सिखों ने दलित सिखों को सिख तो माना पर अपने बराबर का नहीं.

पाकिस्तान तो इस्लाम के नाम पर ही बना था पर वहां भी राजपूत, जाट या गूजर अपनी जाति-गत पहचान नहीं छोड़ना चाहते. अब तो वहां जाति-सूचक सरनेम रखने का फैशन हो गया है. लाहौर और पिंडी में गाड़ियों के पीछे राजपूत या जाट ऐसे लिखा मिलता है जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश में. क्रिकेटर नावेदउल-हसन राणा को राणा लिखने की ज़रुरत क्यों आन पडी? ऐसे ही पूरे उपमहाद्वीप में ईसाईयों के बीच जाति या जनजाति की पहचान और उसका भेद बना हुआ है.
जाति-आधारित आरक्षण के विरोधी अक्सर कहते हैं कि ऎसी व्यवस्था जातिवाद को और मजबूत करेगी. इस बात को अगर मान भी लें तो क्या आरक्षण नहीं रहने पर यह व्यवस्था ख़त्म हो जाती? उत्तर है नहीं. जाति कोई स्वीकार या ग्रहण नहीं करता. जाति जन्म से निर्धारित होती है. यानी धर्म बदलने की आजादी है पर जाति लेकर आप पैदा होते हैं. और अगर धर्म बदल भी लिया तो जाति नहीं बदलेगी.

ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढे हैं अपने रुढिवादी व्यवस्था से. शहरों में जातिवाद इतना सशक्त नहीं रह गया क्यूंकि शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति ने कई खाईयां पाट दी हैं. आप हिंदुस्तान के किसी भी शहर में चले जाओ, दोस्ती या अब रिश्तेदारी में जाति का रोल विलुप्त या कम हो गया है. धीरे धीरे ही सही, दूरियाँ नापी जा रही हैं पर समाज को सतर्क भी रहना पड़ेगा गाहे-बगाहे टपक पड़ने वाली चिंगारियों से. क्यूंकि ज्वलनशील हैं हम. अत्यंत ज्वलनशील.

Friday, May 29, 2009

Stalin in Chennai

अड़गिरि के शपथग्रहण के २४ घंटे में एम।के. स्टालिन ने तमिलनाडु की डोर अपने हाथ में ले ली है. अड़गिरि के तमिलनाडु में रहते जितनी बार करूणानिधि ने छोटे पुत्र स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का प्रयास किया, अड़गिरि के समर्थकों ने ऐसा बावेला मचाया कि उनकी योजनायें धरी की धरी रह गई. जैसा कि आपने यहीं पढ़ा था, मनमोहन सिंह की सरकार बनने के समय करूणानिधि के सामने एक राजनैतिक चुनौती तो थी ही, उस से बड़ी चुनौती थी अपने परिवार के अन्दर ही एक बड़े संघर्ष को विराम देना. आपको हमने यह भी बताया था कि यह संघर्ष अभी ख़त्म नहीं होगा. और यह संघर्ष अगर द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम को ही लील जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

पर इतना तो स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में अब दयानिधि मारण की हैसियत को बट्टा लग गया है। उनको कपडा मंत्रालय ही मिला, शायद इसलिए कि उनकी औकात ईनाम भर की रह गई है. वह भी इस लिए कि वह तमिलनाडु के मीडिया मोगुल हैं और द्रमुक को गाहे-बगाहे उनकी ज़रुरत होती है. थोडा योगदान इस बाद का भी था कि दयानिधि उनके भांजे के सुपुत्र हैं. करूणानिधि ने अपने वफादार ए. राजा को टेलिकॉम और सूचना तकनीक मंत्रालय में बिठाकर यह दिखा दिया कि पार्टी में वफादारी का महत्त्व है, अगर वफादारी को अंहकार के पर ना लगें. पिछली बार मारण को पर लग गए थे और दिल्ली के आकाश में उड़ते हुए वह भूल गए थे उनके पिता के मामा के पास एक तीर है जो उनको धडाम से ज़मीन पर ला सकता है.

