Thursday, October 14, 2010
Wednesday, August 11, 2010
Superbug and super-prejudice
पश्चिम का पूर्वाग्रह और एक जीवाणु
मेडिकल रिसर्च की पत्रिका लैंसेट ने संक्रामक रोगों पर अपने हालिया विशेषांक में चेतावनी दी है कि एक ऐसा जीवाणु जिसे सुपरबग नाम दिया गया है, ब्रिटेन और अमेरिका में तेज़ी से फैल सकता है. इस सुपरबग या यूं कहें महाजीवाणु पर किसी एंटी-बायोटिक का असर नहीं होता. यानि इस से संक्रमित रोगी का इलाज बेहद मुश्किल हो सकता है. इस नई शोध की खबर से चिंता की लकीरें भारत में भी फैलेंगी क्योंकि शोध के अनुसार ये जीवाणु भारत से ही दूसरे देशों में गए हैं.शोधकर्ताओं का कहना है कि सस्ते इलाज के लिए पश्चिमी देशों के कई लोग भारत या पाकिस्तान जैसे देशों में जाकर इलाज करवाते हैं, जहाँ से वह ये सुपरबग लेकर घर लौट रहे हैं और पश्चिमी देशों में फैला रहे हैं. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में भारत के दो डॉक्टरों ने यह कहा कि भारत में चूँकि ड्रग नियंत्रण कमज़ोर है ओर एंटी-बायोटिक्स का दुरूपयोग स्व-चिकिस्ता में करते हैं तो ऐसा तो होना ही था. मतलब ये कि हमने भी इस रिपोर्ट को हाथों हाथ लिया है.
भारत को इसे आड़े हाथों लेना चाहिए. हमें इस शोध की शोध करना चाहिए और इसका सत्यापन करने के बाद ही सहयोग करना चाहिए. इसमें कोई बुराई नहीं कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में कमियों और उपमहाद्वीप के जीवाणुओं पर पूरी दुनिया रिसर्च करे. पर इस रिपोर्ट की इमानदारी पर शक होना भी अस्वाभाविक नहीं होगा. भारत में मेडिकल टूरिजम को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार ने नीतियां निर्धारित की हैं. हमारे डॉक्टर दुनिया के शीर्ष डॉक्टरों में आते हैं और हमारी मेडिकल शिक्षा को भी सम्मान की नज़र से देखा जाता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि पश्चिम के लोगों को भारत में इलाज करवाने से हतोत्साहित किया जा रहा हो? पश्चिम की मेडिकल लॉबी इस पर बहुत वक्त से काम कर रही है. लैंसेट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान पर ऊंगली उठाए बिना भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर हमारे विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए. कहीं यह हमारे बढ़ते मेडिकल पर्यटन पर चोट पहुँचाने की कोशिश तो नहीं. क्योंकि ये सुपरबग का पूरा मामला पहली नज़र में पूर्वाग्रह से ग्रसित लगता है.
यह बैक्टेरिया एक ऐसा एंजाइम पैदा करता है जो एक बिलकुल नया जीन है. यह एक जीवाणु की दवाओं से लड़ने की शक्ति बढ़ाता है. इस एंजाइम का नाम है एनडीएम-१. अब ज़रा इसके फुल फॉर्म पर नज़र डालिए. इसका पूरा नाम है न्यू डेल्ही मेटालो बीटा लैक्टमेस-१. जब भी इस जीवाणु की खोज हुई इसका नाम भारत की राजधानी पर क्यों रखा गया? अगर हम यह मान भी लें कि इसके रोगी भारत, पाकिस्तान या बंगलादेश होकर आए थे, तो भी एक जीवाणु का नाम नई दिल्ली के नाम पर क्यों? क्या कोई मेडिकल टर्म नहीं मिला? क्या इसे साउथ एशियन नहीं कहा जा सकता था? इसके नाम से ही पश्चिम के पूर्वाग्रह की बू आती है. और इसीलिए लैंसेट के इस रिपोर्ट को हमें हाथों हाथ नहीं, आड़े हाथों लेना चाहिए.
ब्लैकबेरी या ब्लाकबेरी?
