अड़गिरि के शपथग्रहण के २४ घंटे में एम।के. स्टालिन ने तमिलनाडु की डोर अपने हाथ में ले ली है. अड़गिरि के तमिलनाडु में रहते जितनी बार करूणानिधि ने छोटे पुत्र स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का प्रयास किया, अड़गिरि के समर्थकों ने ऐसा बावेला मचाया कि उनकी योजनायें धरी की धरी रह गई. जैसा कि आपने यहीं पढ़ा था, मनमोहन सिंह की सरकार बनने के समय करूणानिधि के सामने एक राजनैतिक चुनौती तो थी ही, उस से बड़ी चुनौती थी अपने परिवार के अन्दर ही एक बड़े संघर्ष को विराम देना. आपको हमने यह भी बताया था कि यह संघर्ष अभी ख़त्म नहीं होगा. और यह संघर्ष अगर द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम को ही लील जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
पर इतना तो स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में अब दयानिधि मारण की हैसियत को बट्टा लग गया है। उनको कपडा मंत्रालय ही मिला, शायद इसलिए कि उनकी औकात ईनाम भर की रह गई है. वह भी इस लिए कि वह तमिलनाडु के मीडिया मोगुल हैं और द्रमुक को गाहे-बगाहे उनकी ज़रुरत होती है. थोडा योगदान इस बाद का भी था कि दयानिधि उनके भांजे के सुपुत्र हैं. करूणानिधि ने अपने वफादार ए. राजा को टेलिकॉम और सूचना तकनीक मंत्रालय में बिठाकर यह दिखा दिया कि पार्टी में वफादारी का महत्त्व है, अगर वफादारी को अंहकार के पर ना लगें. पिछली बार मारण को पर लग गए थे और दिल्ली के आकाश में उड़ते हुए वह भूल गए थे उनके पिता के मामा के पास एक तीर है जो उनको धडाम से ज़मीन पर ला सकता है.
पिछली सरकार में उन्हें ज़मीन पर लाने के बाद, करूणानिधि ने इस बार उन्हें लगाम डाल दिया है. दिल्ली में सत्तासीन यू.पी.ए. के करता-धर्ताओं को भी यह स्पष्ट हो गया है कि गठबंधन के मामलों में वह राजा या मारण से नहीं बल्कि अड़गिरि से बात करेंगे. अड़गिरि अब दिल्ली में करूणानिधि के आँख और कान बनकर बैठेंगे, वह काम जो कभी दयानिधि के पिताश्री मुरासोली करते थे. द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम जैसी क्षेत्रीय पार्टी के की साड़ी मलाई चेन्नई में पकती है, न कि दिल्ली में. दिल्ली तो सिर्फ आइसिंग है, पूरा केक तो चेन्नई में पडा है. आइसिंग कितनी भी लज़ीज़ हो, पेट तो केक से ही भरता है. पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अड़गिरि की भूख का क्या होगा? दक्षिण तमिलनाडु में अपने समर्पित काडर को कैसे मनाएंगे अड़गिरि जब पूरा केक स्टालिन के समर्थक गपोस जायेंगे? तमिलनाडु की राजनीति पर नज़र रखियेगा, बहुत ट्विस्ट बाक़ी हैं इस कहानी में.
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