स्वात में जीत के दो दिन बाद ही पाकिस्तानी तालिबान ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है. तहरीक-ए-निफाज़-ए-शरीअत-ए-मुहम्मदी के नेता सूफी मुहम्मद ने साफ़ कर दिया है की वह चाहते हैं इस्लामी कानून सिर्फ़ मालाकंद में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लागू हो. पूरी दुनिया वाला सपना शायद पूरा न हो पर तालिबान के बढ़ते प्रभाव से लगता है पाकिस्तान उनके हाथ आ रहा है. जिस घुटनाटेक मसौदे को पाकिस्तानी हुक्काम शान्ति समझौता कह रहे हैं वह तालिबान के लिए खुला न्योता साबित हो सकता है. इस्लामाबाद में उसकी गूँज सुनने के लिए अब दुनिया को तैयार रहना पड़ेगा. अमेरिका ने इस समझौते में अपनी हामी दे दी है पर अमेरिका को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
तालिबान का शरीअत पैगम्बर मुहम्मद के आदर्शों का पालन कम और मुल्लों की मनमानी ज्यादा है. अब जिसे चाहें फांसी चढाएं और जिसे चाहें लुल्ला कर दें. पाकिस्तानी लोकतंत्र खड़ा देखेगा अपने अस्तित्व को तार-तार होता और ज़ाहिरन महिलाएं और बच्चे बनेंगे इसके सबसे बड़े शिकार. डेली टाईम्स को दिए अपने इंटरव्यू में मौलाना फरमाते हैं: "डेमोक्रेसी काफिरों ने हम पर थोपा था. इस्लाम चुनाव जैसी चीज़ों को कोई मान्यता नहीं देता. काफिरों ने अफगानिस्तान में एक आदर्श तालिबान सरकार को तोड़ दिया नहीं तो दुनिया के कई मुल्कों में वैसी ही आदर्श सरकारें होतीं." इस बयान के बाद भी अगर पाकिस्तान के कर्ता-धर्ता यह समझते हैं कि मौलाना और उनके दामाद फ़ज़लुल्लाह के नीयत पाक साफ़ हैं तो अल्लाह बचाए उनको तालिबानी मनमानी से.
यह मनमानी वह बहुत पहले शुरू हो चुका है. टीवी देखना मना है, लड़कियों के स्कूल उड़ा दिए गए हैं और औरतों का घर से बाहर निकलना बंद है. यहाँ तक कि अब गाडियां सड़क के बायीं तरफ़ नहीं बल्कि दायीं तरफ़ चल रही हैं. तालिबानी कठमुल्लों को किसी ने यह नहीं बताया कि इस नए ट्रैफिक नियम से वह अमेरिकी व्यवस्था लागू कर रहे हैं. दुनिया के अधिकतर देशों में गाडियां सड़क के दायीं और ही चलती हैं. ब्रिटेन और उसके कुछ पूर्व उपनिवेशों में गाडियां सड़क के बायीं तरफ़ चलती हैं. भारत और पाकिस्तान दोनों में ट्रैफिक की यही दिशा है. पर तालिबान के एक मुल्ला ने फरमाया कि बायीं तरफ़ गाड़ी चलाना इस्लाम के ख़िलाफ़ है और स्वात में उलट गए नियम. शरीअत का कैसा विश्लेषण यह लोग करेंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं.
पाकिस्तानी आर्मी तो भारत से मुकाबला करने का दंभ करती है तो फिर क्या हुआ कि उसने चंद हज़ार तालिबान लडाकों के सामने घुटने टेक दिए? कई लोग इसे पाकिस्तानी सेना की कमजोरी समझने की गलती कर रहे हैं. पाकिस्तानी सेना इसे अपना मजबूती समझती है. यह एक नयी सामरिक नीति है जो अमेरिका को चेताने के लिए की गयी है. राष्ट्रपति ओबामा ने लगातार यह संकेत दिए हैं कि वह पाकिस्तान की नकेल कसेंगे अगर पाकिस्तान ने तालिबान को शह दी. पाकिस्तान की तथाकथित चुनी गयी सरकार चाहे कोई भी राग अलापे, सेना ने अपनी ठोकी बजाई नीति को अपनाया है. कश्मीर में आतंकवादियों को शह देकर पिछले पच्चीस सालों से भारत को उलझा रखा है इस नीति ने. चूँकि अमेरिका ने अपना ध्यान इराक से हटाकर अफगानिस्तान में लगा दिया है सो अब अमेरिका को उलझाने की नीति का यह पहला पाठ है. जब तक अमेरिका उलझा रहेगा, पाकिस्तान को आर्थिक और सामरिक मदद मिलती रहेगी. आख़िर पर्यटकों को लुभाने में स्वात को पाकिस्तान में वही दर्जा प्राप्त है जो भारत में कश्मीर को. भारत के स्वर्ग को नर्क बनाने के लिए जी-जान एक कर दिया था इस्लामाबाद ने. अब पाकिस्तान के स्वर्ग में शरिया स्वर्ग के नाम पर नर्क बन गया है.
सेना को इसमें दो फायदे नज़र आ रहे हैं. शरीअत का लौलीपॉप दे कर मुहम्मदी-फजलुल्लाह को शांत कर दें और इस्लामाबाद को बचा लें. और अमेरिका को यह बता दें कि तालिबान नाम का हथियार पाकिस्तान के रिज़र्व में है. पर भूल शायद यहीं हुई हो. तालिबानी नेता बैतुल्लाह महसूद ससुर-दामाद जोड़ी की बात मानेंगे इसके आसार नहीं हैं. फिर यह शान्ति तूफ़ान के पहले की शान्ति बन सकती है. क्यूंकि केन्द्रशासित जनजातीय क्षेत्र (फाटा) में महसूद कि तूती बोलती है. ख़बर आई थी के बेनजीर का हत्यारा बैतुल्लाह महसूद किसी बीमारी से मर गया है पर उसकी पुष्टि नहीं हुई और फिर यह साबित हो गया कि वह ज़िंदा है और फजलुल्लाह, जिसे मौलाना रेडियो भी बुलाते हैं, से ज्यादा खतरनाक भी.
स्वात का समझौता अमेरिका को भले नागवार गुजरा हो पर पाकिस्तान ने उसे आश्वासन दिया है कि बगैर फजलुल्लाह को साथ लिए बैतुल्लाह से निपटना मुश्किल होता. अमेरिका ने बात मान ली की तालिबान से लड़ने के लिए उनको विभाजित करना बुद्धिमानी है. पर जो तालिबान रणनीतियों को समझते हैं वह जानते हैं कि मक्कारी में इन संगठनों का कोई मुकाबला नहीं. आई-सी-८१४ विमान अपहरण के घटनाक्रम को याद करें तो पता चलेगा कि तालिबान के दिखाने के दांत दो हैं, चबाने के चार और छकाने के हज़ार. अव्वल तो इस्लामाबाद को हाथ मिलाना नहीं चाहिए था, पर जिन हितों को जेरे नज़र रख यह किया गया वे पाकिस्तान के हित कम और सेना के स्वार्थ ज्यादा हैं. फजलुल्लाह और बैतुल्लाह का जेहाद लोकल नहीं ग्लोबल है. इस का खतरा अमेरिका तक को है. पड़ोसी होने के कारण भारत को उस से ज्यादा है. लेकिन सब से ज्यादा खतरनाक यह पाकिस्तान के लिए है. पिन खुला ग्रेनेड सबसे ज्यादा घातक उसके लिए होता है जिसके हाथ में हो. टाइमिंग थोडी बिगड़ी तो हाथ से हाथ धोना पड़ता है. उस हाथ में अमेरिका का हाथ अभी भी है. पाकिस्तान के उम्दा शायर अहमद फ़राज़ के शब्दों में:
तुम तकल्लुफ को भी इखलास समझते हो फ़राज़,
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला!
Thursday, February 19, 2009
Monday, February 16, 2009
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
क़र्ज़ की पीते थे मय और कहते थे के हाँ
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
-- मिर्जा ग़ालिब
मैंने जब बारहवीं की परीक्षा के बाद निर्णय किया कि अब विज्ञान की धारा छोड़ अपनी रूचि के विषयों को पकडूँगा तो एक बड़ा पारिवारिक बवाल खड़ा हो गया. पिताजी बड़े दुखी थे कि जिस बेटे की शैक्षणिक योग्यता पर उनको नाज़ था वह उनकी नाक कटाने पर तुल गया. माँ बोली बेटा हमें तुम्हारी प्रतिभा पर भरोसा है, तुम्हें ख़ुद पर क्यूँ नहीं. अब तक इतने इम्तेहान आए आज तक तुम टोपर रहे हो तो फिर आज मैदान क्यूँ छोड़ना चाहते हो. फिर मामा-नाना और भी दूर के रिश्तेदारों ने घर पर धरना दे दिया मुझ एक को समझाने. समझाने क्या विनती करने कि मैं अपने विस्तृत खानदान की इज्ज़त में बट्टा न लगाऊँ. "तुम तो बड़े तेज़ थे पढ़ाई में फिर क्या हुआ कि तुम साइंस से डर गए," यह सवाल न जाने कितनी बार दुहराया गया. और मेरा उत्तर होता था कि मेरी रूचि साहित्य, इतिहास और ऐसी कला विषयों में है, मैं क्यूँ आपकी नाक के लिए अपनी इच्छा का बलिदान दूँ. कितनी मशक्कतों के बाद मैंने उन के हठ पर विजय पायी. या कहो कि अपने हठ पर अड़ा रहा. मैंने कहा चलो एक कोम्प्रोमाईज़ कर लेते हैं. मैं पॉलिटिकल साइंस पढूंगा. आपको कोई पूछे तो कह देना कि साइंस ही पढता है. अश्वथामा हतो नरो व कुंजरो वाली बात थी. अच्छा हुआ तब मेरी फॅमिली हरियाणा में नहीं थी क्यूंकि हरियाणा में विज्ञान को तो और ही दर्जा हासिल है. प्रतिष्ठा के साथ साथ पैसे भी मिलते हैं चाहे कोई पद मिले न मिले.
कहते हैं हरियाणा में दूध दही का खाना मिलता है. अगर विज्ञान पढ़ा हो तो आपको मलाई मिलेगी और मिठाई भी. रोज़गार मिले न मिले. बेरोज़गारी के लिए भी योग्यता चाहिए. घर बैठने वालों के बीच भी भेद भाव का अनूठा उदाहरण है यहाँ. बेरोज़गारी तो बाकी देश की तरह यहाँ भी है पर बीएससी बेरोजगार बीए से भला. अगर आपने इतिहास में स्नातक किया और घर में मक्खी मार रहे हैं तो आपको उसके ७५० रुपये मिलेंगे. पर कोई केमेस्ट्री वाला अगर मक्खी मारे तो उसको एक हज़ार. भाई साहब कुछ नहीं करते हैं तो क्या वह वैज्ञानिक तरीके से कुछ नहीं करते. आप इतिहास और दर्शन के लोग इतिहास से कुछ सीखते नहीं. अब कला पुजारियों के दर्शन नहीं होते. अकबर के ज़माने में नौ रत्न थे आज तो सारे रतन धूल फांक रहे हैं. कविताओं, कहानियों और सोच में क्या रखा है, ज़रा विचारिये. साइंस के बेरोजगार को तो ऐसे न दुत्कारिये. बराबर बेरोज़गारी भत्ता देंगे तो उनको बराबर पर ला खड़ा करेंगे. स्नातक तो छोडिये जिसने साइंस में बारहवीं पास कर ली उसको कला के बारहवीं पास से ज्यादा भत्ता मिलता है.
