Wednesday, August 11, 2010

Superbug and super-prejudice


पश्चिम का पूर्वाग्रह और एक जीवाणु  
मेडिकल रिसर्च की पत्रिका लैंसेट ने संक्रामक रोगों पर अपने हालिया विशेषांक में चेतावनी दी है कि एक ऐसा जीवाणु जिसे सुपरबग नाम दिया गया है, ब्रिटेन और अमेरिका में तेज़ी से फैल सकता है. इस सुपरबग या यूं कहें महाजीवाणु पर किसी एंटी-बायोटिक का असर नहीं होता. यानि इस से संक्रमित रोगी का इलाज बेहद मुश्किल हो सकता है. इस नई शोध की खबर से चिंता की लकीरें भारत में भी फैलेंगी क्योंकि शोध के अनुसार ये जीवाणु भारत से ही दूसरे देशों में गए हैं.शोधकर्ताओं का कहना है कि सस्ते इलाज के लिए पश्चिमी देशों के कई लोग भारत या पाकिस्तान जैसे देशों में जाकर इलाज करवाते हैं, जहाँ से वह ये सुपरबग लेकर घर लौट रहे हैं और पश्चिमी देशों में फैला रहे हैं. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में भारत के दो डॉक्टरों ने यह कहा कि भारत में चूँकि ड्रग नियंत्रण कमज़ोर है ओर एंटी-बायोटिक्स का दुरूपयोग स्व-चिकिस्ता में करते हैं तो ऐसा तो होना ही था. मतलब ये कि हमने भी इस रिपोर्ट को हाथों हाथ लिया है.
भारत को इसे आड़े हाथों लेना चाहिए. हमें इस शोध की शोध करना चाहिए और इसका सत्यापन करने के बाद ही सहयोग करना चाहिए. इसमें कोई बुराई नहीं कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में कमियों और उपमहाद्वीप के जीवाणुओं पर पूरी दुनिया रिसर्च करे. पर इस रिपोर्ट की इमानदारी पर शक होना भी अस्वाभाविक नहीं होगा. भारत में मेडिकल टूरिजम को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार ने नीतियां निर्धारित की हैं. हमारे डॉक्टर दुनिया के शीर्ष डॉक्टरों में आते हैं और हमारी मेडिकल शिक्षा को भी सम्मान की नज़र से देखा जाता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि पश्चिम के लोगों को भारत में इलाज करवाने से हतोत्साहित किया जा रहा हो? पश्चिम की मेडिकल लॉबी इस पर बहुत वक्त से काम कर रही है. लैंसेट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान पर ऊंगली उठाए बिना भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर हमारे विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए. कहीं यह हमारे बढ़ते मेडिकल पर्यटन पर चोट पहुँचाने की कोशिश तो नहीं. क्योंकि ये सुपरबग का पूरा मामला पहली नज़र में पूर्वाग्रह से ग्रसित लगता है.
यह बैक्टेरिया एक ऐसा एंजाइम पैदा करता है जो एक बिलकुल नया जीन है. यह एक जीवाणु की दवाओं से लड़ने की शक्ति बढ़ाता है. इस एंजाइम का नाम है एनडीएम-१. अब ज़रा इसके फुल फॉर्म पर नज़र डालिए. इसका पूरा नाम है न्यू डेल्ही मेटालो बीटा लैक्टमेस-१. जब भी इस जीवाणु की खोज हुई इसका नाम भारत की राजधानी पर क्यों रखा गया? अगर हम यह मान भी लें कि इसके रोगी भारत, पाकिस्तान या बंगलादेश होकर आए थे, तो भी एक जीवाणु का नाम नई दिल्ली के नाम पर क्यों? क्या कोई मेडिकल टर्म नहीं मिला? क्या इसे साउथ एशियन नहीं कहा जा सकता था? इसके नाम से ही पश्चिम के पूर्वाग्रह की बू आती है. और इसीलिए लैंसेट के इस रिपोर्ट को हमें हाथों हाथ नहीं, आड़े हाथों लेना चाहिए.        
ब्लैकबेरी या ब्लाकबेरी?
कनाडा की ब्लैकबेरी भारत समेत पूरी दुनिया के टॉप कॉर्पोरेट अधिकारियों के लिए कीमती गहने जैसा है. उसके बिना वह दिखें तो अपने आप को अधूरा महसूस करते हैं. ब्लैकबेरी मीन्स बिज़नेस. उसी ब्लैकबेरी पर काले बादल छाए हुए हैं. भारत सरकार का कहना है कि अगर ब्लैकबेरी सुरक्षा एजेंसियों को अपने सर्वर को छानने की छूट नहीं देता तो उसकी सेवाओं पर प्रतिबन्ध लग सकता है. ब्लैकबेरी अपने इमेल और इंस्टेंट मेसेजिंग के लिए जानी जाती है, जो सेवा अब हर दूसरे फोन में उपलब्ध है. पर ब्लैकबेरी में एक फर्क है. रिसर्च इन मोशन नाम की कनेडियन कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले इस फोन में ईमेल का भेजना या रिसीव करना ब्लैकबेरी सर्वर से होकर है. जो कनाडा में है. फोन से इंस्टंट मैसेज या इमेल जब निकलता है तो वह कोडेड होता है और उसका इनक्रिप्शन बहुत उच्च कोटि का है. वह बीच में कहीं इंटरसेप्ट हो भी जाए तो उसे डिकोड करना मुश्किल है. भारत सरकार का कहना है कि आतंकवादी इसका उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में कर सकते हैं. रिसर्च इन मोशन का कहना है वह डिकोड करने की इजाजत नहीं दे सकता, क्योंकि इस से उसके कॉर्पोरेट उपभोक्ताओं कि प्रायवेसी भंग होती है.
पर उसका ये उपभोक्ता प्रेम सिर्फ भारत के मामले में ही क्यों जागता है, यह ब्लैकबेरी के अफसरान नहीं बता रहे. अमेरिका को एक्सेस देने में उन्हें यह याद नहीं आया, चीन ने कान मरोड़ी तो तुरंत सर्वर चीन में लगा दिया, सउदी अरब को भी इंस्टंट मैसेज को डिकोड करने की सुविधा दे दी. अपने देश कनाडा में तो ये सुविधाएं सरकार को दे ही दीं. भारत कोई बनाना रिपब्लिक तो है नहीं जो अपने सारी कॉर्पोरेट कंपनियों के हर ईमेल को छाने. हम एक लोकतान्त्रिक देश हैं और हमारे यहाँ व्यवसाय करने के लिए हमारे कानूनों की परिधि में काम करना होगा. जब आईफोन, एंड्रोइड और सिम्बियन जैसे लोकप्रिय प्लेटफोर्म पर फोन बनाने वाली कंपनियों ने सुरक्षा के मुद्दों पर भारत के कानून के दायरे में काम करना स्वीकार किया है तो ब्लैकबेरी क्यों नहीं? वैसे भी यहाँ की कंपनियों के सारे इमेल ब्लैकबेरी से ही नहीं चलते, सबके अपने सर्वर हैं. भारत के साथ अकड़ और अमेरिका के साथ लचर, ये कौन सी प्रायवेसी है?

