Saturday, May 30, 2009

ज्वलनशील हैं हम

रविदासी संतों पर वियेना में हुए हमले से पंजाब में जैसी आग भड़की, उसने देश सहम सा गया. वह आग बुझ गई है, पर उसने हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया कि कितने कमज़र्फ़ हैं हम, इतने ज्वलनशील कि एक चिंगारी, एक पलीता दरकार होती है धू-धू जल उठने के लिए. हमारी शांति की सतह के नीचे न जाने कितने जलजले अंगडाइयां ले रहे हैं. कब वह ज्वालामुखी बनकर फट पड़ें, मालूम नहीं. जिन से हम निजात पा चुके होने का दंभ भरते हैं, वो विसंगतियां हमारे साथ न सिर्फ पल रही होती हैं बल्कि हमारी गफलत उन्हें सींच कर पुष्ट बनाते हैं. सिख पंथ जात-पात को वैधता नहीं देता. पर ५०० साल हो गए, सिख अभी भी जात के नाम पर बँटे हुए हैं. ग्रन्थ साहिब एक हैं पर गुरुद्वारे अलग-अलग. हिन्दू धर्म की जिन कुरीतियों के खिलाफ सिख धर्मगुरुओं ने हल्ला बोला था, वह कुरीतियाँ अब भी लोगों को बाँट रही हैं.

क्या है जाति में जो हमें छोड़कर जाती ही नहीं. एक चिन्तक ने मुझसे कहा था कुछ तो अच्छाइयां रही होंगी, वर्ना आधारहीन सिद्धांतों की तरह कब की भसक चुकी होती. उनका कहना था जाति व्यवस्था में व्यवस्था थी और हर समाज व्यवस्था को अव्यवस्था पर तरजीह देता है. मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा पर इतना ज़रूर कहा कि इस कुव्यवस्था में गंभीर बुराइयां हैं, जो यह हमारा दामन नहीं छोड़ रही. अच्छाइयां तो नज़र हटाओ और फुर्र हो जाती हैं. बुरी आदत कोई भी हो बा-आसानी नहीं जाती. अच्छाई को ज़िंदा रख पाना कठिन है, बुराई तो अमर बेल है, आपके सिरहाने उग आई तो आपको फाँस लगा देगी.

यह सवाल ज़िंदा है कि क्यूँ जातिवाद हमारे लोकतंत्र को अपनाने के बाद भी हमारे बीच न सिर्फ जिंदा है पर हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मुहावरे तय करता है, हमारे चुनावी समीकरणों का पर्यायवाची बन बैठा है? इस्लाम और क्रिश्चियनिटी बहुत पहले भारत में आये और उनके समता-मूलक सिद्धांतों से प्रभावित हो कईयों ने अपना धर्म त्याग इन धर्मों को अपनाया. इन में से एक बड़ा वर्ग उनका था जो पारंपरिक हिन्दू धर्म कि विषमताओं के भुक्तभोगी थे और सम्मान और समता की आस में मुसलमान या ईसाई बने. पर जातिवाद का चंगुल वहाँ भी बरकरार है.

बिहार में नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग का एक बड़ा हिस्सा है मुसलमानों में पिछडी जातियों को लामबंद करना. इनको पसमांदा मुस्लिम समाज का नाम दिया गया है, ऐसा समाज जिसे शेखों या सैयेदों ने कभी बराबरी का अहसास नहीं दिलाया, भले उनको अपना धर्म भाई माना हो. ठीक वैसे ही जैसे पंजाब में जाट सिखों ने दलित सिखों को सिख तो माना पर अपने बराबर का नहीं.

पाकिस्तान तो इस्लाम के नाम पर ही बना था पर वहां भी राजपूत, जाट या गूजर अपनी जाति-गत पहचान नहीं छोड़ना चाहते. अब तो वहां जाति-सूचक सरनेम रखने का फैशन हो गया है. लाहौर और पिंडी में गाड़ियों के पीछे राजपूत या जाट ऐसे लिखा मिलता है जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश में. क्रिकेटर नावेदउल-हसन राणा को राणा लिखने की ज़रुरत क्यों आन पडी? ऐसे ही पूरे उपमहाद्वीप में ईसाईयों के बीच जाति या जनजाति की पहचान और उसका भेद बना हुआ है.
जाति-आधारित आरक्षण के विरोधी अक्सर कहते हैं कि ऎसी व्यवस्था जातिवाद को और मजबूत करेगी. इस बात को अगर मान भी लें तो क्या आरक्षण नहीं रहने पर यह व्यवस्था ख़त्म हो जाती? उत्तर है नहीं. जाति कोई स्वीकार या ग्रहण नहीं करता. जाति जन्म से निर्धारित होती है. यानी धर्म बदलने की आजादी है पर जाति लेकर आप पैदा होते हैं. और अगर धर्म बदल भी लिया तो जाति नहीं बदलेगी.

ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढे हैं अपने रुढिवादी व्यवस्था से. शहरों में जातिवाद इतना सशक्त नहीं रह गया क्यूंकि शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति ने कई खाईयां पाट दी हैं. आप हिंदुस्तान के किसी भी शहर में चले जाओ, दोस्ती या अब रिश्तेदारी में जाति का रोल विलुप्त या कम हो गया है. धीरे धीरे ही सही, दूरियाँ नापी जा रही हैं पर समाज को सतर्क भी रहना पड़ेगा गाहे-बगाहे टपक पड़ने वाली चिंगारियों से. क्यूंकि ज्वलनशील हैं हम. अत्यंत ज्वलनशील.

4 comments:

Anonymous said...

Have you stopped writing in english becoz most of your writeups are in hindi nowadays.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

ये बात सच है की शैक्षणिक - आर्थिक प्रगति ने कई खाईयां पाटी हैं, और जातिवाद का असर काफी कम हुआ है| पर ये बात भी उनती है सच है की वर्त्तमान शैक्षणिक - आर्थिक प्रगति ने कुछ नई बड़ी खाइयों का निर्माण किया है | भारत मैं प्रतिमाह ऐसे क्लबों, होटलों, स्वीमिंग पूलों ..... की संख्या बढ़ रही है जहाँ सिर्फ और सिर्फ आर्थिक रूप से समृद्ध लोगों का हे प्रवेश है | क्या मजाल की एक गरीब, चाहे वो किसी भी जाती का हो, वहां प्रवेश कर जाए और बिना मार खाए या अपमानित हुए वापस आ जाए| क्या वर्त्तमान सिक्षा की इस कमी पे ध्यान देने की जरुरत नहीं है?

जगदीश त्रिपाठी said...

भाई साहब, आपका लेख काफी पहले पढ़ लिया था। विचारोत्तेजक तो यह है ही। साथ ही जानकारीपरक भी। पाकिस्तान में भी पंथ परिवर्तित मुस्लिम अपने नाम के सामने अगर अपनी उस जाति को नाम के साथ जोड़ कर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं,जो उनके हिंदू पूर्वजो की थी तो यह अच्छा ही है। हो सकता है इसी गौरवानुभूति से प्रेरित होकर हिंदुओं के निकट आ जाएं। जहां तक जाति व्यवस्था की बात है तो जाति व्यवस्था पर कई दशकों से प्रहार हो रहा है। होना भी चाहिए। क्योंकि जाति-संप्रदाय के नाम पर कथित राजनेता और संत-समाज सुधारक अपने निहित स्वार्थ के तहत जो घिनौना खेल खेलते हैं,उससे निजात पाने के लिए जाति मुक्त समाज की स्थापना अति आवश्यक है। लेकिन ऐसा नहीं है कि जाति व्यवस्था के उद्भव के मूल में समाज के विभाजन की सोच छिपी हुई थी। भारतीय जनसंघ के संस्थापक और एकात्म मानववाद के प्रणेता स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय कहा करते थे कि जाति प्रथा का उद्भव समाज के निरंतर विकास के क्रम में हुआ था। प्राचीन हिंदू वांग्मय में वर्ण व्यवस्था का जिक्र तो है,लेकिन जाति व्यवस्था का नहीं तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।
अब फिर वापस आते हैं। उपाध्याय जी की बात पर। दरअसल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण के लोगों के कर्म एक ही थे। ब्राह्मणों का कार्य समाज को शिक्षित प्रशिक्षित करना था। क्षत्रियों का कार्य समाज की सुरक्षा करना और प्रशासिनक व्यवस्था को संभानलना था।लेकिन शूद्र, जिन्हें मैं शिल्पकार कहना बेहतर समझता हूं,वे अलग-अलग विधाओं में दक्षता हासिल करते थे और समाज को अपना अद्भुत योगदान देते थे। कोई लकड़ी के काम में निष्णात होता था तो कोई लोहे के काम में।सो उनके बच्चे भी घर में हो रहे काम में अपने माता-पिता की मदद करते-करते दक्ष हो जाते।
इस तरह से धीरे-धीरे उनकी एक कम्युनिटी विकसित होने लगी। ठीक वैसे ही जैसे आज ट्रेड यूनियन बन जाती है। लोग अपनी ही कम्युनिटी में में शादी ब्याह करने लगे। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि ज्यादातर पुत्र अपने पिता के कार्य में पारंगत होकर उसी को चुन लेते थे। उनकी पुत्रियां भी उस कार्य में पारंगत हो जाती थीं। इससे अपनी कम्युनिटी में शादी ब्याह करने पर काम काज में तो सुविधा होती ही थी।नई वधू को भी मायके जैसा माहौल मिलता था और वह खुद को एडजस्ट करने में कोई दिक्कत नहीं पाती थी। इसी तरह ब्राह्मणों की कम्युनिटी भी बन गईं। अब आप सोचें कि यदि किसी ब्राह्मण की कन्या किसी क्षत्रिय घऱ में ब्याह कर आ जाती और अपने तरुण पति को युद्ध के लिए प्रयाण करते देखती तो यही कहती कि हे प्राणनाथ,छोड़ो आप युद्ध में क्यों जाते हो। हम भिक्षा मांग कर जीवन यापन कर लेंगे। जबकि क्षत्रिय कन्या अपने पति को अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित करती। कहती, विजय प्राप्त कर आना। मैं प्रतीक्षा करूंगी। क्योंकि वह मायके में यही देखती आई थी कि जब उसके पिता रणभूमि में जाते थे तो मां उनको सजाती थीं। सो इस तरह वर्णों के भीतर जातियों का अभ्युदय का क्रम शुरू हो गया, जो कालांतर में इतना मजबूत हो गया िक उपजातियां अस्तित्व में आ गईं। मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि जातियों का अभ्युदय तत्कालीन समाज की आवश्यकता थी, जो स्वतः स्फूर्त थी। और इसी व्यवस्था के तहत भारतीय समाज हजारों सालों से प्रगति के मार्ग पर चलता रहा। आज इसका दुरुपयोग हो रहा है तो वह इस व्वयस्था का दोष नहीं है। हां आज की स्थितियां भिन्न हो गई हैं। इसलिए जाति व्यवस्था पर प्रहार कर उसका खात्मा जरूरी हो गया है। लेकिन हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि हम विकल्प में क्या व्यवस्था देंगे और क्या भविष्य में उसका दुरुपयोग नहीं होगा।