पिछली सरकार में उन्हें ज़मीन पर लाने के बाद, करूणानिधि ने इस बार उन्हें लगाम डाल दिया है. दिल्ली में सत्तासीन यू.पी.ए. के करता-धर्ताओं को भी यह स्पष्ट हो गया है कि गठबंधन के मामलों में वह राजा या मारण से नहीं बल्कि अड़गिरि से बात करेंगे. अड़गिरि अब दिल्ली में करूणानिधि के आँख और कान बनकर बैठेंगे, वह काम जो कभी दयानिधि के पिताश्री मुरासोली करते थे. द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम जैसी क्षेत्रीय पार्टी के की साड़ी मलाई चेन्नई में पकती है, न कि दिल्ली में. दिल्ली तो सिर्फ आइसिंग है, पूरा केक तो चेन्नई में पडा है. आइसिंग कितनी भी लज़ीज़ हो, पेट तो केक से ही भरता है. पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अड़गिरि की भूख का क्या होगा? दक्षिण तमिलनाडु में अपने समर्पित काडर को कैसे मनाएंगे अड़गिरि जब पूरा केक स्टालिन के समर्थक गपोस जायेंगे? तमिलनाडु की राजनीति पर नज़र रखियेगा, बहुत ट्विस्ट बाक़ी हैं इस कहानी में.

Sunday, May 24, 2009

पिक्चर अभी बाकी है, दोस्त.

दोस्त गम्ख्वारी में मेरी, सही फर्मावेंगे क्या,
ज़ख्म के भरने तलक नाखून न बढ़ जावेंगे क्या?
--- मिर्जा गालिब

करूणानिधि की मुश्किलें तो अभी शुरू हुई हैं. उनके परिवार में मंत्रिमंडल मिल जाने भर से शांति नहीं आ जायेंगी. उनकी दूसरी पत्नी इस बात से खुश हो जायेंगी कि अड़गिरी को कैबिनेट में जगह मिल गयी है. पर दिल्ली से निकलते संकेत बताते हैं कि तीसरी पत्नी से हुई कनिमोई को राज्य मंत्री का दर्जा ही मिलेगा. तीनों पत्नियों में सिर्फ पहली हैं जिनसे हुआ पुत्र इस सत्ता संघर्ष में भाग नहीं ले रहा. पहली पत्नी वैसे भी स्वर्गवासी हैं. दूसरी पत्नी दयालु से हुए तीन पुत्रों में से दो के बीच राज्य के भीतर ही सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा है. 

बड़े भाई अड़गिरी इस बात से खफा खफा रहते हैं कि राज्य की सत्ता में छोटे स्टालिन की बहुत चलती है. अड़गिरी दक्षिण तमिलनाडू में बहुत राजनितिक दबदबा रखते हैं, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत है और  करूणानिधि को डर रहता है कि वह पार्टी विभाजित नहीं कर दें. पर स्टालिन उनका प्रिय है और यह लगभग तय हो गया है कि वही भविष्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे. यही कारण है कि वह अड़गिरी को केंद्र में व्यस्त देखना चाहते हैं ताकि स्टालिन की पार्टी पर पकड़ मजबूत हो. मुश्किल यह है कि तीसरी पत्नी रजति नहीं चाहती कि करूणानिधि की राजनितिक धरोहर दूसरी के संतानें समेत जाएँ. इस लिए उन्होंने कविता लेखन और महिला अधिकार एक्टिविस्ट कनिमोई को राजनीति में आने को प्रेरित किया.  

अड़गिरी और स्टालिन की बहन सेल्वी की शादी उनके ममेरे भाई मुरासोली सेलवम से हुई थी. सेलवम के बड़े भाई मुरासोली मारन केंद्रीय राजनीति में करूणानिधि का प्रतिनिधित्व करते थे. मुरासोली मारन की मृत्यु के बाद दयानिधि मारन ने समझ लिया कि वह अधिकार उनका होगा. करूणानिधि और उनके बेटों को यह मंजूर नहीं था और दयानिधि को बीच में ही टेलिकॉम मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. ए. राजा ने उनसे यह पदभार लिया. फिर दोनों परिवारों में ठन गयी.  यह झगड़ा सेल्वी के लिए मुसीबत बन गयी. एक तरफ घर वाले और एक तरफ ससुरालवाले. अंततः सेल्वी के प्रयासों से ही करूणानिधि ने मारन को माफ़ किया. पर ज़ख्म के भरने तलक नाखून बढ़ चुके थे. प्रेम का धागा जुड़ा पर गांठें रह गईं.  

