हमारे संगीत का सितारा ए.आर. रहमान ने अपनी धुन में रहने वाले पश्चिम के आकाश पर शान से चमक रहा है. ऑस्कर के बाद ग्रैमी अवार्ड भी उन्होंने हथियाया. स्लमडॉग मिलियनेयर के जय हो के लिए जो ग्रैमी उन्हें आज मिला उसमें स्पैनिश शब्दों के लिए तन्वी शाह और हिन्दुस्तानी शब्दों के लिए गुलज़ार का भी नाम आया. किसी विडम्बना है कि देश में गुलज़ार पर कविता चोरी करने के आरोप लग रहे हैं. उस से बड़ी विडम्बना यह कि हम अपने देश के इस काल के एक नामवर कवि की साख पर बेवजह बट्टा लगा रहे हैं. सोमवार को अखबारों और टीवी चैनलों पर गुलज़ार पर अभद्र टिप्पणियाँ की गईं और उन पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता चुराने का आरोप लगाया गया. ये अनावश्यक विवाद फिल्म इश्किया के लिए गुलज़ार के गाने "इब्ने बतूता" को लेकर है जिसमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता से उठाये दो शब्द "इब्ने बतूता" और "जूता" तुक में आते हैं. इतना होना था कि इलाहाबाद में प्रेस कांफेरेंस हो गया और कई लेखों में गुलज़ार की रचनाशीलता पर प्रश्न उठा दिए गए. प्रेरित रचना और रचना सृजन के बीच एक बेहद पतली लकीर होती है. यह संभव है और यहाँ तक कि हो सकता है कि गुलज़ार ने यह गाना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचना से प्रेरित हो कर लिखा है पर उन्होंने उस लकीर को लांघा नहीं. दोनों कृतियों में यही फर्क है. पर आधी जानकारी और कविता सृजन की आधी समझ वाले टिप्पणीकारों ने गुलज़ार पर हमला सा बोल दिया है कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को क्रेडिट क्यों नहीं दी गई. कीचड़ उछालने से पहले कम से कम गुलज़ार से एक बार पूछ लेते, उन्हें सर्वेश्वर दयाल की कविता से प्रेरित होने की बात स्वीकारने से गुरेज़ नहीं होती.
अगर ऐसा है तो फिर चल छैयां-छैयां के लिए बुल्ले शाह के साथ क्रेडिट बांटने की आवाज़ क्यों नहीं उठी या फिर दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन जिसका मुखडा ग़ालिब के मुद्दत हुई है यार को मेहमान किये हुए ग़ज़ल का एक शेर है. यह बात गुलज़ार ने छुपाई नहीं पर हिन्दुस्तानी रचनाओं में ग़ालिब के शब्दों में "अगले ज़माने के" कृतियों को आगे ले जाने की परम्परा है. उस हिसाब से "जय हो" शब्द हमारे लोक काव्यों से लेकर कई साहित्यिक रचनाओं में इस्तेमाल हुआ है, फिर गुलज़ार किस के साथ इस का ऑस्कर बांटें. कुंवर महेंद्र सिंह बेदी का उर्दू गज़ल की दुनिया में अपना रूतबा है पर उन्होंने फैज़ के काफिये को पकड़ पूरी गज़ल लिख दी और उस महान फैज़ ने भी ग़ालिब की ग़ज़लों में अपने मजमून ढूंढे. हज़रत मिर्ज़ा ताहिर अहमद साहिब ने थोमस मूर की कविता "द लाईट ऑफ अदर डेज़" का अनुवाद किया और वह अनुवाद "अक्सर शबे तन्हाई में" मूर की कविता से अलग और कई मायनों में बेहतर हो गया. अक्सर शबे तन्हाई में मिर्ज़ा की सृजनशीलता कस कस कर भरी है, आज पढ़ने वाले मूर की कविता को प्रेरणा भर मानते हैं. गुलज़ार फिल्मों में लिखने के कारण मारे गए. दर असल हमारी फिल्मवालों ने प्रेरणा के नाम पर इतनी चोरियां की हैं कि हमें यकीन नहीं होता कि काजल की कोठरी में किसी का कुर्ता सफ़ेद बचेगा. यकीन का मरना अच्छी बात नहीं है.
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1 comment:
हमारे ज्यादातर फिल्मों (खासकर हिंदी) में मौलिकता का नितांत अभाव देखा जाता है | कॉपी - पेस्ट का फंडा खूब पैसा दे रहा है | शायद आम जन को अब मौलिकता भाती ही नहीं है ... तभी तो मौलिक और अच्छी फ़िल्में चलती ही नहीं है जब तक की कोई साहरुख या आमिर या सलमान फिल्म से नहीं जुड़ता |
हिंदी फिल्मों में गन्दगी ही ज्यादा है पैर कीचड़ में गुलजार सामान कमल भी रहते हैं | कमल को भी कीचड़ समझने वालों पे तरस ही खाया जा सकता है |
बढ़िया पोस्ट !
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