अब तक नौकरियों में योग्यता देखी जाती थी. जिसकी जैसी पढ़ाई, उसको वैसा मेहनताना. अब घर बैठने में भी योग्यता चाहिए. खरी तो यह कि योग्यता भी दोनों की बराबर हो पर विज्ञान वाले मालपुए ले जायेगा, और कला संकाय का पासआउट उंगलियाँ चाटेगा बस. छोरियां कटोरियाँ लिए फिजिक्स में फेल पर फ़िदा होंगी और आर्ट्स में पास वाला भी निराश होगा. भाई पास हुआ तो क्या हुआ, हम तो साइंस में फेल हुए? इस के पीछे की मानसिकता है कि साइंस के विद्यार्थी ज्यादा पर्तिभाशाली होते हैं और आर्ट्स वाले निखट्टू. और जब ऎसी मानसिकता पर सरकारी मुहर लग जाए और पैसे भी लुटने लगें तो कौन लिखेगा फिर हरयान्वी के घने मिट्ठे गीत? कौन बनाएगा पेंटिंग? इन को तो छोडो कामर्स कौन पढेगा और अर्थशास्त्र भी तो आर्ट्स ही ठहरा. सारे गणित भी कला में घुसेड दिए गए हैं अगर साथ में फिजिक्स और केमिस्ट्री न हो.
बड़े नेता कहते हैं कि स्किल-बेस्ड पढ़ाई रोज़गार मुखी होती है सो युवाओं को कुशल बनाओ. साइंस की पढ़ाई में स्किल भले न हो पर बेरोजगार-मुखी तो है. यह ग़लतफ़हमी बहुतों को है कि साइंस के बेरोजगार काफ़ी कुछ कर सकते हैं जो आर्ट्स के बेरोजगार नहीं कर सकते. ग़लतफ़हमी इस लिए कि अगर पानी का पम्प स्टार्ट करना हो तो साइंस वाला क्या आर्ट्स वाले से जल्दी कर देगा. बैलों को चारा देने में कैलकुलस काम आता है क्या? और फसल पर ओले गिरते हैं तो हमारे कोर्स की साइंस में ऐसा क्या है जो उसका समाधान ढूँढ ले.
हमारी पढ़ाई की व्यवस्था डिग्री वाले बहुत पैदा कर रही है पर डिग्री तो कागज़ है. और शिक्षित हो जाने भर से रोज़गार तो मिला नहीं. जैसे जैसे सरकार सिकुड़ रही है, सरकारी नौकरियाँ भी कम हो रही हैं. नई अर्थव्यवस्था में शिक्षा के साथ कार्य-कुशलता चाहिए. अब कार्य-कुशल लोग तो कहीं न कहीं कार्य करते हैं, वोट के दिन छुट्टी होती है सो आराम कर लेते हैं. नौकरी पेशा लोग वोट तो देते नहीं. सरकार की नीतियों ने बेरोजगारों की फौज फालतू में थोड़े न खडी की है. इनको बूथ पर बुलवा कर पाँच साल में एक बार काम करवा लें. पर एक बात समझ नहीं आई सरकार की: क्या साइंस पढ़े वोटर का एक वोट आर्ट्स वाले वोटर के दो वोट के बराबर होगा? हुड्डा जी ऐसा कर दीजिये अगली बार आर्ट्स वालों को मतदान के लिए अयोग्य कर दीजिये. भाई इन के पास दिमाग या प्रतिभा तो होती नहीं साइंस वालों जितनी तो फिर लोकतंत्र में इनको बराबर का अधिकार देकर साइंस वालों कि इज्ज़त पर बट्टा न लगायें.
कहते हैं ग़ालिब की मजार पर हर आदमी शायराना हो जाता है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा वहाँ जाते तो फरमाते:
सूखे सुखन के फेर में तुम जो न पड़ते तो बेहतर था,
गालिबन इतनी सुथरी ग़ज़लें न गढ़ते तो बेहतर था;
फाकामस्ती रंग तो लायी, अंदाज़-ए-बयां और हुआ,
तुम ने जो शेर पढ़े अच्छा लगा, साइंस पढ़ते तो बेहतर था!!
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
-- मिर्जा ग़ालिब
मैंने जब बारहवीं की परीक्षा के बाद निर्णय किया कि अब विज्ञान की धारा छोड़ अपनी रूचि के विषयों को पकडूँगा तो एक बड़ा पारिवारिक बवाल खड़ा हो गया. पिताजी बड़े दुखी थे कि जिस बेटे की शैक्षणिक योग्यता पर उनको नाज़ था वह उनकी नाक कटाने पर तुल गया. माँ बोली बेटा हमें तुम्हारी प्रतिभा पर भरोसा है, तुम्हें ख़ुद पर क्यूँ नहीं. अब तक इतने इम्तेहान आए आज तक तुम टोपर रहे हो तो फिर आज मैदान क्यूँ छोड़ना चाहते हो. फिर मामा-नाना और भी दूर के रिश्तेदारों ने घर पर धरना दे दिया मुझ एक को समझाने. समझाने क्या विनती करने कि मैं अपने विस्तृत खानदान की इज्ज़त में बट्टा न लगाऊँ. "तुम तो बड़े तेज़ थे पढ़ाई में फिर क्या हुआ कि तुम साइंस से डर गए," यह सवाल न जाने कितनी बार दुहराया गया. और मेरा उत्तर होता था कि मेरी रूचि साहित्य, इतिहास और ऐसी कला विषयों में है, मैं क्यूँ आपकी नाक के लिए अपनी इच्छा का बलिदान दूँ. कितनी मशक्कतों के बाद मैंने उन के हठ पर विजय पायी. या कहो कि अपने हठ पर अड़ा रहा. मैंने कहा चलो एक कोम्प्रोमाईज़ कर लेते हैं. मैं पॉलिटिकल साइंस पढूंगा. आपको कोई पूछे तो कह देना कि साइंस ही पढता है. अश्वथामा हतो नरो व कुंजरो वाली बात थी. अच्छा हुआ तब मेरी फॅमिली हरियाणा में नहीं थी क्यूंकि हरियाणा में विज्ञान को तो और ही दर्जा हासिल है. प्रतिष्ठा के साथ साथ पैसे भी मिलते हैं चाहे कोई पद मिले न मिले.
कहते हैं हरियाणा में दूध दही का खाना मिलता है. अगर विज्ञान पढ़ा हो तो आपको मलाई मिलेगी और मिठाई भी. रोज़गार मिले न मिले. बेरोज़गारी के लिए भी योग्यता चाहिए. घर बैठने वालों के बीच भी भेद भाव का अनूठा उदाहरण है यहाँ. बेरोज़गारी तो बाकी देश की तरह यहाँ भी है पर बीएससी बेरोजगार बीए से भला. अगर आपने इतिहास में स्नातक किया और घर में मक्खी मार रहे हैं तो आपको उसके ७५० रुपये मिलेंगे. पर कोई केमेस्ट्री वाला अगर मक्खी मारे तो उसको एक हज़ार. भाई साहब कुछ नहीं करते हैं तो क्या वह वैज्ञानिक तरीके से कुछ नहीं करते. आप इतिहास और दर्शन के लोग इतिहास से कुछ सीखते नहीं. अब कला पुजारियों के दर्शन नहीं होते. अकबर के ज़माने में नौ रत्न थे आज तो सारे रतन धूल फांक रहे हैं. कविताओं, कहानियों और सोच में क्या रखा है, ज़रा विचारिये. साइंस के बेरोजगार को तो ऐसे न दुत्कारिये. बराबर बेरोज़गारी भत्ता देंगे तो उनको बराबर पर ला खड़ा करेंगे. स्नातक तो छोडिये जिसने साइंस में बारहवीं पास कर ली उसको कला के बारहवीं पास से ज्यादा भत्ता मिलता है.
अब तक नौकरियों में योग्यता देखी जाती थी. जिसकी जैसी पढ़ाई, उसको वैसा मेहनताना. अब घर बैठने में भी योग्यता चाहिए. खरी तो यह कि योग्यता भी दोनों की बराबर हो पर विज्ञान वाले मालपुए ले जायेगा, और कला संकाय का पासआउट उंगलियाँ चाटेगा बस. छोरियां कटोरियाँ लिए फिजिक्स में फेल पर फ़िदा होंगी और आर्ट्स में पास वाला भी निराश होगा. भाई पास हुआ तो क्या हुआ, हम तो साइंस में फेल हुए? इस के पीछे की मानसिकता है कि साइंस के विद्यार्थी ज्यादा पर्तिभाशाली होते हैं और आर्ट्स वाले निखट्टू. और जब ऎसी मानसिकता पर सरकारी मुहर लग जाए और पैसे भी लुटने लगें तो कौन लिखेगा फिर हरयान्वी के घने मिट्ठे गीत? कौन बनाएगा पेंटिंग? इन को तो छोडो कामर्स कौन पढेगा और अर्थशास्त्र भी तो आर्ट्स ही ठहरा. सारे गणित भी कला में घुसेड दिए गए हैं अगर साथ में फिजिक्स और केमिस्ट्री न हो.
बड़े नेता कहते हैं कि स्किल-बेस्ड पढ़ाई रोज़गार मुखी होती है सो युवाओं को कुशल बनाओ. साइंस की पढ़ाई में स्किल भले न हो पर बेरोजगार-मुखी तो है. यह ग़लतफ़हमी बहुतों को है कि साइंस के बेरोजगार काफ़ी कुछ कर सकते हैं जो आर्ट्स के बेरोजगार नहीं कर सकते. ग़लतफ़हमी इस लिए कि अगर पानी का पम्प स्टार्ट करना हो तो साइंस वाला क्या आर्ट्स वाले से जल्दी कर देगा. बैलों को चारा देने में कैलकुलस काम आता है क्या? और फसल पर ओले गिरते हैं तो हमारे कोर्स की साइंस में ऐसा क्या है जो उसका समाधान ढूँढ ले.
