Tuesday, August 25, 2009

Kutte by Faiz

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ भर का दुत्कार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
जो बिगडें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता कर मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक गर सर उठाये
तो इन्सां सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियां तक चबा लें
कोई इनको अहसास-ए-जिल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

3 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

बहुत सही कहा है |

जगदीश त्रिपाठी said...

आज फुटपाथ पे दम तोड़ दिया है जिसने
वो भी अपनी उजड़ी हुई दुनिया का सिकंदर होगा

भाई साहब
यह कविता बहुत कुछ कहती है।
फुटपाथ पर रहने वाले कुत्ते हों या इनसान,
दोनों की जिंदगी में ज्यादा फर्क नहीं होता,
कोई नंदा या खान उन्हें कुचल कर चला जाता है
और कहानी खत्म। बोटियां चबाने की ताकत
उनमें है, लेकिन दिक्कत यह है कि इसका अहसास
उन्हें नहीं है।

Anonymous said...

nice. deep. -P.