पार्टी चुनाव लड़ रही है, जिसके घोषणापत्र ने सनसनी सी फैला दी थी. टीवी
के चिंतकों से लेकर व्यक्तिगत बैठकों तक लोगों ने छीछालेदर किया जैसे
घोषणापत्र नहीं शपथपत्र हो कोई. गांधीजी के देश में सत्य का मखौल उड़ा. इस
लेखक को अगर इस बरस के घोषणापत्रों में कोई जँचा तो वह सिर्फ समाजवादी
पार्टी का ही. हमारे राजनितिक विश्लेषकों और प्रगतिशील चिंतकों को भले
पसंद ना आया हो. जिन कारणों से उन्हें सपा का मेनीफेस्टो नहीं भाया, ठीक
उन्हीं कारणों से मुझे भी फूटी आँख ना सुहाया. पर सच बोलने का नंबर तो
मिलना चाहिए, इसीलिए मेरी तरफ से मुलायम सिंह और अमर सिंह को बहुत बधाई.
गांधीवादी विचारों के लिए नहीं, बल्कि गाँधी जैसी सत्यवादिता के लिए. आज
जो वोटर अपने लोकतंत्र के मशीन का बटन दबा रहा होगा उत्तर प्रदेश में उसे
कम से कम यह तो मालुम है कि कौन सी पार्टी उसे फुसला नहीं रही. इक्कीसवीं
सदी के हसीं सपने दिखाने कर सोलहवीं सदी की तरफ हमें बहुत लोग ले गए, सपा
पहली पार्टी है जो सोलहवीं सदी का सपना दिखाकर हमें सोलहवीं सदी में ले
जा रही है. गर्त में जाना तो हर हाल में है पर अगर मालूम हो तो आदमी
तैयार तो रहे.
अब कांग्रेस के मुखपत्र को ले लें. सारे सुनहरे सपने हैं पेट और रोजगार
के. पर यह अगर वह कर सकते थे तो पिछले पांच सालों में लाखों पेट पीठ एक
नहीं होते. लेफ्ट की लकुटिया खिसकी तो सपा के अमर ने टेक देकर कार्यकाल
पूरा करवा ही दिया. कार्य पूरा नहीं कर पाए सो पांच साल और मांग रहे हैं.
जब जंग में कूदे तो सपा भी साथ नहीं और उनके प्यारे लालू और पासवान भी
बिदक लिए. जब साथियों को भरोसा नहीं रहा तो दुश्मनों का क्या भरोसा. और
मुद्दे वही हैं इस चुनाव के भी. खाद्यान्न सुरक्षा और रोजगार की रक्षा.
बिजली, पानी और सड़क तो अब भी वादे हैं. साठ साल पुराने लोकतंत्र में अगर
अब भी इसका वादा किया जा रहा है तो शर्म की बात है. पर उन को आती नहीं
जिन पर आस टिकी है.
भाजपा के मुखपत्र में राम, बगल में छुरी. इस बार तो कमाल ये हुआ कि दूसरे
गाँधी वरुण मुंह में छुरी रखे हमारे संविधान को मुंह चिढाने लगे. माता
मनेका अपने पुत्र प्रेम में भूल गयी कि हाथ पैर काटने का न्याय अगर होता
तो चुनाव लड़ने की ज़रुरत क्या थी. अभी हम स्वात तो भये नहीं, पीलीभीत को
पीलीभीत ही रहने दो. पर इस बार चुनाव में हर मर्यादा लांघना जैसे
प्रतियोगिता का हिस्सा है. मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हो अगर तो फिर
क्या कहना. इरादे नेक नहीं भी हों, पर साफ़ तो होने चाहिए. पांच साल के
लिए अकेले भाजपा की सरकार बनने से रही पर मंदिर का टोकन चस्पां कर ही
दिया अपने घोषणापत्र में. आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, धारा 370 और मंदिर वहीं
बनायेंगे का नारा पुराना हो गया है पर झूठ आसान होता है सो उन्होंने
सुचना तकनीक की क्रांति लाने का वादा कर दिया. अब हर गोद में होगा
लैपटॉप. दो रुपये में मिलेगा चावल और सब को रंगीन टीवी फ्री. किसानों की
बिजली माफ़ आदि आदि. मसला यह है कि इन में से कोई भी मुद्दा नहीं है और
अगर करेंगे भी तो कहाँ से करेंगे, इसकी चर्चा नहीं. वादे हैं वादों का
क्या. आपको कर्णाटक जैसे राज्य में पहली बार पूरा बहुमत दे दिया और आपने
बहू-बेटियों पर एक श्री राम सेना छोड़ दी. सोलहवीं शताब्दी तक ले जाने का
काम और इक्कीसवीं शताब्दी के नेत्रित्व की कल्पना.