हमारी पढ़ाई की व्यवस्था डिग्री वाले बहुत पैदा कर रही है पर डिग्री तो कागज़ है. और शिक्षित हो जाने भर से रोज़गार तो मिला नहीं. जैसे जैसे सरकार सिकुड़ रही है, सरकारी नौकरियाँ भी कम हो रही हैं. नई अर्थव्यवस्था में शिक्षा के साथ कार्य-कुशलता चाहिए. अब कार्य-कुशल लोग तो कहीं न कहीं कार्य करते हैं, वोट के दिन छुट्टी होती है सो आराम कर लेते हैं. नौकरी पेशा लोग वोट तो देते नहीं. सरकार की नीतियों ने बेरोजगारों की फौज फालतू में थोड़े न खडी की है. इनको बूथ पर बुलवा कर पाँच साल में एक बार काम करवा लें. पर एक बात समझ नहीं आई सरकार की: क्या साइंस पढ़े वोटर का एक वोट आर्ट्स वाले वोटर के दो वोट के बराबर होगा? हुड्डा जी ऐसा कर दीजिये अगली बार आर्ट्स वालों को मतदान के लिए अयोग्य कर दीजिये. भाई इन के पास दिमाग या प्रतिभा तो होती नहीं साइंस वालों जितनी तो फिर लोकतंत्र में इनको बराबर का अधिकार देकर साइंस वालों कि इज्ज़त पर बट्टा न लगायें.
कहते हैं ग़ालिब की मजार पर हर आदमी शायराना हो जाता है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा वहाँ जाते तो फरमाते:
सूखे सुखन के फेर में तुम जो न पड़ते तो बेहतर था,
गालिबन इतनी सुथरी ग़ज़लें न गढ़ते तो बेहतर था;
फाकामस्ती रंग तो लायी, अंदाज़-ए-बयां और हुआ,
तुम ने जो शेर पढ़े अच्छा लगा, साइंस पढ़ते तो बेहतर था!!
Sunday, February 08, 2009
तेरा एमोसनल अत्याचार
कहते हैं बॉलीवुड देश का थर्मामीटर है. एक दौर की सामजिक और राजनितिक परिस्थिति आंकना हो तो उस दौर की फिल्में देखें. सबसे बड़ा उदाहरण बन कर आता है अमिताभ बच्चन का दौर जब वह एंग्री यंग मैन थे. यह देश भी तब गुस्सैल था. पच्चीस तीस सालों की मेहनत रंग नहीं लायी थी और फ्रश्ट्रेशन युवाओं को घेर चुका था. फिर नब्बे के दशक में जब उदारीकरण आया और विदेशीकरण सेंध कर घुस आया तब फिल्में गुस्सैल प्रवृति की कम और बिगडैल ज्यादा हो गयी. समय ही वैसा था. फिल्मों की तरह गानों का भी दौर होता है. आज टाइम है जिस गाने का वह आ गया है: तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार, तेरा एमोसनल अत्याचार.
इमोशनल या भावुक होना भारत की संस्कृति में कूट-कूट कर भरा है, और अत्याचार हमारी अपसंस्कृति में. इमोशनल और अत्याचार का एक घालमेल हैं हम. थोड़ा इमोशनल थोड़ा अत्याचार. थोड़ी अंग्रेज़ी, थोड़ी हिन्दी. पाश बोल गए बीच का रास्ता नहीं होता तो हमने हिंगलिश की हाइवे बना दी और सरपट दौड़ गए. हमारे गानों में पहले दिल धड़कता था, फिर धक् धक् करने लगा. अभी हाल में व्हाइट व्हाइट फेस देख के बीटिंग फास्ट होकर डांस मारने लगा है. उस डांस पे चांस मारने के बाद हुआ है इमोशनल अत्याचार.
इन्हीं पन्नों पर आपने अनुराधा बाली उर्फ़ फिजा और इब्ने भजन चाँद की दास्ताँ पढ़ी. उस दास्ताँ में नए पन्ने लग गए हैं. अब पता ही नहीं चल रहा कि इमोशनल अत्याचार कर कौन रहा है और सह कौन रहा है. कहाँ तो हम यह सोच कर डिलाइटेड थे कि फिल्मी परदों के बाहर भी सच्चा प्यार होता है और पद-मर्यादा का बलिदान हो रहा है प्रेम की वेदी पर. पर प्यार उतना अँधा नहीं निकला. गौस चचा को यह बात पहले पता थी और आज की हिंग्रेजी भी. ख्वामख्वाह के हिंगलिश ग़ज़ल के दो शेर:
लव को जो भी ब्लाइंड कहते हैं, उनकी ख़ुद शोर्ट साईट होती है!
शोर्ट मोमेंट्स हैं प्लेज़र के, लॉन्ग फुरक़त कि नाईट होती है;
भैया इमोशनल अत्याचार तो हम पर हो रहा है, जो टीवी पर अनुराधा बाली की लाली पर आंसुओं कि धार देखकर इमोशनल हो जाते हैं. सब कसूर ससुरा टीवी का है. इटावा का एक पुलिसवाला सात साल की बाला को से उसकी उलझी चोटियों से झक्झोर रहा था. दलित चीफ मिनिस्टर के बहुजन हिताय राज्य में सरकारी कारकुन न्याय को सड़क पर नचा रहे थे. टीवी पर लाइव दृश्य देख कर इंसानियत शर्मा गई और सीनियर पुलिस वालों को भी शर्म आ गई. सो उस दारोगा को बर्खास्त कर दिया गया जिस वहशी ने २८० रुपये की चोरी के इल्जाम में एक गरीब लड़की को झकझोरा. राज्य के डीजीपी साहब इमोशनल हो गए और कहा कि अत्याचार बर्दाश्त नहीं होगा. खरी बात ये है कि अत्याचार तो बर्दाश्त करने कि हमको आदत है, बस देख नहीं सकते टीवी पर. इमोशनल भी हैं न. जिसको झकझोरना है झकझोरो, हमारी संवेदनाओं को रहने दो बस. हम तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर कि यात्रा में रह जाते हैं. अपने बगल के थाने में झाँक आईये, वहां सूजे तलवों पर पढिये हमारे ह्यूमन राइट्स के एक्ट.
गरीब आदमी तो फिजिकल अत्याचार तक बर्दाश्त करता है हर रोज़. हर पाँच साल आता है एक मौका बदला लेने का. इमोशनल अत्याचार के बदले एक अत्याचार करने का. सो मौसम आ गया है हरिया के अकड़ने का और नेताजी के झुकने का. अभी देखिये कैसे नेताजी इमोशनल हो कर कलावती और कलुआ को गले लगायेंगे. मशीन पर एक बटन दबवाने के लिए उनके हाथ पाँव दबायेंगे. अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े हो जायेंगे और जनता से इमोशनल वादे करेंगे. और जनता गाएगी: तौबा तेरा जलवा. तौबा तेरा प्यार. इतना लंबा इंतज़ार. नलके पे पानी आ जाने का, गाँव में बिजली का, स्कूल में अध्यापक का, अस्पताल में दवा का और शहरों में साफ़ हवा का. सब प्रोमिस किए जायेंगे और फिर पाँच साल तक छ्कायेंगे. चचा की हिंगलिश ग़ज़ल का डूएट गायेंगे:
वस्ल के वादे पे कर के ब्लाइंड फेथ, कौन जागा रात भर यू डोंट नो;
क्या है दिल, क्या है जिगर, यू डोंट नो; दर्द होता है किधर, यू डोंट नो!
यू डोंट नो से ये न समझियेगा कि हरिया, कलुआ और उनकी मय्या को कुछ नहीं आता! ये जो पब्लिक है, यह सब जानती है. चुनाव की झप्पियों-पप्पियों के बाद बेवफाई का बाउंसर अब भूलती नहीं वो. नेताजी भले भूल जाएँ. मजबूरी में गधे को बाप बनाया पर नेताजी चाहते हैं कि ये रिलेशन जग-ज़ाहिर न हो. एक बार जनार्दन को बाप बनाकर पाँच साल बापजी बने फिरते हैं. ख्वामख्वाह के शब्दों में:
गधा कह लीजिये, आई डोंट माइंड इट; मगर ज़ाहिर न हो अपना रिलेशन;
इधर हीटर के जैसा इश्क मेरा, उधर जज़्बात का रेफ्रिजरेशन!
यह इमोशनल रेफ्रिजरेशन कई नेताओं के हीट को ठंडा कर सकती है. मुलायम का लेटेस्ट इश्क इमोशनल नहीं है, सिर्फ़ वोटों के अंकगणित पर आधारित एक कल्कुलेषण है. पर मतगणना के दिन अत्याचार हो जाए तो इमोशनल नहीं होइएगा. कांग्रेस इमोशनल हो गयी है कि परमाणु सौदे का कल्याणकारी साथी आज अयोध्या के अत्याचारी से हाथ मिलाये मुस्कुरा रहा है. मुसलमानों के इमोशनल बटन दबा दबा कर उनको वोट बैंक कर डाला था. आज उस बैंक की दशा बाकी बैंकों जैसी खस्ताहाल है पर दिशा उलट गई है. उसको मालूम पड़ गया है अत्याचार के दोनों रूप. जो गुजरात में हुआ वो फिजिकल है. अब उसको वो भी समझ आ रहा है जो इमोशनल है. कंपनी के सीईओ लोग हर पाँच साल में डिविडेंड निकाल लेते हैं और उनको वादों की चासनी चटा के चल देते हैं या आश्वासनों की घुट्टी पिला देते हैं.
जवान लड़के को घुट्टी पिलाना अत्याचार है. इस बार बहुमत किसी पार्टी का नहीं, जवानों का है. पर कौन समझाए हमारे लीडरों को. बीजेपी ने दिल्ली में शीला से मात खाई क्यूंकि दिल्ली के युवक-युवतियां मल्होत्रा अंकल को अपना भविष्य और अपनी स्वतंत्रता नहीं सौंपना चाहते थे. इसको शहरी फैड समझ कर भूलने वाले नेता लोग भूल भी गए हैं. मंगलौर में अत्याचार हुआ और बंगलौर में लोग इमोशनल हो गए. मंगलौर के कुकर्मियों को पकड़ तो लिया तब मुख्यमंत्री स्वयं इमोशनल हो गए. उन्होंने कहा कि पब कल्चर देश की संस्कृति पर अत्याचार है. बस फिर राजस्थान के सी.एम्. भी बोल पड़े कि लड़के लड़कियों का हाथ-में-हाथ डाल कर घूमना दुराचार है. लालू जी बोल पड़े कि बेटा जहाँ माँ-बाप कहें वहीँ प्यार करें नहीं तो चाँद मुहम्मद के फिजा की तरह न खुदा ही मिलेगा न विसाले सनम. एक सुर में सब बोल उठे कि भले घर कि लडकियां परदे में रहे, लड़का दारु पी के ठेके पे लंबा पसरा हो, कोई बात नहीं, बेटियों को जींस में देखना, पब में जाना मना है. बेटियाँ तो पराया धन है, उसको क्या अधिकार है. उनकी स्वतंत्रता कल्चरल अत्याचार है. सो श्री राम के नाम पर एक भगवा सेना उनको सरे-बाज़ार नोच खसोट कर उनको अबला होने कि औकात दिखा रही है. और अपनी प्राचीन संस्कृति के नाम पर उन लड़कियों पर अंकुश लगा रही है. अबकि वलेंटाइन डे पर वो बाहर निकलेंगी तो उनका मुंह काला करेंगे, उनको थप्पड़ जडेंगे. अपनी प्राचीन संस्कृति का प्रदर्शन करेंगे. मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर राम सेना के मर्द देश के बेटियों की मर्यादा का मर्दन करेंगे.