राव के सर ठीकरा
जब भोपाल गैस कांड हुआ था तब अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री थे और नरसिम्हा राव गृह मंत्री. तब यूनियन कार्बाइड के मुखिया और कांड के मुख्य अभियुक्त एंडरसन को भारत से सहर्ष विदाई देने में अर्जुन सिंह ने मुख्य भूमिका निभाई थी. बीस हज़ार लोगों की जान गई और आज भी एंडरसन अमेरिका में खुले आम घूम रहा है. बहरहाल जब न्याय आया तो देश में अन्याय की चीख उठी. अर्जुन सिंह नहीं बोले. कल बोले तो उन्होंने सारा दोष राव पर मढ़ा. राजीव और राव दोनों इस दुनिया में नहीं हैं, उनके आरोपों का जवाब देने के लिए. अर्जुन सिंह ने राव को चुना क्योंकि राव का परिवार उनको और उनके परिवार को राजनीतिक नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं है. राजीव गाँधी का नाम लेते तो कोई अर्जुन का नामलेवा नहीं रहता.    

बड़े बेआबरू
कलमाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में गले तक धंसे हैं पर अभी भी तने बैठे हैं. उनके सिपहसालार टी.एस. दरबारी बर्खास्त हो चुके हैं और अब जो कुछ खुलासे कर रहे हैं उस से कलमाडी की जान सांसत में है. दोस्त दोस्त ना रहा... ये गाना राग दरबारी में नहीं है पर कलमाड़ी को तो ऐसा ही लग रहा होगा. और कलमाडी की राग जयजयवंती अब ज्यादा देर तक कोई सुनेगा नहीं. इस कूचे से निकालना तो है ही, पर उन्होंने ठान राखी है कि बेआबरू हो कर ही निकलेंगे.