क़र्ज़ की पीते थे मय और कहते थे के हाँ
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
-- मिर्जा ग़ालिब
मैंने जब बारहवीं की परीक्षा के बाद निर्णय किया कि अब विज्ञान की धारा छोड़ अपनी रूचि के विषयों को पकडूँगा तो एक बड़ा पारिवारिक बवाल खड़ा हो गया. पिताजी बड़े दुखी थे कि जिस बेटे की शैक्षणिक योग्यता पर उनको नाज़ था वह उनकी नाक कटाने पर तुल गया. माँ बोली बेटा हमें तुम्हारी प्रतिभा पर भरोसा है, तुम्हें ख़ुद पर क्यूँ नहीं. अब तक इतने इम्तेहान आए आज तक तुम टोपर रहे हो तो फिर आज मैदान क्यूँ छोड़ना चाहते हो. फिर मामा-नाना और भी दूर के रिश्तेदारों ने घर पर धरना दे दिया मुझ एक को समझाने. समझाने क्या विनती करने कि मैं अपने विस्तृत खानदान की इज्ज़त में बट्टा न लगाऊँ. "तुम तो बड़े तेज़ थे पढ़ाई में फिर क्या हुआ कि तुम साइंस से डर गए," यह सवाल न जाने कितनी बार दुहराया गया. और मेरा उत्तर होता था कि मेरी रूचि साहित्य, इतिहास और ऐसी कला विषयों में है, मैं क्यूँ आपकी नाक के लिए अपनी इच्छा का बलिदान दूँ. कितनी मशक्कतों के बाद मैंने उन के हठ पर विजय पायी. या कहो कि अपने हठ पर अड़ा रहा. मैंने कहा चलो एक कोम्प्रोमाईज़ कर लेते हैं. मैं पॉलिटिकल साइंस पढूंगा. आपको कोई पूछे तो कह देना कि साइंस ही पढता है. अश्वथामा हतो नरो व कुंजरो वाली बात थी. अच्छा हुआ तब मेरी फॅमिली हरियाणा में नहीं थी क्यूंकि हरियाणा में विज्ञान को तो और ही दर्जा हासिल है. प्रतिष्ठा के साथ साथ पैसे भी मिलते हैं चाहे कोई पद मिले न मिले.
कहते हैं हरियाणा में दूध दही का खाना मिलता है. अगर विज्ञान पढ़ा हो तो आपको मलाई मिलेगी और मिठाई भी. रोज़गार मिले न मिले. बेरोज़गारी के लिए भी योग्यता चाहिए. घर बैठने वालों के बीच भी भेद भाव का अनूठा उदाहरण है यहाँ. बेरोज़गारी तो बाकी देश की तरह यहाँ भी है पर बीएससी बेरोजगार बीए से भला. अगर आपने इतिहास में स्नातक किया और घर में मक्खी मार रहे हैं तो आपको उसके ७५० रुपये मिलेंगे. पर कोई केमेस्ट्री वाला अगर मक्खी मारे तो उसको एक हज़ार. भाई साहब कुछ नहीं करते हैं तो क्या वह वैज्ञानिक तरीके से कुछ नहीं करते. आप इतिहास और दर्शन के लोग इतिहास से कुछ सीखते नहीं. अब कला पुजारियों के दर्शन नहीं होते. अकबर के ज़माने में नौ रत्न थे आज तो सारे रतन धूल फांक रहे हैं. कविताओं, कहानियों और सोच में क्या रखा है, ज़रा विचारिये. साइंस के बेरोजगार को तो ऐसे न दुत्कारिये. बराबर बेरोज़गारी भत्ता देंगे तो उनको बराबर पर ला खड़ा करेंगे. स्नातक तो छोडिये जिसने साइंस में बारहवीं पास कर ली उसको कला के बारहवीं पास से ज्यादा भत्ता मिलता है.
