Sunday, February 08, 2009

हम्माम नहीं है ये...

क्या सोच कर आए थे, सरदार खुश होगा, शाबासी देगा?
-- गब्बर सिंह, शोले

मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने अपने सहयोगी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश की है. राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में उन्होंने चावला की निष्पक्षता पर सवाल उठाये हैं. सरकार के कानून मंत्री ने इस बात को लेकर गोपालस्वामी को खरी-खोटी सुनाई और यहाँ तक कह डाला की ऐसे सिफारिश को कूड़े के डिब्बे में फेक देना चाहिए. दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान की ऎसी छीछालेदर आम तौर पर नहीं होती. ख़ास कर जब हम आम चुनाव के करीब हों. यह तो ऐसा है की टॉस हो चुका हो और एक अंपायर दूसरे पर ऊंगली उठा दे. इस संवैधानिक संकट का समाधान होना ज़रूरी है क्यूंकि गोपालस्वामी चुनाव के पहले सेवानिवृत हो रहे हैं. सरकार ने कह दिया है कि नवीन चावला ही मुखिया होंगे. पर जैसे हालात हैं उस में यह उत्तर कम होगा, प्रश्नचिन्ह ज्यादा. चुनाव की मर्यादा और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए कुछ कदम उठाने ज़रूरी हैं और अभी उठाने ज़रूरी हैं.

हंस राज भारद्वाज को कानून मंत्री होने का लंबा अनुभव है. उनको कांग्रेस में होने का उस से भी ज्यादा अनुभव है. कभी-कभी अनुभव विवेक पर भारी पड़ता है, इसी लिए दूध के जले छाछ भी फूंक फूंक कर पीते हैं. छाछ ठंडी होती है पर अनुभव कहता है कि डर. यह पहली बार नहीं है की हंस राज भारद्वाज गुस्से में तमतमाए हों. जब क्वात्रोक्की को क्लीन चिट दी गयी थी तो अपने उत्साह में उन्होंने काफ़ी कुछ बक दिया था, इसकी परवाह किए बिना कि इतनी चापलूसी से उनकी नेता सोनिया गाँधी भी झेंप जायेंगी. जब राम सेतु मामले में राम को एक मिथ करार दिया गया था, तब भी महामहिम भारद्वाज अपने नेता के बोलने से पहले भांप गए थे कि वो क्या बोलेंगीं और बोल पड़े. वो सब उनका वहम था. फिर काफ़ी शर्मिंदगी और आलोचनाओं के बाद यह शांत बैठे. उनकी नेता के बारे के उन का पूर्वानुमान ग़लत था. पर कांग्रेस में भारद्वाज का लंबा अनुभव उनके विवेक को मात दे गया. वह और कांग्रेस के और कई वरिष्ठ नेता यह नहीं समझ पाये हैं कि उनका यह पूर्वाग्रह ग़लत है कि उनके नेता अमुक पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं. पर ख़ुद के पूर्वाग्रहों से हमारे कानून मंत्री ने एक संवैधानिक दुविधा का सामना जिस अमर्यादित उत्साह से किया है, उस से एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि गोपालस्वामी की सिफारिश को नकार देने के पहले कम से कम औपचारिकताएं पूरी कर लेनी थी. एक ढकोसला तो कर ही सकते थे कि उनकी सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया गया और फिर उनके आरोपों को बेबुनियाद पाकर उन्हें खारिज कर दिया गया. सीधा डस्टबिन में डालने की बात कह कर सरकार ने न सिर्फ़ अपने बल्कि होने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त को भी शक के दायरे में ले लिया. सीता पवित्र थी पर मर्यादा पुरुषोत्तम ने सीता की पवित्रता को प्रश्नों से ऊपर रखने के लिए ही वनवास दे दिया था. रामायण और राम भले मिथ हों पर ये कहानियां राज काज के आदर्शों को स्थापित करने के लिए आज तक दुहराई जा रही हैं. इन कहानियों का जीवित होना इस बात की गवाही है की प्रजा शासकों से क्या अपेक्षा रखती है. मर्यादा पुरुषोत्तम के मानदंडों का पालन कलियुग में असंभव है पर अपने बनाए संस्थानों की मर्यादा रखना सम्भव होना ही चाहिए.

