Wednesday, December 30, 2009

नौ के नश्तर बहुत हुए, दस में बस हो



आज २००९ हमसे विदा लेगा. इस के साथ ही २१वीं सदी का पहला दशक इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा. जाते दशक को दुनिया कोई भाव-भीनी विदाई नहीं देगी, क्योंकि इसकी मीठी यादों के साथ एक चुभन होगी, उन ज़ख्मों की जो इसके जाने के बाद भी रिसेंगे. और फिर दुनिया ये दुआ करेगी कि ऐसा दस साल फिर देखने को नहीं मिले तो अच्छा.
 
२१वीं सदी का स्वागत कितनी अपेक्षाओं और उम्मीदों के साथ हुआ था पर २००१ के नवम्बर में न्यूयोंर्क के ट्विन टॉवर के साथ वे सपने चकनाचूर हो गए. अमेरिका को नया दुश्मन मिला जो कोई देश नहीं था, और नहीं कोई सेना. ये नॉन-स्टेट एक्टर्स थे. ओसामा बिन लादेन का अल-काइदा एक बिना चेहरे वाला दुश्मन था. उस से निपटने के लिए जिस तरह की नीतियां अपनाई गई, उस से अल-काइदा कमज़ोर नहीं हुआ. ओसामा भले अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पहाडियों में सिमट गया पर उस की सोच का विस्तार होता गया. बुश की नीतियों ने अमेरिका का भला किया ना ही दुनिया का.
 
भारत में संसद से लेकर सड़क किनारे डस्टबिन तक, वह सोच बारूद बनकर फूटती रही और जाने कितने निर्दोष हिन्दुस्तानी मरे जो सिलसिला मुंबई में पिछले बरस हुए हमलों तक चलता रहा. एक दशक लहू से भींग गया. दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, बंगलौर, हैदराबाद, मुंबई... शहर के शहर ज़ख़्मी हुए. पाकिस्तान में बैठे आतंक के आकाओं ने अल-काइदा से हाथ मिला लिया. भारत के एक गैंगस्टर की भी मदद लेते रहे, भारत को तबाह करने में. कश्मीर को चैन से जीने ना दिया. जब जब आग बुझी, नई चिंगारियां भड़काई गईं.
 
पाकिस्तान ने भी वही सब कुछ भोग जिसका निर्यात वह भारत को कर रहा था. उसके अपने नागरिक उन्हीं शक्तियों का शिकार होते रहे, अपने ही घर में, अपने बाज़ारों और इबादतगाहों में. २००९ के साथ क्या ये सिलसिला थम जाएगा. नहीं पर, खून के बदले खून की नीतियों ने खूंरेजी को ज़िंदा रखा है. इस्लामिक देशों को अपने देश में आर्थिक विषमताओं, अशिक्षा, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को निपटाना होगा ताकि आतंकी संगठनों को रंगरूट नहीं मिलें वहीं पश्चिम के देशों को अपनी घरेलु और विदेश नीतियों में सौहार्द का अंश बढ़ाना होगा जिस से असंतोष कम हो.
 
पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों के युवाओं में इस दुनिया की उम्मीदें भरनी होगी ताकि वह मृत्युलोक के छल में अपनी जान देने को तैयार नहीं हों. फिर कोई अजमल कसाब अपने घर की नाइंसाफी से तंग होकर पड़ोसी के घर जान लेने और जान देने आये. इस दशक के अवसान पर यही दुआ है कि अब खून का ये खेल खत्म हो. दस के दरवाज़े पर दस्तक दे रही दुनिया आज प्रार्थना करेगी कि उसकी झोली में मरहम होंगे, नश्तर नहीं. आमीन.

1 comment:

Smart Indian said...

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः!