Tuesday, August 25, 2009

वो रात नहीं थी भैया

वो रात नहीं थी भैया

जिस रात को कांपा था ये शहर
जब गलियों में बरपा था कहर
छुप छुप के शाम के परदे में
रावण आया था अपने घर

दस दस सर थे और दस दस धड़
बंदूक के नालों की तड तड
मजलूमों की वो थर थर थर
खूं से लथपथ था मेरा शहर

वो रात नहीं थी भैया

लहरों पर लहरा लहरा कर
दहशत ने नापा एक सागर
फिर चार दिशाओं में बँट कर
शैतानी हुई इन्सां की नज़र

वो रात नहीं थी भैया

जब वीटी पर कोहराम हुआ
इक कैफे में कत्ले आम हुआ
जब ताज का मर्मर लाल हुआ
बू-ए-बारूद हर गाम हुआ

वो रात नहीं थी भैया

जो आये थे वो आदमी थे
जो मारे गए वो आदमी थे
कहने को तो सब आदमी हैं
कहने को तो बस इक रात थी वो

वो रात नहीं थी भैया

शैतान का सूरज निकला था
इन्सां की रात जलाने को
अब बंद करो अपने झगडे
हम सब को याद दिलाने को

वो रात नहीं थी भैया


इश्वर, अल्लाह, सबके दाता
उस आदम की औलादों को
इक नए नाग ने काटा है
इस ज़हर से तेरी दुनिया को
अब तू ही बचा अपने बच्चे
अपने बच्चों से मेरे खुदा

वो रात नहीं थी या दाता
वो रात नहीं थी ओ भगवन
वो रात नहीं थी या अल्लाह

5 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

अब तू ही बचा अपने बच्चे
अपने बच्चों से मेरे खुदा

वाह भाई वाह |

जगदीश त्रिपाठी said...

जिन्होंने दंगों की त्रासदी झेली है, ये कविता उनकी याद में आंसू बहाने के लिए मजबूर कर देती है। आपकी संवेदनशीलता को सलाम।

wahreindia said...

बहुत खूब आपका ज़वाब नही

Anonymous said...

Excellent. lovely. -P.

Nawaid Anjum said...

veryyy touchingg!!