Wednesday, October 14, 2009

चीनी मीठी नहीं होती हमेशा

प्रधानमंत्री के अरुणाचल दौरे पर चीन की आपत्ति अस्वाभाविक नहीं लगता अगर हम अपने उत्तरी पड़ोसी की हाल की चालों पर गौर करें. इन सब की जड़ में तिब्बत है, जिस पर सैनिक आधिपत्य कायम करने के दशकों बाद भी चीन का नैतिक आधिपत्य नहीं हो पाया है. तिब्बत में चीन ने विकास और आधुनिकता की रेल दौड़ा दी पर तिब्बतियों के दिलों पर राज अभी भी उनके धार्मिक और सांस्कृतिक प्रेरणा श्रोत महामहिम दलाई लामा ही करते हैं. दलाई लामा भारत में रहते हैं और निष्काषित ही सही तिब्बत की नैतिक सरकार यहीं से चलती है. दलाई लामा अरुणाचल के दौरे पर जाने वाले हैं और चीन बेचैन है. चीन इस हद तक अरुणाचल पर दावा करता है कि हाल में आईएएस अधिकारियों की एक टीम का चीन दौरा रद्द करना पड़ा, क्योंकि अरुणाचल-मूळ के एक आईएएस अधिकारी को वीसा नहीं मिला. चीन का कहना था उन्हें वीसा की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अरुणाचल के होने के नाते चीन के ही हुए इसलिए वीसा क्यों?

अब उस घटना को दलाई लामा के परिप्रेक्ष्य में देखें. दलाई लामा का चीन में घुसना मतलब जेल की सलाखों के पीछे होना. और अगर वह अरुणाचल जाते हैं और स्वतंत्र घूमते हैं तो अरुंचल पर चीन के आधिकारिक दावों का क्या होगा. दलाई लामा का भारत में स्वच्छंद विचरण चीन के गले नहीं उतरेगी, कभी भी नहीं. उस पर प्रधानमंत्री का चुनाव के मौके पर अरुणाचल जाना चीन के लिए जले पर नमक छिड़कने जैसा है. क्योंकि लोकतंत्र चीन के लिए अनर्गल चीज़ है और चुनाव इस बात का अंतिम द्योतक है कि अरुणाचल के लोग किस देश को अपना मानते हैं. १९६२ के युद्ध में चीन ने लदाख और अरुणाचल प्रदेश के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था. लेकिन वक़्त की ज़रूरत यह थी कि उसे तिब्बत पर बेहतर नियंत्रण चाहिए था. उस के लिए ज़रूरी था की जम्मू और कश्मीर राज्य का अक्साई चीन इलाका वह अपने कब्जे में ले ले. अक्साई चीन उसके सिंकियांग प्रांत को तिब्बत से सीधे जोड़ता है. अपना प्राथमिक स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद उसने अरुणाचल प्रदेश, जिसे तब नेफा के नाम से जाना जाता था, से अपनी सेना को वापस नियंत्रण रेखा पर बुला लिया.
अक्साई चीन में बड़े हाईवे बने जिसने ना सिर्फ तिब्बत पर बीजिंग की पकड़ मजबूत की बल्कि पाकिस्तान और चीन को सड़क मार्ग से जोड़ दिया. उस के दो दशक से ज़्यादा हो गए थे, जब चीन ने अरुणाचल के तवांग पर अपनी नज़रें गड़ाई. तवांग को चीन दक्षिणी तिब्बत कहता है. अस्सी के दशक में कुछ सैन्य झड़पें भी हुई जिसके बाद दोनों देश सीमा मुद्दों को सुलझाने के लिए कई बार बैठे और कुछ समझौते भी किये गए. पर अरुणाचल, या कम से कम तवांग, पर चीन ने अपना रवैया नहीं बदला.

आर्थिक क्रान्ति के बाद बीजिंग सामरिक रूप से भी मजबूत हो गया पर इक्कीसवीं सदी आते आते भारत ने भी आर्थिक प्रगति के झंडे गाड़े. अब १९६२ जैसे हालत नहीं हैं कि चीन सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर भारत की ज़मीन हथिया सके. हमारे सेना पर्मुखों ने भी स्वीकार लिया कि हम चीन से सीधे भिड़ने में अक्षम हैं, फिर भी दुनिया बदल चुकी है. अब भारत एक आर्थिक शक्ति भी है और अमेरिका जैसे सामरिक शक्ति वाले देशों के करीब भी. अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु संधि कर यह दिखा दिया कि वह इस क्षेत्र में संतुलन के लिए भारत के पलड़े में बैठ सकता है. चीन ने उसकी काट भारत के चारो तरफ घेराबंदी कर तैयार की है. उसकी इस योजना में पाकिस्तान, बर्मा और नेपाल के माओवादी उसके साथ हैं. ऎसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि भारत क्या करे. जवाब भारत पर आर्थिक बोझ डालेंगे पर वह नितांत आवश्यक भी है. भारत के रक्षा बजट में बढोतरी का सबसे बड़ा हिस्सा वेतन बढोतरी में खर्च हो जाता है. ऐसे में भारत के लिए ज़रूरी हो जाता है कि वह अपनी सामरिक क्षमता में व्यापक वृद्धि करे. सीमावर्ती इलाकों में आधारभूत सरंचना का विकास तेजी से हो और किसी भी आपदा से निपटने के लिए अपनी सेना को ज़रूरी साजो-सामान से लैस रखा जाए. युद्ध से सीमा समस्या के समाधान की संभावना नहीं है पर जब तक समस्या है तब तक युद्ध एक संभावना है.

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