अब तक नौकरियों में योग्यता देखी जाती थी. जिसकी जैसी पढ़ाई, उसको वैसा मेहनताना. अब घर बैठने में भी योग्यता चाहिए. खरी तो यह कि योग्यता भी दोनों की बराबर हो पर विज्ञान वाले मालपुए ले जायेगा, और कला संकाय का पासआउट उंगलियाँ चाटेगा बस. छोरियां कटोरियाँ लिए फिजिक्स में फेल पर फ़िदा होंगी और आर्ट्स में पास वाला भी निराश होगा. भाई पास हुआ तो क्या हुआ, हम तो साइंस में फेल हुए? इस के पीछे की मानसिकता है कि साइंस के विद्यार्थी ज्यादा पर्तिभाशाली होते हैं और आर्ट्स वाले निखट्टू. और जब ऎसी मानसिकता पर सरकारी मुहर लग जाए और पैसे भी लुटने लगें तो कौन लिखेगा फिर हरयान्वी के घने मिट्ठे गीत? कौन बनाएगा पेंटिंग? इन को तो छोडो कामर्स कौन पढेगा और अर्थशास्त्र भी तो आर्ट्स ही ठहरा. सारे गणित भी कला में घुसेड दिए गए हैं अगर साथ में फिजिक्स और केमिस्ट्री न हो.
बड़े नेता कहते हैं कि स्किल-बेस्ड पढ़ाई रोज़गार मुखी होती है सो युवाओं को कुशल बनाओ. साइंस की पढ़ाई में स्किल भले न हो पर बेरोजगार-मुखी तो है. यह ग़लतफ़हमी बहुतों को है कि साइंस के बेरोजगार काफ़ी कुछ कर सकते हैं जो आर्ट्स के बेरोजगार नहीं कर सकते. ग़लतफ़हमी इस लिए कि अगर पानी का पम्प स्टार्ट करना हो तो साइंस वाला क्या आर्ट्स वाले से जल्दी कर देगा. बैलों को चारा देने में कैलकुलस काम आता है क्या? और फसल पर ओले गिरते हैं तो हमारे कोर्स की साइंस में ऐसा क्या है जो उसका समाधान ढूँढ ले.
हमारी पढ़ाई की व्यवस्था डिग्री वाले बहुत पैदा कर रही है पर डिग्री तो कागज़ है. और शिक्षित हो जाने भर से रोज़गार तो मिला नहीं. जैसे जैसे सरकार सिकुड़ रही है, सरकारी नौकरियाँ भी कम हो रही हैं. नई अर्थव्यवस्था में शिक्षा के साथ कार्य-कुशलता चाहिए. अब कार्य-कुशल लोग तो कहीं न कहीं कार्य करते हैं, वोट के दिन छुट्टी होती है सो आराम कर लेते हैं. नौकरी पेशा लोग वोट तो देते नहीं. सरकार की नीतियों ने बेरोजगारों की फौज फालतू में थोड़े न खडी की है. इनको बूथ पर बुलवा कर पाँच साल में एक बार काम करवा लें. पर एक बात समझ नहीं आई सरकार की: क्या साइंस पढ़े वोटर का एक वोट आर्ट्स वाले वोटर के दो वोट के बराबर होगा? हुड्डा जी ऐसा कर दीजिये अगली बार आर्ट्स वालों को मतदान के लिए अयोग्य कर दीजिये. भाई इन के पास दिमाग या प्रतिभा तो होती नहीं साइंस वालों जितनी तो फिर लोकतंत्र में इनको बराबर का अधिकार देकर साइंस वालों कि इज्ज़त पर बट्टा न लगायें.
कहते हैं ग़ालिब की मजार पर हर आदमी शायराना हो जाता है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा वहाँ जाते तो फरमाते:
सूखे सुखन के फेर में तुम जो न पड़ते तो बेहतर था,
गालिबन इतनी सुथरी ग़ज़लें न गढ़ते तो बेहतर था;
फाकामस्ती रंग तो लायी, अंदाज़-ए-बयां और हुआ,
तुम ने जो शेर पढ़े अच्छा लगा, साइंस पढ़ते तो बेहतर था!!
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3 comments:
wow! did you write the last couplet? Did you write it in Hindi or is it translated from English? This is so so good.
He very strong in Hindi writing also. Hindi is his mother tongue. I guess, he might be better in Hindi compared to English.
I think its not translated from English.
yes, it's my favourite post here! I love you for this.
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