अत्याचार तो यह है कि हम ने अपनी प्राचीन संस्कृति को सर चढ़ा रखा है. अक्सर लोग इमोशनल हो जाते हैं पुरानी बातें याद कर के. क्या दिन थे, क्या ज़माने थे, आज तो मटियामेट है और आने वाले कल से तो भगवान् ही बचाए. क्या सुनहरा भविष्य मिलेगा बच्चों को जब हम उनके आज पर कालिख मल रहे हों क्योंकि किसी किताब में पढ़ लिया था भारत सोने कि चिड़िया था. इस था पर गौर करें. इस था के इमोशनल अत्याचार को समझें. चचा गौस ख्वामख्वाह दखनी में कहते हैं:
अपने देश में क्यां कि मिटटी, सोना चांदी कब उगली जी;
काय कू झूठी बातां कर रहे, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
अपने अरमानों की खेती अब तक सुक्खी कि सुक्खी है
बादल हैं के रोज़ गरज रहें, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
इमोशनल या भावुक होना भारत की संस्कृति में कूट-कूट कर भरा है, और अत्याचार हमारी अपसंस्कृति में. इमोशनल और अत्याचार का एक घालमेल हैं हम. थोड़ा इमोशनल थोड़ा अत्याचार. थोड़ी अंग्रेज़ी, थोड़ी हिन्दी. पाश बोल गए बीच का रास्ता नहीं होता तो हमने हिंगलिश की हाइवे बना दी और सरपट दौड़ गए. हमारे गानों में पहले दिल धड़कता था, फिर धक् धक् करने लगा. अभी हाल में व्हाइट व्हाइट फेस देख के बीटिंग फास्ट होकर डांस मारने लगा है. उस डांस पे चांस मारने के बाद हुआ है इमोशनल अत्याचार.
इन्हीं पन्नों पर आपने अनुराधा बाली उर्फ़ फिजा और इब्ने भजन चाँद की दास्ताँ पढ़ी. उस दास्ताँ में नए पन्ने लग गए हैं. अब पता ही नहीं चल रहा कि इमोशनल अत्याचार कर कौन रहा है और सह कौन रहा है. कहाँ तो हम यह सोच कर डिलाइटेड थे कि फिल्मी परदों के बाहर भी सच्चा प्यार होता है और पद-मर्यादा का बलिदान हो रहा है प्रेम की वेदी पर. पर प्यार उतना अँधा नहीं निकला. गौस चचा को यह बात पहले पता थी और आज की हिंग्रेजी भी. ख्वामख्वाह के हिंगलिश ग़ज़ल के दो शेर:
लव को जो भी ब्लाइंड कहते हैं, उनकी ख़ुद शोर्ट साईट होती है!
शोर्ट मोमेंट्स हैं प्लेज़र के, लॉन्ग फुरक़त कि नाईट होती है;
भैया इमोशनल अत्याचार तो हम पर हो रहा है, जो टीवी पर अनुराधा बाली की लाली पर आंसुओं कि धार देखकर इमोशनल हो जाते हैं. सब कसूर ससुरा टीवी का है. इटावा का एक पुलिसवाला सात साल की बाला को से उसकी उलझी चोटियों से झक्झोर रहा था. दलित चीफ मिनिस्टर के बहुजन हिताय राज्य में सरकारी कारकुन न्याय को सड़क पर नचा रहे थे. टीवी पर लाइव दृश्य देख कर इंसानियत शर्मा गई और सीनियर पुलिस वालों को भी शर्म आ गई. सो उस दारोगा को बर्खास्त कर दिया गया जिस वहशी ने २८० रुपये की चोरी के इल्जाम में एक गरीब लड़की को झकझोरा. राज्य के डीजीपी साहब इमोशनल हो गए और कहा कि अत्याचार बर्दाश्त नहीं होगा. खरी बात ये है कि अत्याचार तो बर्दाश्त करने कि हमको आदत है, बस देख नहीं सकते टीवी पर. इमोशनल भी हैं न. जिसको झकझोरना है झकझोरो, हमारी संवेदनाओं को रहने दो बस. हम तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर कि यात्रा में रह जाते हैं. अपने बगल के थाने में झाँक आईये, वहां सूजे तलवों पर पढिये हमारे ह्यूमन राइट्स के एक्ट.
गरीब आदमी तो फिजिकल अत्याचार तक बर्दाश्त करता है हर रोज़. हर पाँच साल आता है एक मौका बदला लेने का. इमोशनल अत्याचार के बदले एक अत्याचार करने का. सो मौसम आ गया है हरिया के अकड़ने का और नेताजी के झुकने का. अभी देखिये कैसे नेताजी इमोशनल हो कर कलावती और कलुआ को गले लगायेंगे. मशीन पर एक बटन दबवाने के लिए उनके हाथ पाँव दबायेंगे. अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े हो जायेंगे और जनता से इमोशनल वादे करेंगे. और जनता गाएगी: तौबा तेरा जलवा. तौबा तेरा प्यार. इतना लंबा इंतज़ार. नलके पे पानी आ जाने का, गाँव में बिजली का, स्कूल में अध्यापक का, अस्पताल में दवा का और शहरों में साफ़ हवा का. सब प्रोमिस किए जायेंगे और फिर पाँच साल तक छ्कायेंगे. चचा की हिंगलिश ग़ज़ल का डूएट गायेंगे:
वस्ल के वादे पे कर के ब्लाइंड फेथ, कौन जागा रात भर यू डोंट नो;
क्या है दिल, क्या है जिगर, यू डोंट नो; दर्द होता है किधर, यू डोंट नो!
यू डोंट नो से ये न समझियेगा कि हरिया, कलुआ और उनकी मय्या को कुछ नहीं आता! ये जो पब्लिक है, यह सब जानती है. चुनाव की झप्पियों-पप्पियों के बाद बेवफाई का बाउंसर अब भूलती नहीं वो. नेताजी भले भूल जाएँ. मजबूरी में गधे को बाप बनाया पर नेताजी चाहते हैं कि ये रिलेशन जग-ज़ाहिर न हो. एक बार जनार्दन को बाप बनाकर पाँच साल बापजी बने फिरते हैं. ख्वामख्वाह के शब्दों में:
गधा कह लीजिये, आई डोंट माइंड इट; मगर ज़ाहिर न हो अपना रिलेशन;
इधर हीटर के जैसा इश्क मेरा, उधर जज़्बात का रेफ्रिजरेशन!
यह इमोशनल रेफ्रिजरेशन कई नेताओं के हीट को ठंडा कर सकती है. मुलायम का लेटेस्ट इश्क इमोशनल नहीं है, सिर्फ़ वोटों के अंकगणित पर आधारित एक कल्कुलेषण है. पर मतगणना के दिन अत्याचार हो जाए तो इमोशनल नहीं होइएगा. कांग्रेस इमोशनल हो गयी है कि परमाणु सौदे का कल्याणकारी साथी आज अयोध्या के अत्याचारी से हाथ मिलाये मुस्कुरा रहा है. मुसलमानों के इमोशनल बटन दबा दबा कर उनको वोट बैंक कर डाला था. आज उस बैंक की दशा बाकी बैंकों जैसी खस्ताहाल है पर दिशा उलट गई है. उसको मालूम पड़ गया है अत्याचार के दोनों रूप. जो गुजरात में हुआ वो फिजिकल है. अब उसको वो भी समझ आ रहा है जो इमोशनल है. कंपनी के सीईओ लोग हर पाँच साल में डिविडेंड निकाल लेते हैं और उनको वादों की चासनी चटा के चल देते हैं या आश्वासनों की घुट्टी पिला देते हैं.
जवान लड़के को घुट्टी पिलाना अत्याचार है. इस बार बहुमत किसी पार्टी का नहीं, जवानों का है. पर कौन समझाए हमारे लीडरों को. बीजेपी ने दिल्ली में शीला से मात खाई क्यूंकि दिल्ली के युवक-युवतियां मल्होत्रा अंकल को अपना भविष्य और अपनी स्वतंत्रता नहीं सौंपना चाहते थे. इसको शहरी फैड समझ कर भूलने वाले नेता लोग भूल भी गए हैं. मंगलौर में अत्याचार हुआ और बंगलौर में लोग इमोशनल हो गए. मंगलौर के कुकर्मियों को पकड़ तो लिया तब मुख्यमंत्री स्वयं इमोशनल हो गए. उन्होंने कहा कि पब कल्चर देश की संस्कृति पर अत्याचार है. बस फिर राजस्थान के सी.एम्. भी बोल पड़े कि लड़के लड़कियों का हाथ-में-हाथ डाल कर घूमना दुराचार है. लालू जी बोल पड़े कि बेटा जहाँ माँ-बाप कहें वहीँ प्यार करें नहीं तो चाँद मुहम्मद के फिजा की तरह न खुदा ही मिलेगा न विसाले सनम. एक सुर में सब बोल उठे कि भले घर कि लडकियां परदे में रहे, लड़का दारु पी के ठेके पे लंबा पसरा हो, कोई बात नहीं, बेटियों को जींस में देखना, पब में जाना मना है. बेटियाँ तो पराया धन है, उसको क्या अधिकार है. उनकी स्वतंत्रता कल्चरल अत्याचार है. सो श्री राम के नाम पर एक भगवा सेना उनको सरे-बाज़ार नोच खसोट कर उनको अबला होने कि औकात दिखा रही है. और अपनी प्राचीन संस्कृति के नाम पर उन लड़कियों पर अंकुश लगा रही है. अबकि वलेंटाइन डे पर वो बाहर निकलेंगी तो उनका मुंह काला करेंगे, उनको थप्पड़ जडेंगे. अपनी प्राचीन संस्कृति का प्रदर्शन करेंगे. मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर राम सेना के मर्द देश के बेटियों की मर्यादा का मर्दन करेंगे.