मारन और उनके भाई सन टीवी समुदाय के मालिक हैं जिनका केबल नेटवर्क पर आधिपत्य है और वे करीब दर्ज़न भर चैनलों के मालिक भी हैं. दुराव के समय उन्होंने करूणानिधि परिवार पर हमला बोल दिया. तब टेलिकॉम स्पेक्ट्रम ऑक्शन पर बेईमानी के आरोप लगे और ए. राजा पर कीचड उछला. मारन के टीवी नेटवर्क ने यह लाइन पकडी कि राजा ने अप्रत्यक्ष रूप से कनिमोई को फायदा पहुंचाया है. तब से कनिमोई और मारन भाईओं के बीच एक खाई बन गयी. किसी ने कहा है दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों.

आज अगर दयालु-पुत्र अड़गिरी और दयानिधि मारन को कैबिनेट में जगह मिलती है तो कनिमोई और उनकी अम्मा बिलकुल पसंद नहीं करेंगी. करूणानिधि कनिमोई की माँ के साथ ही रहते हैं. चूँकि कानून इन्हें दो पत्नियां रखने का अधिकार नहीं देता, करूणानिधि आज भी रजति को आधिकारिक रूप से कनिमोई की अम्मा ही कहते हैं. पत्नी कहेंगे तो फँस जायेंगे.  उन्होंने जब दयालु से विवाह रचाया था तब उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया था. दयालु से उन्होंने अपने माँ बाप के कहने पर विवाह किया. और फिर रजति से प्यार और तीसरी शादी. रजति से वह अब भी प्यार करते हैं और कनिमोई उनकी आँखों का तारा है. पर कनिमोई के लिए वह अड़गिरी या स्टालिन को नाखुश नहीं कर सकते क्यूंकि उनकी उम्र ढल रही है और यह दोनों भाई पार्टी लेकर उड़ सकते हैं या उसका विभाजन कर सकते हैं. 

यही मुश्किल है दक्षिण के इस कद्दावर नेता के लिए. जिस पार्टी को उन्होंने अपने खून पसीने से  सींच कर बनाया उसे कभी जनता की पार्टी नहीं होने दिया. पार्टी परिवार की संपत्ति रही. और उनका परिवार छोटा परिवार नहीं है, शायद इसीलिए सुखी परिवार नहीं है. मनमोहन सिंह सरकार में कौन क्या बनेगा, इसका समाधान तो कल हो जाएगा पर उगते सूरज के निशाँ वाली उनकी पार्टी का सूरज तमिलनाडू के आकाश पर कब तक चमकेगा, इस पर संदेह उनको भी है.  राजनीति में आने से पहले करूणानिधि ड्रामों और फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखा करते थे. आज जो स्क्रिप्ट उनके परिवार और पार्टी में लिखी जा रही है, इसका अंदाजा शायद उन्हें भी नहीं था. यह पिक्चर अभी बाकी है, दोस्त. 

छः से छक्कों की दरकार, एक-दो रन से जीत नहीं मिलेगी


प्रणब मुख़र्जी
कहने की ज़रुरत नहीं. दुनिया के हर वित्त मंत्री के सामने सब से बड़ी चुनौती है आर्थिक मंदी के वबाल से अर्थव्यवस्था को उबारना. यह चुनौती दुगुनी हो जाती है जब आपको दो महीने में बजट भी पेश करना हो. प्रणब दा के सामने अर्थव्यवस्था की दिशा तय करने के लिए बहुत समय नहीं है. कुछ सेक्टर्स जो अभी तक विदेशी निवेश के लिए नहीं खोले गए थे, उनके लिए रास्ता साफ़ करना. धीमे होते विकास दर को फिर उकसाना. कल्याणकारी योजनाओं के लिए वोट मिला है, सो उसको तो जारी रखना पडेगा पर उसके लिए पैसे का इन्तेजाम करना है तो नए दरवाज़े तलाशने होंगे, खिड़कियाँ सिर्फ झाँकने के काम आती हैं. दरवाज़े खोलने का काम शुरू होता है अब.