कनाडा की ब्लैकबेरी भारत समेत पूरी दुनिया के टॉप कॉर्पोरेट अधिकारियों के लिए कीमती गहने जैसा है. उसके बिना वह दिखें तो अपने आप को अधूरा महसूस करते हैं. ब्लैकबेरी मीन्स बिज़नेस. उसी ब्लैकबेरी पर काले बादल छाए हुए हैं. भारत सरकार का कहना है कि अगर ब्लैकबेरी सुरक्षा एजेंसियों को अपने सर्वर को छानने की छूट नहीं देता तो उसकी सेवाओं पर प्रतिबन्ध लग सकता है. ब्लैकबेरी अपने इमेल और इंस्टेंट मेसेजिंग के लिए जानी जाती है, जो सेवा अब हर दूसरे फोन में उपलब्ध है. पर ब्लैकबेरी में एक फर्क है. रिसर्च इन मोशन नाम की कनेडियन कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले इस फोन में ईमेल का भेजना या रिसीव करना ब्लैकबेरी सर्वर से होकर है. जो कनाडा में है. फोन से इंस्टंट मैसेज या इमेल जब निकलता है तो वह कोडेड होता है और उसका इनक्रिप्शन बहुत उच्च कोटि का है. वह बीच में कहीं इंटरसेप्ट हो भी जाए तो उसे डिकोड करना मुश्किल है. भारत सरकार का कहना है कि आतंकवादी इसका उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में कर सकते हैं. रिसर्च इन मोशन का कहना है वह डिकोड करने की इजाजत नहीं दे सकता, क्योंकि इस से उसके कॉर्पोरेट उपभोक्ताओं कि प्रायवेसी भंग होती है.
पर उसका ये उपभोक्ता प्रेम सिर्फ भारत के मामले में ही क्यों जागता है, यह ब्लैकबेरी के अफसरान नहीं बता रहे. अमेरिका को एक्सेस देने में उन्हें यह याद नहीं आया, चीन ने कान मरोड़ी तो तुरंत सर्वर चीन में लगा दिया, सउदी अरब को भी इंस्टंट मैसेज को डिकोड करने की सुविधा दे दी. अपने देश कनाडा में तो ये सुविधाएं सरकार को दे ही दीं. भारत कोई बनाना रिपब्लिक तो है नहीं जो अपने सारी कॉर्पोरेट कंपनियों के हर ईमेल को छाने. हम एक लोकतान्त्रिक देश हैं और हमारे यहाँ व्यवसाय करने के लिए हमारे कानूनों की परिधि में काम करना होगा. जब आईफोन, एंड्रोइड और सिम्बियन जैसे लोकप्रिय प्लेटफोर्म पर फोन बनाने वाली कंपनियों ने सुरक्षा के मुद्दों पर भारत के कानून के दायरे में काम करना स्वीकार किया है तो ब्लैकबेरी क्यों नहीं? वैसे भी यहाँ की कंपनियों के सारे इमेल ब्लैकबेरी से ही नहीं चलते, सबके अपने सर्वर हैं. भारत के साथ अकड़ और अमेरिका के साथ लचर, ये कौन सी प्रायवेसी है?
राव के सर ठीकरा
जब भोपाल गैस कांड हुआ था तब अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री थे और नरसिम्हा राव गृह मंत्री. तब यूनियन कार्बाइड के मुखिया और कांड के मुख्य अभियुक्त एंडरसन को भारत से सहर्ष विदाई देने में अर्जुन सिंह ने मुख्य भूमिका निभाई थी. बीस हज़ार लोगों की जान गई और आज भी एंडरसन अमेरिका में खुले आम घूम रहा है. बहरहाल जब न्याय आया तो देश में अन्याय की चीख उठी. अर्जुन सिंह नहीं बोले. कल बोले तो उन्होंने सारा दोष राव पर मढ़ा. राजीव और राव दोनों इस दुनिया में नहीं हैं, उनके आरोपों का जवाब देने के लिए. अर्जुन सिंह ने राव को चुना क्योंकि राव का परिवार उनको और उनके परिवार को राजनीतिक नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं है. राजीव गाँधी का नाम लेते तो कोई अर्जुन का नामलेवा नहीं रहता.