अत्याचार तो यह है कि हम ने अपनी प्राचीन संस्कृति को सर चढ़ा रखा है. अक्सर लोग इमोशनल हो जाते हैं पुरानी बातें याद कर के. क्या दिन थे, क्या ज़माने थे, आज तो मटियामेट है और आने वाले कल से तो भगवान् ही बचाए. क्या सुनहरा भविष्य मिलेगा बच्चों को जब हम उनके आज पर कालिख मल रहे हों क्योंकि किसी किताब में पढ़ लिया था भारत सोने कि चिड़िया था. इस था पर गौर करें. इस था के इमोशनल अत्याचार को समझें. चचा गौस ख्वामख्वाह दखनी में कहते हैं:
अपने देश में क्यां कि मिटटी, सोना चांदी कब उगली जी;
काय कू झूठी बातां कर रहे, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
अपने अरमानों की खेती अब तक सुक्खी कि सुक्खी है
बादल हैं के रोज़ गरज रहें, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
Calm before the storm
(First published on January 22, 2009)
Pakistan is on the boil again so expect an upheaval in Islamabad or alternatively in Kashmir. Just remember where you read it first. In the name of imaginary ghosts, the Pakistani Army often snatches the reins from the civilian authorities. This time the civilian government of Asif Ali Zardari has quietly surrendered the decision-making powers to General Ashfaq Kiyani, chiefly because the spectre may not be just spectre. With jingoism replacing patriotism, the Pakistan media, excepting a few honourable newspapers, have gone berserk. Indian media, not that they are unaffected by the same post-Mumbai 26/11, are a tea party compared to the kind of warmongering across the border.
The popular mood in Pakistan is that its enemies have encircled the country, the the words of former Army Chief Mirza Aslam Beg.
And this thime, the fear might have some basis. The Day the Big O of the US entered the Oval Office, he signalled he would walk that talk. The first step was to link economic aid to Pakistan with progress in the battle with the Taliban. President Obama will substantially raise the millions in aid and seek in return American force’s entry into Pakistani territory. The dangling dollar will be too good to resist. And inviting Americans into Pakistan too risky. A country dependent on aid cannot refuse hard cash in the time of global liquidity crunch. The European Union has already put Islamabad on a watch. Not only does the West no longer hyphenate India and Pakistan but also India’s democracy and economic power has become preferable to a country ready to be run over by extremists. The latter being the only reason the world wants to help Pakistan. A mad mullah with nukes is the world’s most dreaded nightmare.
It’s not a coincidence that the day Obama took oath on the Capitol, US Central Command chief David Petraeus dropped by to see the Army Chief and the President of Pakistan. He was on his way to Kabul from Russia, Kazakhstan, Tajikistan, Turkmenistan and Kyrgyzstan. He was there to sign new deals to create a new supply route to Afghanistan. The present supply route from Peshawar is often attacked by the Taliban. Pakistan has failed to stop these attacks. The US and Nato forces have avoided overtly taking on the Pakistan Army because they depend on Pakistan for crucial supply. That dependence is ending soon. American drones will not only continue pounding the frontier with missiles but the attacks will be deeper into the Pakistani territory. Mr Zardari will cry violation of Pakistan’s sovereignty. Not many would listen. Washington and Moscow could not see eye-to-eye just last year when Russia had invaded Georgia. Today, Russia is joining forces with the US. The groundwork for Obama’s promised Surge in Afghanistan is already off the ground.
A day after Obama's first day in office, Afghanistan and India began working on a new strategy to fight terror that originates in Pakistan. The greater cooperation between India and Israel and India and France is complicating things further. China remains the sole ally standing by Pakistan in trouble but China has not been of much economic help. And the US wants Pakistanis to push forward in an internecine war inside Pakistani territory, home to a large number of Taliban and Al-qaeda operatives and, if one believes US intelligence, probably Osama bin Laden. Pakistan claims to have killed many extremists. But till the day the frontier is safe for Al-Qaeda to operate from, the US may not ease pressure. Intelligence reports suggesting that Osama’s son, hiding in Iran till recently, has shifted base to the Pakistani safe haven does not help Islamabad.
New Delhi has been relentless in its diplomatic offensive since November 26. The often contradictory signals from Islamabad have left the world confounded as an overwhelming majority of nations want Pakistan to stop talking and start doing. But doing away with its most potent non-state weapon is something the Pakistani Army cannot think of. Hence Pakistan may create a bigger problem to make the present problem smaller. When the world is asking for action against terror, create a situation where everybody first wants you to return to democracy. You get the hint. The other option is of igniting Kashmir. But Kashmir has voted for hope. This may not be the right time for Pakistan to utter the K-word. This however may be the right time for India to demand the other part of Kashmir under Pakistani occupation. We as a country have given up our claim on the other part of Kashmir, while Pakistan has continued with its rhetorical stance. Any idea why India insists on having Muzaffarabad only on its maps?
Pakistan is on the boil again so expect an upheaval in Islamabad or alternatively in Kashmir. Just remember where you read it first. In the name of imaginary ghosts, the Pakistani Army often snatches the reins from the civilian authorities. This time the civilian government of Asif Ali Zardari has quietly surrendered the decision-making powers to General Ashfaq Kiyani, chiefly because the spectre may not be just spectre. With jingoism replacing patriotism, the Pakistan media, excepting a few honourable newspapers, have gone berserk. Indian media, not that they are unaffected by the same post-Mumbai 26/11, are a tea party compared to the kind of warmongering across the border.
The popular mood in Pakistan is that its enemies have encircled the country, the the words of former Army Chief Mirza Aslam Beg.
And this thime, the fear might have some basis. The Day the Big O of the US entered the Oval Office, he signalled he would walk that talk. The first step was to link economic aid to Pakistan with progress in the battle with the Taliban. President Obama will substantially raise the millions in aid and seek in return American force’s entry into Pakistani territory. The dangling dollar will be too good to resist. And inviting Americans into Pakistan too risky. A country dependent on aid cannot refuse hard cash in the time of global liquidity crunch. The European Union has already put Islamabad on a watch. Not only does the West no longer hyphenate India and Pakistan but also India’s democracy and economic power has become preferable to a country ready to be run over by extremists. The latter being the only reason the world wants to help Pakistan. A mad mullah with nukes is the world’s most dreaded nightmare.
It’s not a coincidence that the day Obama took oath on the Capitol, US Central Command chief David Petraeus dropped by to see the Army Chief and the President of Pakistan. He was on his way to Kabul from Russia, Kazakhstan, Tajikistan, Turkmenistan and Kyrgyzstan. He was there to sign new deals to create a new supply route to Afghanistan. The present supply route from Peshawar is often attacked by the Taliban. Pakistan has failed to stop these attacks. The US and Nato forces have avoided overtly taking on the Pakistan Army because they depend on Pakistan for crucial supply. That dependence is ending soon. American drones will not only continue pounding the frontier with missiles but the attacks will be deeper into the Pakistani territory. Mr Zardari will cry violation of Pakistan’s sovereignty. Not many would listen. Washington and Moscow could not see eye-to-eye just last year when Russia had invaded Georgia. Today, Russia is joining forces with the US. The groundwork for Obama’s promised Surge in Afghanistan is already off the ground.
A day after Obama's first day in office, Afghanistan and India began working on a new strategy to fight terror that originates in Pakistan. The greater cooperation between India and Israel and India and France is complicating things further. China remains the sole ally standing by Pakistan in trouble but China has not been of much economic help. And the US wants Pakistanis to push forward in an internecine war inside Pakistani territory, home to a large number of Taliban and Al-qaeda operatives and, if one believes US intelligence, probably Osama bin Laden. Pakistan claims to have killed many extremists. But till the day the frontier is safe for Al-Qaeda to operate from, the US may not ease pressure. Intelligence reports suggesting that Osama’s son, hiding in Iran till recently, has shifted base to the Pakistani safe haven does not help Islamabad.
New Delhi has been relentless in its diplomatic offensive since November 26. The often contradictory signals from Islamabad have left the world confounded as an overwhelming majority of nations want Pakistan to stop talking and start doing. But doing away with its most potent non-state weapon is something the Pakistani Army cannot think of. Hence Pakistan may create a bigger problem to make the present problem smaller. When the world is asking for action against terror, create a situation where everybody first wants you to return to democracy. You get the hint. The other option is of igniting Kashmir. But Kashmir has voted for hope. This may not be the right time for Pakistan to utter the K-word. This however may be the right time for India to demand the other part of Kashmir under Pakistani occupation. We as a country have given up our claim on the other part of Kashmir, while Pakistan has continued with its rhetorical stance. Any idea why India insists on having Muzaffarabad only on its maps?
हम्माम नहीं है ये...
क्या सोच कर आए थे, सरदार खुश होगा, शाबासी देगा?
-- गब्बर सिंह, शोले
मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने अपने सहयोगी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश की है. राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में उन्होंने चावला की निष्पक्षता पर सवाल उठाये हैं. सरकार के कानून मंत्री ने इस बात को लेकर गोपालस्वामी को खरी-खोटी सुनाई और यहाँ तक कह डाला की ऐसे सिफारिश को कूड़े के डिब्बे में फेक देना चाहिए. दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान की ऎसी छीछालेदर आम तौर पर नहीं होती. ख़ास कर जब हम आम चुनाव के करीब हों. यह तो ऐसा है की टॉस हो चुका हो और एक अंपायर दूसरे पर ऊंगली उठा दे. इस संवैधानिक संकट का समाधान होना ज़रूरी है क्यूंकि गोपालस्वामी चुनाव के पहले सेवानिवृत हो रहे हैं. सरकार ने कह दिया है कि नवीन चावला ही मुखिया होंगे. पर जैसे हालात हैं उस में यह उत्तर कम होगा, प्रश्नचिन्ह ज्यादा. चुनाव की मर्यादा और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए कुछ कदम उठाने ज़रूरी हैं और अभी उठाने ज़रूरी हैं.
हंस राज भारद्वाज को कानून मंत्री होने का लंबा अनुभव है. उनको कांग्रेस में होने का उस से भी ज्यादा अनुभव है. कभी-कभी अनुभव विवेक पर भारी पड़ता है, इसी लिए दूध के जले छाछ भी फूंक फूंक कर पीते हैं. छाछ ठंडी होती है पर अनुभव कहता है कि डर. यह पहली बार नहीं है की हंस राज भारद्वाज गुस्से में तमतमाए हों. जब क्वात्रोक्की को क्लीन चिट दी गयी थी तो अपने उत्साह में उन्होंने काफ़ी कुछ बक दिया था, इसकी परवाह किए बिना कि इतनी चापलूसी से उनकी नेता सोनिया गाँधी भी झेंप जायेंगी. जब राम सेतु मामले में राम को एक मिथ करार दिया गया था, तब भी महामहिम भारद्वाज अपने नेता के बोलने से पहले भांप गए थे कि वो क्या बोलेंगीं और बोल पड़े. वो सब उनका वहम था. फिर काफ़ी शर्मिंदगी और आलोचनाओं के बाद यह शांत बैठे. उनकी नेता के बारे के उन का पूर्वानुमान ग़लत था. पर कांग्रेस में भारद्वाज का लंबा अनुभव उनके विवेक को मात दे गया. वह और कांग्रेस के और कई वरिष्ठ नेता यह नहीं समझ पाये हैं कि उनका यह पूर्वाग्रह ग़लत है कि उनके नेता अमुक पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं. पर ख़ुद के पूर्वाग्रहों से हमारे कानून मंत्री ने एक संवैधानिक दुविधा का सामना जिस अमर्यादित उत्साह से किया है, उस से एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि गोपालस्वामी की सिफारिश को नकार देने के पहले कम से कम औपचारिकताएं पूरी कर लेनी थी. एक ढकोसला तो कर ही सकते थे कि उनकी सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया गया और फिर उनके आरोपों को बेबुनियाद पाकर उन्हें खारिज कर दिया गया. सीधा डस्टबिन में डालने की बात कह कर सरकार ने न सिर्फ़ अपने बल्कि होने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त को भी शक के दायरे में ले लिया. सीता पवित्र थी पर मर्यादा पुरुषोत्तम ने सीता की पवित्रता को प्रश्नों से ऊपर रखने के लिए ही वनवास दे दिया था. रामायण और राम भले मिथ हों पर ये कहानियां राज काज के आदर्शों को स्थापित करने के लिए आज तक दुहराई जा रही हैं. इन कहानियों का जीवित होना इस बात की गवाही है की प्रजा शासकों से क्या अपेक्षा रखती है. मर्यादा पुरुषोत्तम के मानदंडों का पालन कलियुग में असंभव है पर अपने बनाए संस्थानों की मर्यादा रखना सम्भव होना ही चाहिए.