शरदचन्द्र गोविंदराव पवार
विश्व भर में फैली मंदी से अगर हम ध्वस्त नहीं हुए तो उसका एक बड़ा कारण था कृषि में संतोषजनक प्रदर्शन. देश में अनाज का भंडार लगा है पर किसान अभी त्रस्त हैं.  एक किसान की आत्महत्या भी एक त्रासदी है और जब पंजाब जैसे संपन्न राज्य में किसान सल्फास खाने लगें तो चिंता स्वाभाविक है. पवार साहेब के अपने राज्य महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या पिछले कार्यकाल में बड़ा मुद्दा था. एक दो राज्यों को छोड़ दें तो हमारी कृषि में आधुनिक तकनीक का उपयोग नगण्य सा है. कृषकों को सम्मान, उचित दाम और कृषि में तकनीक को बढावा देना समय की मांग है. इस के लिए पवार साहेब को महाराष्ट्र के मांग से ऊपर उठना होगा.

अरक्पराम्बिल कुरियन एंटनी
भारत अपनी सैन्य क्षमता का चाहे जितना डंका पीट ले, हमारी सेना दुश्मन से ज्यादा अपनी समस्याओं से जूझ रही है. वेतन और पेंशन को लेकर असंतोष अपनी जगह है, हालत ऐसे हैं कि अब गोले बारूद और हथियारों की कमी तक सता रही है. रक्षा सौदे की ज़मीन बड़ी फिसलन भारी है उस पर कीचड़ ऐसा कि पिछले कई सालों में रक्षा सौदे इस के दर से लटके रहे. एंटनी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है थल, जल और वायु सेना को उनकी ज़रुरत के सामान दिए जाएँ. चीन के मोतियों की माला में घिरे भारत के सामने पाकिस्तान के आण्विक हथियार संवर्धन में आई तेजी से निपटना बड़ी चुनौती है.

पलनिअप्पन चिदंबरम
शिवराज पाटिल जब २००४ में गृह मंत्री बने तो उन्होंने माओवादियों के खिलाफ संघर्ष विराम की घोषणा कर दी. कहा बातचीत से समाधान निकलेगा. गांधीवाद और माओवाद के बीच की दूरी पाटी नहीं जा सकी और उनका कार्यकाल रक्तरंजित रहा. फिर सीमा-पर समर्थित आतंकवाद, घरेलु आतंकवाद बम बनकर फटे इस देश की छाती पर. पाटिल साहेब के दामन पर जब दाग लगे तो वह अपना सफारी सूट बदल लेते थे. चिदंबरम जब शपथ ले रहे थे तब महाराष्ट्र में १६ घरों में मातम था. ये उन पुलिसकर्मियों के घर थे जो एक दिन पहले गढ़चिरौली में नक्सलियों के हाथ मारे गए थे. गढ़चिरौली महाराष्ट्र का वह जिला है जो तथाकथित रेड कॉरिडोर पर है. यह लाल गलियारा नेपाल से लेकर कन्याकुमारी तक कैसे खींचता गया, हमारे नीति-निर्धारकों की असफलता की कहानी है. चिदंबरम की सबसे बड़ी, हाँ आतंकवाद से भी बड़ी, चुनौती है माओवाद का बढ़ता प्रभाव. बात सिर्फ बन्दूक से नहीं बनती पर बन्दूक का जवाब हमेशा बातें नहीं हो सकती.

ममता बनर्जी
ममता दीदी या तो रेल में बैठेंगी या रायटर्स बिल्डिंग में.  उन्होंने रेल से कोल्कता का सफ़र शुरू किया है पर उनको यह याद रखना पड़ेगा कि वह भारत की रेल मंत्री हैं, पूर्व रेल की नहीं. उनके पहले के बहुत रेल मंत्री इस तथ्य को भूल जाते थे. लालू राज में मुनाफा शब्द रेलवे का मन्त्र बन गया था. इस को मैनेजमेंट स्कूलों में जगह मिल गयी पर रेलवे की दुर्दशा पर किसी का ध्यान नहीं गया. आज भी सर्विस और जान माल की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं.  खस्ताहाल पटरियाँ, मरियल डिब्बे और दुर्घटनाएं दुनिया की सबसे बड़ी रेल व्यवस्था पर दाग हैं. लोकप्रियता राजनीतिकों की मजबूरी है पर हमारे देश में अभी भी ग़रीबों को ट्रेन में लकडी के पट्टों पर बैठना पड़ता है. गरीब रथ ठीक है पर बाकी को कम से कम आरामदायक तो बना दो. 