बड़े बेआबरू
कलमाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में गले तक धंसे हैं पर अभी भी तने बैठे हैं. उनके सिपहसालार टी.एस. दरबारी बर्खास्त हो चुके हैं और अब जो कुछ खुलासे कर रहे हैं उस से कलमाडी की जान सांसत में है. दोस्त दोस्त ना रहा... ये गाना राग दरबारी में नहीं है पर कलमाड़ी को तो ऐसा ही लग रहा होगा. और कलमाडी की राग जयजयवंती अब ज्यादा देर तक कोई सुनेगा नहीं. इस कूचे से निकालना तो है ही, पर उन्होंने ठान राखी है कि बेआबरू हो कर ही निकलेंगे.
Tuesday, May 25, 2010
खाप का पाप: Sins of the Khap and uber-urban modesty ablaze
Friday, April 23, 2010
हसीना का पसीना और पॉकेटमारों की चाल
हमारे देश के मेले मजमों में, बड़े शहरों के बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर उचक्के-उठाईगीर गैंग बना कर काम करते हैं और अगर कोई पकड़ा जाए तो उसको छुड़ाने का भी उनका अपना देसी तरीका होता है. अगर किसी की जेब तराशते कोई धरा गया और गैरमजरुआ धुनाई की संभावनाएं प्रबल हो गईं तो उसके साथी उसको बचाने के लिए उसी पर पिल पड़ते हैं. उसे तमाचे रसीद करते हैं और कान पकड़ कर ये कहते खींचते चलते हैं कि चलो पुलिस थाने में तेरी मरम्मत करवाता हूँ. उसके शिकार और पब्लिक धुनाई में भागीदार हाथ मलते खुश होते हैं कि चोर पुलिस के हत्थे चढ़ गया. उनको भनक तक नहीं लगती कि मौसेरे भाई उसे बचा ले गए. कुछ माँ बाप भी ऐसा करते देखे जाते हैं अगर लाडला किसी गैर घर का शीशा तोड़ते पकड़ा जाए. वे हलके हाथों से अपने बच्चे को खुद मारना पसंद करते हैं ताकि पड़ोसी की बुरी नज़र और निर्मम हाथ उस पर ना पड़ें.
Thursday, February 04, 2010
Tigers do, dogs do ... Mumbai micturated
Uddhav Thackeray says Rahul Gandhi must retract his statement about Mumbai belonging to all Indians, else he would not be allowed into Mumbai in future, clearly marking his territory.
In jungles, tigers are known to mark their territory by leaving their smell by excreting or . In , dogs can be seen lifting a hind leg against walls, car tyres and electic poles to do the same. Laws of the jungle, you know! Thackerays do not go out of Mumbai, not even to parts of Maharashtra. They remain inside their Dadar stronghold and bark at folks living in Bandra. They beat up Biharis and UP wallas. I hardly remember Bal Thackeray travelling to any other part of India. If my memory serves me right, he has visited Delhi only once in past many years. And we are told the world is small place. That we live in a freaking global village. In a country where boundaries have disappeared because of needs of economy and better means of travel, a family is redrawing boundaries. And we need their permission!
The Congress in its zeal to see the Sena divided allows both the young Thackerays to fight and prove who can do maximum damage to Maximum City. It's a turf war between two cousins that may cost India its founding principles. The basic idea of India is that people who speak different languages can live together in harmony. That unity in diversity is under attack by two cousins and we can do nothing about it. It's not Congress's shame. It must ashame all of us.
That a bunch of hoodlums can slur Shah Rukh Khan because he, a Muslim, dared inviting Pakistani players is a national shame. That a political party with an increasingly minor following can bar citizens from other parts of the country from seeking in employment in Mumbai must reflect upon all of us. That a family decides which feature film can be shown in theatres has been a burden that we all must bear.
We keep blasting Australia for racist attacks on Indians Down Under. We have no blasted ability to stop the same right here, on our soil. The attacks are not on Shah Rukh Khan or so-called north Indians. It's an attack on India and is potentially far more dangerous that the non-state actors from Pakistan inflict upon us. Pakistani terrorists kill Indians, Thackerays try to kill India, the very idea of India.