भारद्वाज ने यहाँ तक कह डाला कि मुख्य चुनाव आयुक्त कौन होते हैं अपने सहयोगी को हटाने की सिफारिश करने वाले. कानून मंत्री कानून भले जानते हों पर संविधान की धरा ३२४ के पाँच संभागों में एक यह कहता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त ऎसी सिफारिश कर सकते हैं. सो गोपालस्वामी ने जो किया है वह संविधान के दायरे में है. उन्होंने यह सिफारिश करने के लिए ठीक चुनाव के पहले का समय क्यों चुना इसका कारण भी वह देते हैं. उनका कहना हैं कि उन्हें नवीन चावला के पक्षपाती होने के आरोपों कि जांच करनी पड़ी और उसमें बहुत वक़्त लगा. उनके मुताबिक चुनाव आयुक्त चावला एक पार्टी (कांग्रेस) को फायदा पहुंचाने के लिए प्रयासरत रहे हैं. नवीन चावला पर यह आरोप पहले बीजेपी लगा चुकी है.
चुनाव आयुक्त का कांग्रेस से कथित नजदीकियां उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के लिए अयोग्य नहीं बनाती. पर कानून मंत्री का वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी कि आपत्ति पर आपत्ति जताने का लहजा मुख्य चुनाव आयक्त के पद की मर्यादा का मखौल उड़ाने जैसा है. इसी से बचना था, न सिर्फ़ मंत्री जी को बल्कि इस विवाद में शामिल हर पार्टी को. गोपालस्वामी की आपत्ति या सुझाव बीजेपी कि आपत्ति जैसी मानना शर्म की बात है. इसके बदले आप गोपालस्वामी पर बीजेपी के लिए बैटिंग करने का आरोप लगा सकते हैं पर हकीकत यह है की अभी वह अंपायर हैं और वो भी थर्ड अंपायर. अंपायर की ऊँगली पर उंगली उठाना खेल का बंटाधार कर देगा. शक की सुई चावला की तरफ़ घुमा दी गयी है. और यह सुई पीछे नहीं घूमती. गोपालस्वामी के इस कदम के पीछे के कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है चुनाव आयोग की आगे की छवि की स्वच्छता बनाए रखना. वर्तमान मुखिया को बीजेपी का एजेंट कह देने भर से चावला पर लगे आरोपों की फेहरिस्त धुल नहीं जायेगी. एक ग़लती दूसरी गलती का काट नहीं है. अव्वल तो ऐसे संस्थानों में विवाद होना ही नहीं चाहिए और अगर हो तो समाधान होना, तुंरत होना ज़रूरी है. और समाधान का न सिर्फ़ तार्किक और निष्पक्ष होना आवश्यक है बल्कि उसका वैसा दिखना भी.
संविधान में इस से सम्बंधित जो कमियाँ हैं उनकी पूर्ति के लिए सरकार को आवश्यक संसोधन करने चाहिए. गोपालस्वामी पर आरोप है की वह बीजेपी के साथ हैं और उनकी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं है. हो भी सकता है. टी.ऐन. शेषण मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के बाद कांग्रेस से चुनाव लादे थे. संविधान में आवश्यक संसोधन कर इस पर भी रोक लगाना होगा ताकि यह पद इन आरोपों से मुक्त रहे. अंपायर को किसी टीम के लिए बैटिंग करने की चाहत/अपेक्षा हो तो उसके निष्पक्ष होने पर ऊंगलियाँ उठती रहेंगी. फिलवक्त, सरकार को नवीन चावला की बलि देनी होगी. यह प्रश्न उठ सकता है की तब तो कोई भी मुख्य चुनाव आयुक्त अपने साथियों को हटवा सकता है. संभावनाएं अनंत हैं पर ऐसा बार बार होता दिखता नहीं. यह चुनाव आयोग है, सिर्फ़ तीन लोग होते हैं. एक मुखिया और दो सरपन्च और सभी बराबरी के. उनका चुनाव पारदर्शी होता है, उनका काम भी. पारदर्शिता हमें तभी डराती है जब हम नंगे हों. यह कोई हम्माम नहीं न ही अपने गंदे अंगवस्त्र धोने वाला घाट जो हम डरें.
(First published on 1 February, 2009)
-- गब्बर सिंह, शोले
मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने अपने सहयोगी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश की है. राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में उन्होंने चावला की निष्पक्षता पर सवाल उठाये हैं. सरकार के कानून मंत्री ने इस बात को लेकर गोपालस्वामी को खरी-खोटी सुनाई और यहाँ तक कह डाला की ऐसे सिफारिश को कूड़े के डिब्बे में फेक देना चाहिए. दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान की ऎसी छीछालेदर आम तौर पर नहीं होती. ख़ास कर जब हम आम चुनाव के करीब हों. यह तो ऐसा है की टॉस हो चुका हो और एक अंपायर दूसरे पर ऊंगली उठा दे. इस संवैधानिक संकट का समाधान होना ज़रूरी है क्यूंकि गोपालस्वामी चुनाव के पहले सेवानिवृत हो रहे हैं. सरकार ने कह दिया है कि नवीन चावला ही मुखिया होंगे. पर जैसे हालात हैं उस में यह उत्तर कम होगा, प्रश्नचिन्ह ज्यादा. चुनाव की मर्यादा और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए कुछ कदम उठाने ज़रूरी हैं और अभी उठाने ज़रूरी हैं.
हंस राज भारद्वाज को कानून मंत्री होने का लंबा अनुभव है. उनको कांग्रेस में होने का उस से भी ज्यादा अनुभव है. कभी-कभी अनुभव विवेक पर भारी पड़ता है, इसी लिए दूध के जले छाछ भी फूंक फूंक कर पीते हैं. छाछ ठंडी होती है पर अनुभव कहता है कि डर. यह पहली बार नहीं है की हंस राज भारद्वाज गुस्से में तमतमाए हों. जब क्वात्रोक्की को क्लीन चिट दी गयी थी तो अपने उत्साह में उन्होंने काफ़ी कुछ बक दिया था, इसकी परवाह किए बिना कि इतनी चापलूसी से उनकी नेता सोनिया गाँधी भी झेंप जायेंगी. जब राम सेतु मामले में राम को एक मिथ करार दिया गया था, तब भी महामहिम भारद्वाज अपने नेता के बोलने से पहले भांप गए थे कि वो क्या बोलेंगीं और बोल पड़े. वो सब उनका वहम था. फिर काफ़ी शर्मिंदगी और आलोचनाओं के बाद यह शांत बैठे. उनकी नेता के बारे के उन का पूर्वानुमान ग़लत था. पर कांग्रेस में भारद्वाज का लंबा अनुभव उनके विवेक को मात दे गया. वह और कांग्रेस के और कई वरिष्ठ नेता यह नहीं समझ पाये हैं कि उनका यह पूर्वाग्रह ग़लत है कि उनके नेता अमुक पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं. पर ख़ुद के पूर्वाग्रहों से हमारे कानून मंत्री ने एक संवैधानिक दुविधा का सामना जिस अमर्यादित उत्साह से किया है, उस से एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि गोपालस्वामी की सिफारिश को नकार देने के पहले कम से कम औपचारिकताएं पूरी कर लेनी थी. एक ढकोसला तो कर ही सकते थे कि उनकी सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया गया और फिर उनके आरोपों को बेबुनियाद पाकर उन्हें खारिज कर दिया गया. सीधा डस्टबिन में डालने की बात कह कर सरकार ने न सिर्फ़ अपने बल्कि होने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त को भी शक के दायरे में ले लिया. सीता पवित्र थी पर मर्यादा पुरुषोत्तम ने सीता की पवित्रता को प्रश्नों से ऊपर रखने के लिए ही वनवास दे दिया था. रामायण और राम भले मिथ हों पर ये कहानियां राज काज के आदर्शों को स्थापित करने के लिए आज तक दुहराई जा रही हैं. इन कहानियों का जीवित होना इस बात की गवाही है की प्रजा शासकों से क्या अपेक्षा रखती है. मर्यादा पुरुषोत्तम के मानदंडों का पालन कलियुग में असंभव है पर अपने बनाए संस्थानों की मर्यादा रखना सम्भव होना ही चाहिए.
भारद्वाज ने यहाँ तक कह डाला कि मुख्य चुनाव आयुक्त कौन होते हैं अपने सहयोगी को हटाने की सिफारिश करने वाले. कानून मंत्री कानून भले जानते हों पर संविधान की धरा ३२४ के पाँच संभागों में एक यह कहता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त ऎसी सिफारिश कर सकते हैं. सो गोपालस्वामी ने जो किया है वह संविधान के दायरे में है. उन्होंने यह सिफारिश करने के लिए ठीक चुनाव के पहले का समय क्यों चुना इसका कारण भी वह देते हैं. उनका कहना हैं कि उन्हें नवीन चावला के पक्षपाती होने के आरोपों कि जांच करनी पड़ी और उसमें बहुत वक़्त लगा. उनके मुताबिक चुनाव आयुक्त चावला एक पार्टी (कांग्रेस) को फायदा पहुंचाने के लिए प्रयासरत रहे हैं. नवीन चावला पर यह आरोप पहले बीजेपी लगा चुकी है.