सोमानाहल्ली मल्लाय्या कृष्णा
बहुत बुरे फंसे हैं हमारे वोक्कालिगा लीडर. कर्नाटक की राजनीति वैसे कम कठिन नहीं है पर ओबामा के अमेरिका में कुछ पक रहा है. इसका टेस्ट तो नहीं मालूम पर कढाई से जो गंध आ रही है, हमारे नथुनों को नहीं भा रही है. बुश के समय में जो सब पुश हुआ था वह सब फुस्स ना हो जाए इसका डर साउथ ब्लाक में कईयों को सता रहा है. पाकिस्तान के साथ डिप्लोमेसी को आतंकवाद का नाग सूंघ गया है और यूरोप में सब आपस में व्यस्त हैं. चीन ने अफ्रीका में अपना वर्चस्व सा बना लिया है और मंदी से जूझते बाकी विश्व के स्मृति पटल से भारत उतरता जा रहा है. नेहरु जी की नीतियों को कोसने वाले भी मानते हैं कि दबे कुचले देशों का नेत्रित्व भारत के हाथ में होने से दुनिया को हमारी ज़रुरत आन पड़ती थी. अब हम आर्थिक, सामरिक रूप से मजबूत हुए हैं पर दुनिया की राजनीति में लीडरशिप तो दूर पिछलग्गू वाली स्थिति आ गयी है. कृष्णा को अपनी बाँसुरी पर कुछ ऐसे धुन छेड़ने पड़ेंगे कि हमको कश्मीर और बंगलोर के अलावा अन्य कारणों से भी जाना जाए.   

Sunday, May 17, 2009

Oft In a S(t)illy Night: अक्सर शब्-ए-अडवानी में

Hazrat Mirza Tahir Ahmed translated Thomas Moore's Oft, In a Stilly Night into Urdu. In my opinion, Mirza's translation is among the few where the verses gained in translation, and did not, as it often happens, lose the spirit, imagery or the pathos of the original. Reshma's voice did the rest, it's a melody that grows on you. A rare song where enchanting and haunting become one. And L.K. Advani never knew it was written for him.


Here is Sir Thomas's original:
Oft, in the Stilly Night

Oft, in the stilly night,
Ere slumber's chain has bound me,
Fond memory brings the light
Of other days around me;
The smiles, the tears,
Of boyhood's years,
The words of love then spoken;
The eyes that shone,
Now dimm'd and gone,
The cheerful hearts now broken!
Thus, in the stilly night,
Ere slumber's chain hath bound me,
Sad memory brings the light
Of other days around me.