Wednesday, February 03, 2010
तालिबान से सौदा उलटा पड़ेगा
अफगानिस्तान में खूनी संघर्ष से निकलने की ख्वाहिश बराक ओबामा पर हावी होती जा रही है. उन्होंने वहां से अमेरिकी फौज वापस बुलाने की तारीख भी तय कर दी है पर युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ. तालिबान और ओसामा बिन लादेन का अल काईदा नेटवर्क अभी भी ज़िंदा और खतरनाक हैं. पर अपनी जनता को किये गए वादे के चक्कर में अमेरिका अफगानिस्तान की जनता की फ़िक्र छोड़ रहा है. पिछले हफ्ते लन्दन में हुए अफगानिस्तान कांफेरेंस में यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित भले तालिबान से बातचीत शुरू की जायेगी और शांति नहीं तो समझौते का भ्रम पैदा कर अमेरिका और ब्रिटेन अफगान पचड़े से हाथ खींच लेंगे. अफगानिस्तान का भारत के हितों से सीधा राब्ता है और अब भारत पर दबाव है कि उन हितों की अनदेखी कर वह पश्चिमी ताकतों के साथ हो ले. दबाव किस कदर होगा इस का अंदाजा इस बात से हो जाता है कि विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा से यह उगलवा लिया गया कि भारत "भले" तालिबान से बातचीत के पक्ष में है. उस भले तालिबान का चरित्र कैसा होगा इस का अंदाजा उसमें शामिल मुल्ला मुत्तवकील भी हैं जिन्होंने कंधार विमान अपहरण कांड में भूमिका निभाई थी. तब तालिबान-शासित अफगानिस्तान में मंत्री थे और ऊपरी तौर पर भारत और अपहरणकर्ताओं के बीच मध्यस्थता कर रहे थे. पर सारे राज़ खुले तो पता चला वह और उनका पूरा तालिबानी तंत्र आतंकियों से मिला हुआ था. उस तालिबान से बात करने का मतलब यह है कि उन्हें काबुल की सत्ता में साझेदारी देना, जो भारत के हित में कतई नहीं है. दूसरी बात तालिबान के बहाने पाकिस्तान और आईएसआई फिर से काबुल पर अपना नियंत्रण बना लेंगे ताकि सारी ऊर्जा भारत को रक्तरंजित करने में लगाई जा सके. यह जग जाहिर है कि अफगानिस्तान की ज़्यादातर जनता भारत को अपना मित्र मानती है और पाकिस्तान को अफगानिस्तान की आतंरिक मामलों में दखल देने वाला पड़ोसी.
अमेरिका की योजना में तथाकथित "भले" तालिबान को पैसे दे कर अपनी तरफ करना भी है. यह सौदा अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के उन शहीदों का अपमान है जिन्होंने तालिबान से लड़ने में अपने प्राण त्याग दिए. यह उन हज़ारों अफगान नागरिकों के मुंह पर तमाचा है जिन्होंने तालिबान के खिलाफ जंग में अपना सब कुछ गँवा दिया. यह भारत की पीठ में भी छुरा है जिसने अफगानिस्तान में आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में अपने नागरिकों की बलि दी और करोड़ों डॉलर खर्च किये. पाकिस्तान ने इस युद्ध में पैसा कमाया है और वह इस का अंत काबुल में इस्लामाबाद का एक पिट्ठू बिठाना चाहता है. ओबामा ने जो पासा फेंका है वह अमेरिका के लिए उलटा पड़े ना पड़े भारत के लिए उलटा ही पडेगा. भारत को तालिबान से बातचीत या सौदा कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए और अमेरिका को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह अपने स्वार्थों के लिए भारत के हितों को दरकिनार नहीं कर सकता. सत्ता में साझेदारी तालिबान को और मजबूत करेगी, जो ना अमेरिका के हित में है ना भारत के. यह अल काईदा और पाकिस्तानी आईएसआई के हित में है.
Monday, February 01, 2010
आज तक कोई भी रहा ही नहीं
If we accuse Gulzar of plagiarism for “Ibn-e-Batuta” then he is never been original. The hugely popular Kar thaiya thaiya is by Bulle Shah. The opening lines of “Dil dhoondhta hai phir wahi fursat ke raat din” is lifted in its entirety from a ghazal by Ghalib titled “Muddat huii hai yaar ko mehmaan kiye hue”. Yet I would recognize it as a Gulzar song and it will remain a Gulzar song. Because he has written it. Period. In fact, Ghalib’s kaafiyaa has been used by poets from Faiz to Gulzar as they weave their own words around the great man’s words to create poetry that resonates with original thought and déjà vu. This is a tradition in Hindustani poetry that goes back to the origins of Hindustani poetry.