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

त्रिपाठी
जी आपने आच्छी-खासी मिहनत की होगी इस लेख को लिखने में| जाती वावास्था पे आपके विचार कबीले तारीफ है| आपने कई ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो गौर करने योग्य है| वैसे आज-कल ये सामान्य परिपाटी हो गई है की भारतीय सभ्यता, संस्कृति, रीती-रिवाज को जैसे तैसे निचा दिखाओ | वैसे मैं जाती प्रथा के विरुद्ध हूँ और मानता हूँ की इसका खत्म जरुरी है | कितु मैं आपकी तरह ये मानता हूँ की इस गलत प्रथा के लिए सनातन धर्म दोषी नहीं है |

वैसे भी मेकाले की सिक्षा पद्धती को सर्वस्रेस्था मानने वाले से भारतीय संस्कृति की सही ज्ञान की उपेक्षा करना मुर्खता हे है?

Thomas Babbington Macaulay believed that the conversion of Hindus to Christianity held the answer to the problems of administering India. His idea was to create an English educated elite that would repudiate its tradition and become British collaborators. In 1836, while serving as chairman of the Education Board in India, he enthusiastically wrote his father:

"Our English schools are flourishing wonderfully. The effect of this education on the Hindus is prodigious. ...... It is my belief that if our plans of education are followed up, there will not be a single idolator among the respectable classes in Bengal thirty years hence. And this will be effected without any efforts to proselytize, without the smallest interference with religious liberty, by natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the project."

The key point here is Macaulay's belief that 'knowledge and reflection' on the part of the Hindus, especially the Brahmins, would cause them to give up their age-old belief in favor of Christianity. In effect, his idea was to turn the strength of Hindu intellectuals against them, by utilizing their commitment to scholarship in uprooting their own tradition. His plan was to educate the Hindus to become Christians and turn them into collaborators. He was being very naive no doubt, to think that his scheme could really succeed in converting India to Christianity. At the same time it is a measure of his seriousness that Macaulay persisted with the idea for fifteen years until he found the money and the right man for turning his utopian idea into reality.

यही मेकाले की संतान बन गए हैं हमलोग | वैसे हमलोग हैरी पॉटर और ना जाने कितनी किताबें, मैगजीन आत्मसात कर लेते हैं की यदि ये नहीं किया तो जीवन अधुरा है | लेकिन सही मन से सोचे तो हमलोग कितनी बार कोई प्रमाणिक ग्रन्थ उठा कर भारतीय सभ्यता संस्कृति को सही मायने मैं समझने का प्रयास करते है ? अलबत्ता, भारतीय सभ्यता संस्कृति पे अधिकार के साथ बोलते हैं की ये निचे की श्रेणी का है|

धन्यवाद
राकेश