Saturday, May 16, 2009

बीजेपी को एक और वाजपेयी चाहिए

लोकलोक सभा के नातायाज़ हमारे सामने हैं. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. खुद कांग्रेस के नेता इस बात को मानते हैं कि जीत की आशा थी पर ऎसी जीत होगी पता नहीं था. उन्होंने अपने सहयोगियों और जनता को तो धन्यवाद दिया पर एक आदमी को नहीं जिसने जीत के अंतर को बढ़ाने में कांग्रेस की मदद की. कांग्रेस के लोग तो राहुल गाँधी को इसका सारा श्रेय दे रहे हैं पर एक और गाँधी है जिसने-अनजाने कांग्रेस की मदद की. वरुण गाँधी पीलीभीत से चुनाव जीत गए. पर उन्होंने भाजपा को इस चुनाव में हरा दिया. जो चुनाव विकास और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मुद्दों पर लड़ा जा रहा था संजय गाँधी के पुत्र ने उसे वापस उन मुकाम पर ला खड़ा किया, जहां से उसने शुरुआत की थी। एक चेहरा और एक नकाब से आगे निकल चुकी पार्टी फिर डरावनी लगने लगी। यह चेहरा था या मास्क पर जो भी था, इसे देख कर देश का एक बड़े वर्ग को सांप सुंघा गया.
आज वह भाजपा जिसे अटल बिहारी वाजपयी दक्षिण पंथ से मोड़कर बीच के रास्ते पर लाये थे, फिर एक दोमुहाने पर खड़ी है जहाँ से एक रास्ता अति-दक्षिण पंथ या हार्डकोर हिंदुत्व की ओर जाता है और एक बीच से ठीक दाएं, जिसे सॉफ्ट हिंदुत्व कहा जाता है. हार का विश्लेषण होगा, आत्म मंथन होगा और फिर सवाल खड़ा होगा कि जाएँ तो जाएँ कहाँ. चुनाव के वक़्त एक बड़ी भूल उसने की और वह भूल थी यह बताना कि आगे कौन सा रास्ता अपनाया जाएगा. यह तब हुआ जब नरेन्द्र मोदी को अडवाणी के बाद अगला प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. यह बड़ी नाज़ुक घडी थी, चुनाव प्रचार के दौरान. जनता अपना मन बना रही थी. तभी वरुण ने बीजेपी के प्रचार को एक यू-टर्न दे दिया और बीजेपी ने उनकी लाइन को नकारा नहीं. उस के ऊपर मोदी को अडवाणी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. ऐसा नहीं कि उनके मुस्लिम वोट कट गए. मुस्लिम वोट तो बीजेपी का था ही नहीं. पर इस धुर दक्षिणपंथ से हिन्दू डर गए. ख़ास कर मध्य वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग जो इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा के मुद्दों पर बीजेपी की तरफ झुका था. दुनिया में आर्थिक मंदी है और भारतीय अर्थव्यवस्था उस से बुरी तरह प्रभावित हो रही थी. हमारे सभी पडोसी देशों में गृह युद्घ जैसा माहौल है. उस में जनता नहीं चाहती कि ऐसे लोग सत्ता आसीन हो जाएँ जो घर की शांति और सद्भाव बिगाड़ दें. बीजेपी को बिहार में बहुत समर्थन मिला क्यूंकि वहां के मोदी, सुशिल कुमार मोदी, वैसी नीतियों में विश्वास करते हैं जो नीतिश कुमार ने बनायी हैं, न कि नरेन्द्र मोदी ने।
अभी भारत देश ऐसे मुकाम पर खडा है जहाँ उसके विश्व शक्ति बन्ने का सपना पूरा होता दिखाई देता है. ऐसा नहीं कि यह सपना सिर्फ कांग्रेस का है. बीजेपी ने अपना प्रचार अभियान इसी से शुरू किया था. पर अचानक वरुण ने नदा के सतरंगे सपने पर गहरा भगवा पोत दिया. प्रचार अचानक निगेटिव हो गयी. व्यक्तिगत आघात-और प्रत्याघात बढ़ गए. जनता पोजिटिव थी. और काफी अरसे बाद पोजिटिव वोटिंग हुई इस देश में. मनमोहन सिंह की छवि और उनके पांच साल के शाशन में सद्भाव और शांति रही, प्रगति होती रही. और परिणाम सबके सामने है।
नीतिश कुमार बीजेपी के साथ रहे फिर भी उनके पोजिटिव केम्पेन को जनता ने पसंद किया. वहां मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट किया। कंधमाल में भगवा ब्रिगेड के आचार के बाद नवीन पटनायक के लिए बीजेपी के साथ रहना संभव नहीं रहा था. वहां भी बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हो गया और नवीन पटनायक ने फिर झंडा गाडा. बीजेपी के पास पांच साल हैं एक लीडर तलाशने को. अडवाणी की उम्र हो गयी है. मोदी के ऊपर दाग है. इस पार्टी को एक नेता चाहिए जो अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, विकास और सुरक्षा के मामलों में आक्रामक हो पर हिंदुत्व के मुद्दे पर सॉफ्ट हो. बीजेपी को एक वाजपयी चाहिए. कोई है?