हमारे वामपंथी इस बात के लिए जाने जाते थे कि अपने पंथ के लिए वह देश के
खिलाफ भी जा सकते हैं. पर इस बात का सुकून तो था ही कि ये कम से कम
सिद्धांतों पर तो अटल थे. अब कागजी हो गए हैं इनके भी सिद्धांत. जात और
धर्म आधारित राजनीति से कभी बिलकुल परे रहने वाले कोमुनिस्ट आज चुपके
चुपके अपना धर्म छोड़ यहाँ वहाँ मुंह मारते दिखेंगे. कभी सिर्फ
साम्प्रदायिक बीजेपी को सत्ता से अलग रखने के लिए दुश्मनों तक से हाथ
मिलाने वाले केरल में साम्प्रदायिक मदनी के कुरते में कब घुस गए पता ही
नहीं चला. धुर जातिवादी मायावती से करार किया और अपने वर्ग-संघर्ष की
लडाई से किनारा.
इन सब के घोषणापत्र देखिये या झूठ का पुलिंदा, फर्क नहीं. आखिर
समाजवादी पार्टी ने कम से कम यह तो स्वीकार किया कि उनके नेता भले अपने
बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजें पर आम आदमी के बच्चों के लिए
अंग्रेजी सीखना ज़रूरी नहीं होगा. आखिर आम और खास में फर्क तो रहे. हमारे
नेताजी के पुत्र भले लैपटॉप पर इस घोषणापत्र को अंतिम रूप दे रहे हों पर
आम आदमी के लिए कंप्यूटर, ना बाबा ना. और ट्रक्टर जैसे मशीन तो बड़े
ज़मींदार किसानों कि बपौती है, उसे आम किसानों से दूर ही रखेंगे. मजदूर
हो मजदूर की तरह रहो, हाथ से मैला उठाने वाले मशीन के सपने ना देखें. हम
ने इस देश में आम आदमी को स्कूटर के लिए लाइन लगाते देखा है, क्यूँ नहीं
जा सकते वापस उसी वक़्त में. गैंडे की भी खाल मोटी होती है पर बेचारे को
पॉलिटिक्स में इंटेरेस्ट नहीं. बाकी जिस जानवर की खाल मोटी हो और जुबान
खोटी, मैदान खुला है आ जाओ. लोकतंत्र के आईने में निहारिये अपनी सूरत,
सीरत जाए तेल लेने. बस सपा ने अपनी सीरत दिखाई, भद्दी सही पर हिम्मत की
दाद दरकार है. बाकी हैं तो सभी एक जैसे, क्यूंकि झूठ की इन्तेहा नहीं
होती. बकौल कृष्ण बिहारी नूर,
सच घटे या बढे तो सच ना रहे, झूठ की कोई इन्तेहा ही नहीं;
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में, आईना झूठ बोलता ही नहीं!!
2 comments:
Truth meets eloquence... the best narrative of India's pre-poll tragedy... If insight and language can spawn hope, you did it in just a few hundred words
देखिये जब तक अच्छे लोग राजनीति से जी चुराते रहेंगे, तब तक ये गंदे लोगों का अखाड़ा ही बना रहेगा| और आज के भारतीय मीडिया का तो क्या कहना? राजनीति से तो ज्यादा गंदगी मीडिया में आ गई है|
* मीडिया वाले एक जिंदा आदमी को आत्महत्या के लिए उक्साते हैं और जलते हुए आदमी का फोटो निकालने में खुस होते है|
* आज्-कल मीडिया वाले कितनी बार सही चीजोंको सही तरीके से दिखाते है? संजय पुगलिआ जैसे एकाध लोगों को छोड़ दिया जाए तो सायद ही कोई टी.वी. पत्रकार/एंकर मिलेगा जो किसी का अच्छा इंटरव्यू ले सके| सभी को बस सेंसेसनल न्यूज़ चहिये, गुणवत्ता से कोई लेना देना नही| सिर्फ़ खबरें दे कर अपनी टी.आर्.पी. रेटिंग बनाए रखनी है| और विचार की नाम पर बस हद ही कर देते है|
* भले ही अमरनाथ आंदोलन एक सच्चा अधिकार के लिए लडी गई हो, आज की मीडिया ने इसको सम्प्रदयिक रंग देने में कोई कोर-कसर नहिन् छोडी|
* कश्मीर में पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों मन्दिर तोड़े गए, मीडिया में कोई ख़बर नहि, क्यो? क्योंकि यदि ये दिखयेंगे तो कहीं उस न्यूज़ चैनल पर बी.जे.पी., हिंदुवादी होने का लेवेल ना लगा दे| अब भला मीडिया यदि इस तरह की सच्चाई से भागता रहे तो ये लोकतंत्र का एक स्तंभ नहि बस दंभ बन कर राह गया है या नहि?
* सभी को पता है की यदि यी भोगवादी इसी रफ्तार से प्रकृति का दोहन करते रहे तो आने वाली पीढ़ी वीनास के कगार पे खड़ी होगी, फिर भी देखिये मीडिया वाले प्रतिदिन भोग्वदी का ऐसा माहिमा मंडन करते हैं की आम आदमी को लगता है की यदि हम भोग्वदिनहिन् हैं तो हमारा जीवन ही सफल नहि है|
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