चुनाव आयुक्त का कांग्रेस से कथित नजदीकियां उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के लिए अयोग्य नहीं बनाती. पर कानून मंत्री का वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी कि आपत्ति पर आपत्ति जताने का लहजा मुख्य चुनाव आयक्त के पद की मर्यादा का मखौल उड़ाने जैसा है. इसी से बचना था, न सिर्फ़ मंत्री जी को बल्कि इस विवाद में शामिल हर पार्टी को. गोपालस्वामी की आपत्ति या सुझाव बीजेपी कि आपत्ति जैसी मानना शर्म की बात है. इसके बदले आप गोपालस्वामी पर बीजेपी के लिए बैटिंग करने का आरोप लगा सकते हैं पर हकीकत यह है की अभी वह अंपायर हैं और वो भी थर्ड अंपायर. अंपायर की ऊँगली पर उंगली उठाना खेल का बंटाधार कर देगा. शक की सुई चावला की तरफ़ घुमा दी गयी है. और यह सुई पीछे नहीं घूमती. गोपालस्वामी के इस कदम के पीछे के कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है चुनाव आयोग की आगे की छवि की स्वच्छता बनाए रखना. वर्तमान मुखिया को बीजेपी का एजेंट कह देने भर से चावला पर लगे आरोपों की फेहरिस्त धुल नहीं जायेगी. एक ग़लती दूसरी गलती का काट नहीं है. अव्वल तो ऐसे संस्थानों में विवाद होना ही नहीं चाहिए और अगर हो तो समाधान होना, तुंरत होना ज़रूरी है. और समाधान का न सिर्फ़ तार्किक और निष्पक्ष होना आवश्यक है बल्कि उसका वैसा दिखना भी.
संविधान में इस से सम्बंधित जो कमियाँ हैं उनकी पूर्ति के लिए सरकार को आवश्यक संसोधन करने चाहिए. गोपालस्वामी पर आरोप है की वह बीजेपी के साथ हैं और उनकी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं है. हो भी सकता है. टी.ऐन. शेषण मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के बाद कांग्रेस से चुनाव लादे थे. संविधान में आवश्यक संसोधन कर इस पर भी रोक लगाना होगा ताकि यह पद इन आरोपों से मुक्त रहे. अंपायर को किसी टीम के लिए बैटिंग करने की चाहत/अपेक्षा हो तो उसके निष्पक्ष होने पर ऊंगलियाँ उठती रहेंगी. फिलवक्त, सरकार को नवीन चावला की बलि देनी होगी. यह प्रश्न उठ सकता है की तब तो कोई भी मुख्य चुनाव आयुक्त अपने साथियों को हटवा सकता है. संभावनाएं अनंत हैं पर ऐसा बार बार होता दिखता नहीं. यह चुनाव आयोग है, सिर्फ़ तीन लोग होते हैं. एक मुखिया और दो सरपन्च और सभी बराबरी के. उनका चुनाव पारदर्शी होता है, उनका काम भी. पारदर्शिता हमें तभी डराती है जब हम नंगे हों. यह कोई हम्माम नहीं न ही अपने गंदे अंगवस्त्र धोने वाला घाट जो हम डरें.
(First published on 1 February, 2009)
Monday, February 02, 2009
इब्न-ए-इंशा की ग़ज़ल और इब्न-ए-भजन की कहानी
(This could not have been written in English, so apologies to my non-Hindi readers.)
دیکھ ہمارے ماتھے پر یہ دشتِ طلب کی دھول میاں
ہم سے عجب ترا درد کا ناتا، دیکھ ہمیں مت بھول میاں
اہلِ وفا سے بات نہ کرنا، ہوگا ترا اصول میاں
ہم کیوں چھوڑیں ان گلیوں کے پھیروں کا معمول میاں
یونہی تو نہیں دشت میں پہنچے، یونہی تو نہیں جوگ لیا
بستی بستی کانٹے دیکھے، جنگل جنگل پھول میاں
یہ تو کہو کبھی عشق کیا ہے ؟ جگ میں ہوئے ہو رُسوا بھی؟
اس کے سِوا ہم کُچھ بھی نہ پوچھیں، باقی بات فضول میاں
نصب کریں محرابِ تمنّا، دیدہ و دل کو فرش کریں
سُنتے ہیں وہ کُوئے وفا میں آج کریں کے نزول میاں
سُن تو لیا کسی نار کی خاطر کاٹا کوہ نکالی نہر
ایک ذرا سے قصے کو اب دیتے ہو کیوں طُول میاں
کھیلنے دیں انہیں عشق کی بازی، کھیلیں گے تو سیکھیں گے
قیس کی یا فرہاد کی خاطر کھولیں کیا اسکول میاں
اب تو ہمیں منظور ہے یہ بھی، شہر سے نکلیں، رُسوا ہوں
تجھ کو دیکھا، باتیں کرلیں، محنت ہوئی وصول میاں
انشاء جی کیا عذر ہے تم کو، نقدِ دل و جاں نذر کرو
روپ نگر کے ناکے پر یہ لگتا ہے محصول میاں
ابنِ انشاء
________________________________________________________
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हमसे अजब तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां! -- इब्न-ए-इंशा
चाँद निकला दिल्ली में और चंडीगढ़ में फिजा ने रो रो के बुरा हाल किया है. उनके मियां ने दिल्ली से ख़बर भिजवाई है कि वे फिजा से उतना ही प्यार करते हैं जितना कि दस दिन पहले करते थे. पहली पत्नी सीमा से भी वो उतना ही प्यार करते हैं जितना फिजा से पहले. प्यार का समंदर है हमारा चाँद, कौन कहता है वो डुबकियां ले रहे हैं बहती हुई दरियाओं में. सच है कि फरहाद ने नहर खोद डाली थी इक शीरीं नार के लिए पर यह तो उनके भी चचा निकले. ख़ुद मुहब्बत के समंदर बने सर्व-धर्म सम्मलेन कर अपना भाव व्यक्त कर दिया. फिजा तो बेचारी बूझ नहीं पा रही कि किस संत का सान्निध्य उनके भाग्य में लिखा था. सान्निध्य थोड़े दिनों का सही पर भजनपुत्र के साथ कीर्तन करने का संयोग तो हुआ. योग हुआ और वियोग भी. पर दुनिया में मिलना-बिछड़ना तो होता ही रहता है. राधा का अनुराग तो अधूरा रह गया, कृष्ण ने विवाह तो प्रेम के लिए नहीं किया. अनुराधा का अनुराग तो निकाह तक पहुँचा. धर्म परिवर्तन करने से जहाँ विवाह आसान हो गया, वहां तलाक़ भी उतना ही आसान है. सच में इस्लाम इतनी आसानी का तलाक होने नहीं देता पर सुविधा के हिसाब से इस्लाम विवाह की भी अनुमति नहीं देता. अब जब राह आसानी की ली है तो फिजा को तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ बोल देंगे और फिर चाँद अपने पुराने आँगन में उग आयेंगे जैसे बबूल उग आता है किसी घर के पिछवाडे. इब्न-ए-इंशा कह गए:
सुन तो लिया एक नार की खातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से किस्से को अब देते क्यों हो तूल मियां!
फिजा तो कहाँ नेत्री बनने के सपने सजाये एक अभिनेत्री की तरह न सिर्फ़ बन-ठन कर इठला रही थी बल्कि अबने डायलाग भी रट रही थी. आख़िर चन्द्र मोहन ने प्यार को एक पड़ाव दिया था. यह पता नहीं था की ये मंजिल नहीं थी प्यार की. पड़ाव में ठहराव होता है पर उसे बसेरा बना लेना किसने कहा था. चाँद का दिल दरिया है और मन समंदर. आप आए तो आपको भी एक लोटा पानी मिल गया. अब खारापन तो समंदर की पहचान है. मुंह बनाने से समंदर गंगा नहीं हो जायेगा. वहाँ तो अमृत-भारी गंगा भी खारा हो जाती है. सीमा के पास वापस नहीं जाएँ तो भी समंदर किसी का नहीं हुआ. मर्द दो से ज्यादा औरतों को प्यार करते हैं, उनका बड़प्पन है, बड़ा दिल है. तिस पर नेता हों तो प्यार की कोई सीमा नहीं होती. सीमा से पूछिए.
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां;
हम क्यूँ छोडें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
लोग तो कहते हैं की आपके पास ऐसे जंतर थे की आपने उसे अपना बना लिया वरना नेता लोग तो प्यार बाँटते फिरते हैं. हमारे बुजुर्ग नेता नारायण दत्त तिवारी बेचारे अभी भी अदालतों के सम्मन झेलते हैं. एक युवक इस बात की लड़ाई लड़ रहा है की उसे तिवारी बाप का नाम दें क्यूंकि वह पुत्र हैं उनके. सच तो तिवारी जी जाने पर पोपुलर आईडिया है यही के कई नेतागण ऐसे मामलों में रात गई बात गई से आगे नहीं जाते. भाई बदनामी होती है. पर कुछ तो था जंतर के चन्द्रमोहन आपके लिए चाँद मोहम्मद हो गए. पहाड़ न काटा हो, नहर न निकाली हो पर रास्ता तो निकाला ही. कहाँ सब उनको मुहब्बत के मसीहा मानने लगे थे. प्यार किया तो डरना क्या मुग़ल-ए-आज़म को बाद आप-दोनों की जोड़ी पर सब से ज्याद फबी. प्रेस कांफ्रेंस बुला कर आप और इब्न-ए-भजन प्यार की बहार में अखबार को सवालों का जवाब सवालों से देते थे. बकौल इब्न-ए-इंशा:
यह तो कहो कभी इश्क किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इसके सिवा हम कुछ भी न पूछें बाकी बात फिजूल मियां!
किसी ने तो आपके फ़साने पर फ़िल्म बनाने की घोषणा कर दी. लेकिन कहानी का ट्विस्ट देखिये की पिक्चर का दी एंड हो गया, पैक-अप हो गया तो उठिए और लौटिये घर. गोलियाँ लेकर लोटने से क्या होगा? मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये ठीक है पर सच्ची कहानियों में कब रोना नहीं आता मोहब्बत के अंजाम पर. लैला और मजनू की शादी नहीं हुई थी, न ही पहाड़ काटने वाले फरहाद की. आपके चाँद का कुछ सामान रह गया था आपके पास सो मिल गया और निकल लिए. थोडी रुसवाई होगी उन की पर मेहनत वसूल हो गई लगती है. आगे का शेर है:
अब तो हमें मंजूर है यह भी शहर से निकलें रुसवा हों;
तुझको देखा, बातें कर ली, मेहनत हुई वसूल मियां!
चन्द्र मोहन ने तो कह ही दिया है कि फिजा के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तेहान और भी हैं. आपके लिए भी बहुत कुछ हैं सीखने को जो आपको ला स्कूल में नहीं बतायी किसी ने. अपने ख़िलाफ़ फ़ैसला ख़ुद ही लिखा है आपने, अब हाथ मल रहे हैं आप, आप बहुत अजीब हैं. आप देखें आगे क्या गेम होता है और खेलने दे उन्हें. बकौल इब्न-ए-इंशा:
खेलने दें इन्हें इश्क की बाज़ी, खेलेंगे तो सीखेंगे;
कैस की या फरहाद की खातिर खोलें क्या स्कूल मियां!
