वो रात नहीं थी भैया
जिस रात को कांपा था ये शहर
जब गलियों में बरपा था कहर
छुप छुप के शाम के परदे में
रावण आया था अपने घर
दस दस सर थे और दस दस धड़
बंदूक के नालों की तड तड
मजलूमों की वो थर थर थर
खूं से लथपथ था मेरा शहर
वो रात नहीं थी भैया
लहरों पर लहरा लहरा कर
दहशत ने नापा एक सागर
फिर चार दिशाओं में बँट कर
शैतानी हुई इन्सां की नज़र
वो रात नहीं थी भैया
जब वीटी पर कोहराम हुआ
इक कैफे में कत्ले आम हुआ
जब ताज का मर्मर लाल हुआ
बू-ए-बारूद हर गाम हुआ
वो रात नहीं थी भैया
जो आये थे वो आदमी थे
जो मारे गए वो आदमी थे
कहने को तो सब आदमी हैं
कहने को तो बस इक रात थी वो
वो रात नहीं थी भैया
शैतान का सूरज निकला था
इन्सां की रात जलाने को
अब बंद करो अपने झगडे
हम सब को याद दिलाने को
वो रात नहीं थी भैया
इश्वर, अल्लाह, सबके दाता
उस आदम की औलादों को
इक नए नाग ने काटा है
इस ज़हर से तेरी दुनिया को
अब तू ही बचा अपने बच्चे
अपने बच्चों से मेरे खुदा
वो रात नहीं थी या दाता
वो रात नहीं थी ओ भगवन
वो रात नहीं थी या अल्लाह
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5 comments:
अब तू ही बचा अपने बच्चे
अपने बच्चों से मेरे खुदा
वाह भाई वाह |
जिन्होंने दंगों की त्रासदी झेली है, ये कविता उनकी याद में आंसू बहाने के लिए मजबूर कर देती है। आपकी संवेदनशीलता को सलाम।
बहुत खूब आपका ज़वाब नही
Excellent. lovely. -P.
veryyy touchingg!!
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