Friday, November 13, 2009

नेता नियुक्त नहीं किये जाते, नेता हो जाते हैं

अज सरे बालीने मन बर खेज़ ऐ नादाँ तबीब,
दर्द मंदे इश्क रा दारू बजुज़ दीदार नीस्त.
 
(चल हट जा मेरे सिरहाने से ऐ डॉक्टर,
मैं इश्क बीमार हूँ, सिवा दीदार कोई दवा नहीं) 
 
अमीर खुसरो रहमतुल्लाह अलय ने यह पंक्तियाँ अपने पीर की जुदाई में कही थी. पर आप इन्हें आज की बीजेपी पर बेबाक टिपण्णी कह सकते हैं. नेतृत्व-विहीन, दिशा-हीन और जघन्य कमजोरी से ग्रसित पार्टी को संजीवनी चाहिए. एक सुदृढ़, संकल्पित नेता के दीदार के सिवा कोई इलाज नहीं.  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने कहा कि दवा दारु चाहिए या कीमोथेरापी, अपनी इलाज के लिए बीमार स्वयं जिम्मेदार है. फिर अपने स्वयंसेवक नाम को सार्थक करते हुए संघ ने स्वयं देसी नुस्खे बनाना शुरू कर दिया. शुरुआत इस से हुई कि दिल्ली  का कोई नेता अब पार्टी की बागडोर नहीं थामेगा. अभी अटकलें चल रही हैं और सबसे आगे नितिन गडकरी हैं. जी हाँ, कैंसर के इलाज के लिए गुलकंद की सलाह डॉक्टर भगवत ने दी है. बीमार को अल्लाह रखे.
बीजेपी को जब भी बीमारियों ने सताया, उसने रामबाण का प्रयोग किया. आज बीजेपी का हर छुटभैया नेता एल.के आडवाणी को कोसते नहीं थकता, जो बीजेपी को पोसते पोसते बूढे हो गए. भावी प्रधानमंत्री का पद संभालते उम्र गुज़र गई, और पार्टी में कोई पद नहीं रहा. टायर नहीं हुए पर रिटायर होने पर मजबूर हैं. क्योंकि युवा शक्ति का ज़माना है. कांग्रेस के प्रधानमंत्री छरहरे जितने हों, उम्र में सिर्फ पांच साल बड़े आडवानी से बस उन्नीस हैं. युवा होना एक मनः स्थिति है, और इस लिहाज़ से बीजेपी के मुकाबले उस से ९५ साल बड़ी कांग्रेस जवान दिखती है. बीजेपी अपने लिए एक अदद राहुल गांधी को ढूँढने निकलती है तो उसे नितिन गडकरी मिलते हैं. दीवारों पर पोस्टर चिपकाने से लेकर महाराष्ट्र राज्य बीजेपी में हर पद संभालने वाले गडकरी आज कल दिल्ली में अपनी कुर्सी तलाश रहे हैं. संघ की टिकट से लैस लुटयन की दिल्ली में पार्टी के मठाधीशों से स्वीकृति की दरकार लिए. पार्टी के वर्तमान नेता झंडेवालान में संघ के दफ्तर में हाजिरी बजा रहे हैं. कीमोथेरपी करें या ऑपरेशन, इस पर विचार चल रहा है. गडकरी नामक गुलकंद से बीमार बीजेपी में नई जान आयेगी, इस का भरोसा किसी को नहीं. शिव सेना के पिछलग्गू होकर महाराष्ट्र के हालिया चुनाव में मुंह की खाए नेता अगर देशव्यापी नेतृत्व दे तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे, मठाधीशों की ये दलील नाजायज़ नहीं लगती.
खासकर तब जब राजनाथ के राज में सारी चमक मिटटी में मिल गई हो. सवाल है कि एक दल जिसने पांच साल देश की सरकार का नेतृत्व किया है उसे कौन सा लकवा मार गया कि नितिन गडकरी से बेहतर नेता नहीं मिल पा रहा. गडकरी में करिश्मा नहीं और उन्हें जनता तो क्या पार्टी के कार्यकर्ता नहीं जानते. नरेंद्र मोदी विकल्प हैं पर उनकी छवि उन्हें गुजरात के बाहर जाने से रोकेगी, यह वह भी जानते हैं. गुजरात के पांच करोड़ जनता की सेवा का संकल्प उन्होंने यूं ही नहीं लिया है. विपक्ष का नेता कैबिनेट मंत्री के दर्जे का होता है और मोदी को तो कई देशों में वीसा नहीं मिलता. आने वाले राष्ट्रप्रमुख राजनाथ से हाथ मिलाते हैं, पर उनके संग कितने लोग फोटो खिंचाएंगे इस पर संदेह है. अरुण जेटली वाक्शक्ति के पहलवान हैं पर मंच पर आने की क्षमता नहीं इसलिए नेपथ्य में ही गूँजते रहेंगे. जसवंत सिंह को जिन्ना के जिन ने निगल लिया और सुषमा स्वराज की तुलना सोनिया से होगी तो पलड़ा हल्का होगा. 
पर  खेवैया चाहिए नहीं तो डूबती नैय्या कौन बचायेगा. नेतृत्व के दिवालियेपन का नतीजा यह है कि जहाँ उभर रहे थे वहां भी डगमग हो रहे हैं. अगर मजबूत नेता होता तो रेड्डी बंधू लोकप्रिय येद्दियुरप्पा को सरेआम रुला नहीं पाते. कर्णाटक का हालिया नाटक इस बीमारी का लक्षण मात्र है. पर नेतृत्व से भी ज़्यादा ज़रूरी है अपने पैरों पर खड़ा होना. संघ के पालने में बैठकर सत्ता के दुधमुंहे सपने पालने से जीवनी शक्ति नहीं आयेगी. वाजपेयी संघ के रहते भी अपनी राजनीति स्वयं करते थे और यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों तक में अपनी छवि के बल पर पैठ बनाने की क्षमता रखते थे. बीजेपी को एक नया वाजपेयी चाहिए जो बोले तो लोग सुनें, चुनें या ना चुनें उनकी मर्जी. पहले वह करिश्मा चाहिए, एक प्राकृतिक नेतृत्व का आत्मबल चाहिए.  संघ स्वयं अपनी ज़मीन खो रहा है, क्योंकि उसकी विचारधारा प्राचीन हो गई है. नया भारत अब वापस सोने की चिडिया नहीं होना चाहता, नया भारत सिलीकोन  का चिप बनकर ज़्यादा खुश है. अगर नए भारत के साथ कदम दर कदम चलना है तो बीजेपी को मर कर ज़िंदा होना पडेगा. इस बीमारी का इलाज ढूँढने के चक्कर में वक़्त जाया किये बिना. नई पार्टी, नया संविधान फिर नेता स्वयं अवतरित होगा. नेता नियुक्त नहीं किये जाते, नेता हो जाते हैं.
अमीर खुसरो की उन पंक्तियों को कव्वाल अज़ीज़ मियाँ संशोधित कर गाते थे. पहली फ़ारसी की लाइन के बाद अपनी हिन्दुस्तानी की लाइन  लगा कर. वक़्त आ गया है बीजेपी संघ से अज़ीज़ मियां वाला वर्ज़न कहे.
अज सरे बालीने मन बर खेज़ ऐ नादाँ तबीब,
तू अच्छा कर नहीं सकता, मैं अच्छा हो नहीं सकता!

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