आपने सोचा था की चाँद की रौशनी में नहा कर आप निखरेंगी और दुनिया रीस करेगी. अब तारीकियाँ घेर रही हैं तो डर लगना लाजिमी है. चाँद ने अपना सब कुछ छोड़ दिया था आपके लिए. लोग तो कहते हैं छोड़ा नहीं था बचा रखा था आपसे. उनकी कोई फूटी कौड़ी है नहीं जो आपको मिलेगी. वह तो सब कुछ पारिवारिक सीमा के अन्दर ही छोड़ आए जब उन्होंने एक सीमा लांघी थी. चंडीगढ से आदमी जब पहाडों की ओर जाता है तो पहला नाका रूपनगर का आता है. वहीँ टोकन लेते समय पूछा जाता है की वन-वे दें या रिटर्न. उस नाके पर चन्द्र मोहन ने वापसी का टोल दे दिया था. आपके जोग में जोगी तो भये नहीं की वादियों में सुख मिल जायेगा. सो दिल-ओ-जान का महसूल नहीं दिया. आप अब चाहें जितना जान छिडकें, वो तो रूपनगर की तरफ़ गए ही नहीं.. पावर की प्रेयसी दिल्ली की ओर बढे सो कुछ देना नहीं पड़ा. आपकी कहानी अधूरी रह गई पर इब्न-ऐ-इंशा की ग़ज़ल पुरी किए देते हैं..
इंशा जी क्या उज्र है तुम को नकद-ऐ-दिल-ओ-जान नजर करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां!
دیکھ ہمارے ماتھے پر یہ دشتِ طلب کی دھول میاں
ہم سے عجب ترا درد کا ناتا، دیکھ ہمیں مت بھول میاں
اہلِ وفا سے بات نہ کرنا، ہوگا ترا اصول میاں
ہم کیوں چھوڑیں ان گلیوں کے پھیروں کا معمول میاں
یونہی تو نہیں دشت میں پہنچے، یونہی تو نہیں جوگ لیا
بستی بستی کانٹے دیکھے، جنگل جنگل پھول میاں
یہ تو کہو کبھی عشق کیا ہے ؟ جگ میں ہوئے ہو رُسوا بھی؟
اس کے سِوا ہم کُچھ بھی نہ پوچھیں، باقی بات فضول میاں
نصب کریں محرابِ تمنّا، دیدہ و دل کو فرش کریں
سُنتے ہیں وہ کُوئے وفا میں آج کریں کے نزول میاں
سُن تو لیا کسی نار کی خاطر کاٹا کوہ نکالی نہر
ایک ذرا سے قصے کو اب دیتے ہو کیوں طُول میاں
کھیلنے دیں انہیں عشق کی بازی، کھیلیں گے تو سیکھیں گے
قیس کی یا فرہاد کی خاطر کھولیں کیا اسکول میاں
اب تو ہمیں منظور ہے یہ بھی، شہر سے نکلیں، رُسوا ہوں
تجھ کو دیکھا، باتیں کرلیں، محنت ہوئی وصول میاں
انشاء جی کیا عذر ہے تم کو، نقدِ دل و جاں نذر کرو
روپ نگر کے ناکے پر یہ لگتا ہے محصول میاں
ابنِ انشاء
________________________________________________________
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हमसे अजब तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां! -- इब्न-ए-इंशा
चाँद निकला दिल्ली में और चंडीगढ़ में फिजा ने रो रो के बुरा हाल किया है. उनके मियां ने दिल्ली से ख़बर भिजवाई है कि वे फिजा से उतना ही प्यार करते हैं जितना कि दस दिन पहले करते थे. पहली पत्नी सीमा से भी वो उतना ही प्यार करते हैं जितना फिजा से पहले. प्यार का समंदर है हमारा चाँद, कौन कहता है वो डुबकियां ले रहे हैं बहती हुई दरियाओं में. सच है कि फरहाद ने नहर खोद डाली थी इक शीरीं नार के लिए पर यह तो उनके भी चचा निकले. ख़ुद मुहब्बत के समंदर बने सर्व-धर्म सम्मलेन कर अपना भाव व्यक्त कर दिया. फिजा तो बेचारी बूझ नहीं पा रही कि किस संत का सान्निध्य उनके भाग्य में लिखा था. सान्निध्य थोड़े दिनों का सही पर भजनपुत्र के साथ कीर्तन करने का संयोग तो हुआ. योग हुआ और वियोग भी. पर दुनिया में मिलना-बिछड़ना तो होता ही रहता है. राधा का अनुराग तो अधूरा रह गया, कृष्ण ने विवाह तो प्रेम के लिए नहीं किया. अनुराधा का अनुराग तो निकाह तक पहुँचा. धर्म परिवर्तन करने से जहाँ विवाह आसान हो गया, वहां तलाक़ भी उतना ही आसान है. सच में इस्लाम इतनी आसानी का तलाक होने नहीं देता पर सुविधा के हिसाब से इस्लाम विवाह की भी अनुमति नहीं देता. अब जब राह आसानी की ली है तो फिजा को तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ बोल देंगे और फिर चाँद अपने पुराने आँगन में उग आयेंगे जैसे बबूल उग आता है किसी घर के पिछवाडे. इब्न-ए-इंशा कह गए:
सुन तो लिया एक नार की खातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से किस्से को अब देते क्यों हो तूल मियां!
फिजा तो कहाँ नेत्री बनने के सपने सजाये एक अभिनेत्री की तरह न सिर्फ़ बन-ठन कर इठला रही थी बल्कि अबने डायलाग भी रट रही थी. आख़िर चन्द्र मोहन ने प्यार को एक पड़ाव दिया था. यह पता नहीं था की ये मंजिल नहीं थी प्यार की. पड़ाव में ठहराव होता है पर उसे बसेरा बना लेना किसने कहा था. चाँद का दिल दरिया है और मन समंदर. आप आए तो आपको भी एक लोटा पानी मिल गया. अब खारापन तो समंदर की पहचान है. मुंह बनाने से समंदर गंगा नहीं हो जायेगा. वहाँ तो अमृत-भारी गंगा भी खारा हो जाती है. सीमा के पास वापस नहीं जाएँ तो भी समंदर किसी का नहीं हुआ. मर्द दो से ज्यादा औरतों को प्यार करते हैं, उनका बड़प्पन है, बड़ा दिल है. तिस पर नेता हों तो प्यार की कोई सीमा नहीं होती. सीमा से पूछिए.
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां;
हम क्यूँ छोडें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
लोग तो कहते हैं की आपके पास ऐसे जंतर थे की आपने उसे अपना बना लिया वरना नेता लोग तो प्यार बाँटते फिरते हैं. हमारे बुजुर्ग नेता नारायण दत्त तिवारी बेचारे अभी भी अदालतों के सम्मन झेलते हैं. एक युवक इस बात की लड़ाई लड़ रहा है की उसे तिवारी बाप का नाम दें क्यूंकि वह पुत्र हैं उनके. सच तो तिवारी जी जाने पर पोपुलर आईडिया है यही के कई नेतागण ऐसे मामलों में रात गई बात गई से आगे नहीं जाते. भाई बदनामी होती है. पर कुछ तो था जंतर के चन्द्रमोहन आपके लिए चाँद मोहम्मद हो गए. पहाड़ न काटा हो, नहर न निकाली हो पर रास्ता तो निकाला ही. कहाँ सब उनको मुहब्बत के मसीहा मानने लगे थे. प्यार किया तो डरना क्या मुग़ल-ए-आज़म को बाद आप-दोनों की जोड़ी पर सब से ज्याद फबी. प्रेस कांफ्रेंस बुला कर आप और इब्न-ए-भजन प्यार की बहार में अखबार को सवालों का जवाब सवालों से देते थे. बकौल इब्न-ए-इंशा:
यह तो कहो कभी इश्क किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इसके सिवा हम कुछ भी न पूछें बाकी बात फिजूल मियां!
किसी ने तो आपके फ़साने पर फ़िल्म बनाने की घोषणा कर दी. लेकिन कहानी का ट्विस्ट देखिये की पिक्चर का दी एंड हो गया, पैक-अप हो गया तो उठिए और लौटिये घर. गोलियाँ लेकर लोटने से क्या होगा? मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये ठीक है पर सच्ची कहानियों में कब रोना नहीं आता मोहब्बत के अंजाम पर. लैला और मजनू की शादी नहीं हुई थी, न ही पहाड़ काटने वाले फरहाद की. आपके चाँद का कुछ सामान रह गया था आपके पास सो मिल गया और निकल लिए. थोडी रुसवाई होगी उन की पर मेहनत वसूल हो गई लगती है. आगे का शेर है:
अब तो हमें मंजूर है यह भी शहर से निकलें रुसवा हों;
तुझको देखा, बातें कर ली, मेहनत हुई वसूल मियां!
चन्द्र मोहन ने तो कह ही दिया है कि फिजा के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तेहान और भी हैं. आपके लिए भी बहुत कुछ हैं सीखने को जो आपको ला स्कूल में नहीं बतायी किसी ने. अपने ख़िलाफ़ फ़ैसला ख़ुद ही लिखा है आपने, अब हाथ मल रहे हैं आप, आप बहुत अजीब हैं. आप देखें आगे क्या गेम होता है और खेलने दे उन्हें. बकौल इब्न-ए-इंशा:
खेलने दें इन्हें इश्क की बाज़ी, खेलेंगे तो सीखेंगे;
कैस की या फरहाद की खातिर खोलें क्या स्कूल मियां!
आपने सोचा था की चाँद की रौशनी में नहा कर आप निखरेंगी और दुनिया रीस करेगी. अब तारीकियाँ घेर रही हैं तो डर लगना लाजिमी है. चाँद ने अपना सब कुछ छोड़ दिया था आपके लिए. लोग तो कहते हैं छोड़ा नहीं था बचा रखा था आपसे. उनकी कोई फूटी कौड़ी है नहीं जो आपको मिलेगी. वह तो सब कुछ पारिवारिक सीमा के अन्दर ही छोड़ आए जब उन्होंने एक सीमा लांघी थी. चंडीगढ से आदमी जब पहाडों की ओर जाता है तो पहला नाका रूपनगर का आता है. वहीँ टोकन लेते समय पूछा जाता है की वन-वे दें या रिटर्न. उस नाके पर चन्द्र मोहन ने वापसी का टोल दे दिया था. आपके जोग में जोगी तो भये नहीं की वादियों में सुख मिल जायेगा. सो दिल-ओ-जान का महसूल नहीं दिया. आप अब चाहें जितना जान छिडकें, वो तो रूपनगर की तरफ़ गए ही नहीं.. पावर की प्रेयसी दिल्ली की ओर बढे सो कुछ देना नहीं पड़ा. आपकी कहानी अधूरी रह गई पर इब्न-ऐ-इंशा की ग़ज़ल पुरी किए देते हैं..
इंशा जी क्या उज्र है तुम को नकद-ऐ-दिल-ओ-जान नजर करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां!
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