भारद्वाज ने यहाँ तक कह डाला कि मुख्य चुनाव आयुक्त कौन होते हैं अपने सहयोगी को हटाने की सिफारिश करने वाले. कानून मंत्री कानून भले जानते हों पर संविधान की धरा ३२४ के पाँच संभागों में एक यह कहता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त ऎसी सिफारिश कर सकते हैं. सो गोपालस्वामी ने जो किया है वह संविधान के दायरे में है. उन्होंने यह सिफारिश करने के लिए ठीक चुनाव के पहले का समय क्यों चुना इसका कारण भी वह देते हैं. उनका कहना हैं कि उन्हें नवीन चावला के पक्षपाती होने के आरोपों कि जांच करनी पड़ी और उसमें बहुत वक़्त लगा. उनके मुताबिक चुनाव आयुक्त चावला एक पार्टी (कांग्रेस) को फायदा पहुंचाने के लिए प्रयासरत रहे हैं. नवीन चावला पर यह आरोप पहले बीजेपी लगा चुकी है.

चुनाव आयुक्त का कांग्रेस से कथित नजदीकियां उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के लिए अयोग्य नहीं बनाती. पर कानून मंत्री का वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी कि आपत्ति पर आपत्ति जताने का लहजा मुख्य चुनाव आयक्त के पद की मर्यादा का मखौल उड़ाने जैसा है. इसी से बचना था, न सिर्फ़ मंत्री जी को बल्कि इस विवाद में शामिल हर पार्टी को. गोपालस्वामी की आपत्ति या सुझाव बीजेपी कि आपत्ति जैसी मानना शर्म की बात है. इसके बदले आप गोपालस्वामी पर बीजेपी के लिए बैटिंग करने का आरोप लगा सकते हैं पर हकीकत यह है की अभी वह अंपायर हैं और वो भी थर्ड अंपायर. अंपायर की ऊँगली पर उंगली उठाना खेल का बंटाधार कर देगा. शक की सुई चावला की तरफ़ घुमा दी गयी है. और यह सुई पीछे नहीं घूमती. गोपालस्वामी के इस कदम के पीछे के कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है चुनाव आयोग की आगे की छवि की स्वच्छता बनाए रखना. वर्तमान मुखिया को बीजेपी का एजेंट कह देने भर से चावला पर लगे आरोपों की फेहरिस्त धुल नहीं जायेगी. एक ग़लती दूसरी गलती का काट नहीं है. अव्वल तो ऐसे संस्थानों में विवाद होना ही नहीं चाहिए और अगर हो तो समाधान होना, तुंरत होना ज़रूरी है. और समाधान का न सिर्फ़ तार्किक और निष्पक्ष होना आवश्यक है बल्कि उसका वैसा दिखना भी.

संविधान में इस से सम्बंधित जो कमियाँ हैं उनकी पूर्ति के लिए सरकार को आवश्यक संसोधन करने चाहिए. गोपालस्वामी पर आरोप है की वह बीजेपी के साथ हैं और उनकी राजनितिक महत्वाकांक्षाएं है. हो भी सकता है. टी.ऐन. शेषण मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के बाद कांग्रेस से चुनाव लादे थे. संविधान में आवश्यक संसोधन कर इस पर भी रोक लगाना होगा ताकि यह पद इन आरोपों से मुक्त रहे. अंपायर को किसी टीम के लिए बैटिंग करने की चाहत/अपेक्षा हो तो उसके निष्पक्ष होने पर ऊंगलियाँ उठती रहेंगी. फिलवक्त, सरकार को नवीन चावला की बलि देनी होगी. यह प्रश्न उठ सकता है की तब तो कोई भी मुख्य चुनाव आयुक्त अपने साथियों को हटवा सकता है. संभावनाएं अनंत हैं पर ऐसा बार बार होता दिखता नहीं. यह चुनाव आयोग है, सिर्फ़ तीन लोग होते हैं. एक मुखिया और दो सरपन्च और सभी बराबरी के. उनका चुनाव पारदर्शी होता है, उनका काम भी. पारदर्शिता हमें तभी डराती है जब हम नंगे हों. यह कोई हम्माम नहीं न ही अपने गंदे अंगवस्त्र धोने वाला घाट जो हम डरें.

(First published on 1 February, 2009)

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