And most readers understand the obvious yet subtle tributes. They are never called a tribute to X or Y. I am reminded of many films where great filmmakers pay tributes to past masters or people they admired by designing a scene around a memorable scene from the past. They don’t subtitle it as this scene is a tribute to X. They expect the viewer to understand and rejoice in it.
No one went to Gulzar and asked him before throwing dirt at him. He would have told them of tens of his own work lifted from popular folk or poetry of the great masters. That’s one of the problems with journalism today, an industry I am part of. But it goes beyond this. Ahmed Faraz wrote a heart-breaking nazm about sectarian violence in Pakistan titled Ae mere Logo. Now, we had a patriotic song called Ae mere watan ke logo, immortalized by Lata. Should Faraz credit the songwriter because three words are common? Both these works are entirely different in their treatment and purpose. My answer is no. In Ibn-e-batuta case, it’s so obviously a tribute to Saxena’s poem for kids. By that logic, Jai Ho is too similar to Jai he by Ravindranath Tagore. And the Lage Raho Munnabhai song "Bande mein tha dum" should be attributed to Bankim Chandra Chatterjee for the words Vande Mataram. And "Chal Akela Chal Akela" by Mukesh was a Tagore song.
Pity, Gulzar writes for films where too many thieves masquerade as originals. It is easier to cast aspersions on Bollywood because there are too many phonies inhabiting that world. Gulzar is a misfit and his white kurta is tainted because of this association. Piyush Mishra played around the Jinhein naaz hai Hind par wo kahan hain in Gulaal to perfection. It was an original. But then with people in mood to attack Gulzar for Ibn-e-Batuta, he should hide.
Gulzar ko to bakhsh do
अगर ऐसा है तो फिर चल छैयां-छैयां के लिए बुल्ले शाह के साथ क्रेडिट बांटने की आवाज़ क्यों नहीं उठी या फिर दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन जिसका मुखडा ग़ालिब के मुद्दत हुई है यार को मेहमान किये हुए ग़ज़ल का एक शेर है. यह बात गुलज़ार ने छुपाई नहीं पर हिन्दुस्तानी रचनाओं में ग़ालिब के शब्दों में "अगले ज़माने के" कृतियों को आगे ले जाने की परम्परा है. उस हिसाब से "जय हो" शब्द हमारे लोक काव्यों से लेकर कई साहित्यिक रचनाओं में इस्तेमाल हुआ है, फिर गुलज़ार किस के साथ इस का ऑस्कर बांटें. कुंवर महेंद्र सिंह बेदी का उर्दू गज़ल की दुनिया में अपना रूतबा है पर उन्होंने फैज़ के काफिये को पकड़ पूरी गज़ल लिख दी और उस महान फैज़ ने भी ग़ालिब की ग़ज़लों में अपने मजमून ढूंढे. हज़रत मिर्ज़ा ताहिर अहमद साहिब ने थोमस मूर की कविता "द लाईट ऑफ अदर डेज़" का अनुवाद किया और वह अनुवाद "अक्सर शबे तन्हाई में" मूर की कविता से अलग और कई मायनों में बेहतर हो गया. अक्सर शबे तन्हाई में मिर्ज़ा की सृजनशीलता कस कस कर भरी है, आज पढ़ने वाले मूर की कविता को प्रेरणा भर मानते हैं. गुलज़ार फिल्मों में लिखने के कारण मारे गए. दर असल हमारी फिल्मवालों ने प्रेरणा के नाम पर इतनी चोरियां की हैं कि हमें यकीन नहीं होता कि काजल की कोठरी में किसी का कुर्ता सफ़ेद बचेगा. यकीन का मरना अच्छी बात नहीं है.
Monday, January 25, 2010
Rock is On! Hail Arjun.
You are jealous. Especially those of you who are actors. But now acting is not actor's only territory. In a democracy like ours, everyone has the right to act and win a national award. You hate Arjun because he did it. You laugh at him because you know he cannot laugh or cry on screen. He is a method actor, only you don't know the method. His family is family friends with the Khans who are family friends of first family of the country. The first family controls the government that runs the nation. It's family first in the first family. Well, well, you can now link it all and make baseless allegations and indulge in gossip.