कहते हैं बॉलीवुड देश का थर्मामीटर है. एक दौर की सामजिक और राजनितिक परिस्थिति आंकना हो तो उस दौर की फिल्में देखें. सबसे बड़ा उदाहरण बन कर आता है अमिताभ बच्चन का दौर जब वह एंग्री यंग मैन थे. यह देश भी तब गुस्सैल था. पच्चीस तीस सालों की मेहनत रंग नहीं लायी थी और फ्रश्ट्रेशन युवाओं को घेर चुका था. फिर नब्बे के दशक में जब उदारीकरण आया और विदेशीकरण सेंध कर घुस आया तब फिल्में गुस्सैल प्रवृति की कम और बिगडैल ज्यादा हो गयी. समय ही वैसा था. फिल्मों की तरह गानों का भी दौर होता है. आज टाइम है जिस गाने का वह आ गया है: तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार, तेरा एमोसनल अत्याचार.
इमोशनल या भावुक होना भारत की संस्कृति में कूट-कूट कर भरा है, और अत्याचार हमारी अपसंस्कृति में. इमोशनल और अत्याचार का एक घालमेल हैं हम. थोड़ा इमोशनल थोड़ा अत्याचार. थोड़ी अंग्रेज़ी, थोड़ी हिन्दी. पाश बोल गए बीच का रास्ता नहीं होता तो हमने हिंगलिश की हाइवे बना दी और सरपट दौड़ गए. हमारे गानों में पहले दिल धड़कता था, फिर धक् धक् करने लगा. अभी हाल में व्हाइट व्हाइट फेस देख के बीटिंग फास्ट होकर डांस मारने लगा है. उस डांस पे चांस मारने के बाद हुआ है इमोशनल अत्याचार.
इन्हीं पन्नों पर आपने अनुराधा बाली उर्फ़ फिजा और इब्ने भजन चाँद की दास्ताँ पढ़ी. उस दास्ताँ में नए पन्ने लग गए हैं. अब पता ही नहीं चल रहा कि इमोशनल अत्याचार कर कौन रहा है और सह कौन रहा है. कहाँ तो हम यह सोच कर डिलाइटेड थे कि फिल्मी परदों के बाहर भी सच्चा प्यार होता है और पद-मर्यादा का बलिदान हो रहा है प्रेम की वेदी पर. पर प्यार उतना अँधा नहीं निकला. गौस चचा को यह बात पहले पता थी और आज की हिंग्रेजी भी. ख्वामख्वाह के हिंगलिश ग़ज़ल के दो शेर:
लव को जो भी ब्लाइंड कहते हैं, उनकी ख़ुद शोर्ट साईट होती है!
शोर्ट मोमेंट्स हैं प्लेज़र के, लॉन्ग फुरक़त कि नाईट होती है;
भैया इमोशनल अत्याचार तो हम पर हो रहा है, जो टीवी पर अनुराधा बाली की लाली पर आंसुओं कि धार देखकर इमोशनल हो जाते हैं. सब कसूर ससुरा टीवी का है. इटावा का एक पुलिसवाला सात साल की बाला को से उसकी उलझी चोटियों से झक्झोर रहा था. दलित चीफ मिनिस्टर के बहुजन हिताय राज्य में सरकारी कारकुन न्याय को सड़क पर नचा रहे थे. टीवी पर लाइव दृश्य देख कर इंसानियत शर्मा गई और सीनियर पुलिस वालों को भी शर्म आ गई. सो उस दारोगा को बर्खास्त कर दिया गया जिस वहशी ने २८० रुपये की चोरी के इल्जाम में एक गरीब लड़की को झकझोरा. राज्य के डीजीपी साहब इमोशनल हो गए और कहा कि अत्याचार बर्दाश्त नहीं होगा. खरी बात ये है कि अत्याचार तो बर्दाश्त करने कि हमको आदत है, बस देख नहीं सकते टीवी पर. इमोशनल भी हैं न. जिसको झकझोरना है झकझोरो, हमारी संवेदनाओं को रहने दो बस. हम तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर कि यात्रा में रह जाते हैं. अपने बगल के थाने में झाँक आईये, वहां सूजे तलवों पर पढिये हमारे ह्यूमन राइट्स के एक्ट.
गरीब आदमी तो फिजिकल अत्याचार तक बर्दाश्त करता है हर रोज़. हर पाँच साल आता है एक मौका बदला लेने का. इमोशनल अत्याचार के बदले एक अत्याचार करने का. सो मौसम आ गया है हरिया के अकड़ने का और नेताजी के झुकने का. अभी देखिये कैसे नेताजी इमोशनल हो कर कलावती और कलुआ को गले लगायेंगे. मशीन पर एक बटन दबवाने के लिए उनके हाथ पाँव दबायेंगे. अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े हो जायेंगे और जनता से इमोशनल वादे करेंगे. और जनता गाएगी: तौबा तेरा जलवा. तौबा तेरा प्यार. इतना लंबा इंतज़ार. नलके पे पानी आ जाने का, गाँव में बिजली का, स्कूल में अध्यापक का, अस्पताल में दवा का और शहरों में साफ़ हवा का. सब प्रोमिस किए जायेंगे और फिर पाँच साल तक छ्कायेंगे. चचा की हिंगलिश ग़ज़ल का डूएट गायेंगे:
वस्ल के वादे पे कर के ब्लाइंड फेथ, कौन जागा रात भर यू डोंट नो;
क्या है दिल, क्या है जिगर, यू डोंट नो; दर्द होता है किधर, यू डोंट नो!
यू डोंट नो से ये न समझियेगा कि हरिया, कलुआ और उनकी मय्या को कुछ नहीं आता! ये जो पब्लिक है, यह सब जानती है. चुनाव की झप्पियों-पप्पियों के बाद बेवफाई का बाउंसर अब भूलती नहीं वो. नेताजी भले भूल जाएँ. मजबूरी में गधे को बाप बनाया पर नेताजी चाहते हैं कि ये रिलेशन जग-ज़ाहिर न हो. एक बार जनार्दन को बाप बनाकर पाँच साल बापजी बने फिरते हैं. ख्वामख्वाह के शब्दों में:
गधा कह लीजिये, आई डोंट माइंड इट; मगर ज़ाहिर न हो अपना रिलेशन;
इधर हीटर के जैसा इश्क मेरा, उधर जज़्बात का रेफ्रिजरेशन!
यह इमोशनल रेफ्रिजरेशन कई नेताओं के हीट को ठंडा कर सकती है. मुलायम का लेटेस्ट इश्क इमोशनल नहीं है, सिर्फ़ वोटों के अंकगणित पर आधारित एक कल्कुलेषण है. पर मतगणना के दिन अत्याचार हो जाए तो इमोशनल नहीं होइएगा. कांग्रेस इमोशनल हो गयी है कि परमाणु सौदे का कल्याणकारी साथी आज अयोध्या के अत्याचारी से हाथ मिलाये मुस्कुरा रहा है. मुसलमानों के इमोशनल बटन दबा दबा कर उनको वोट बैंक कर डाला था. आज उस बैंक की दशा बाकी बैंकों जैसी खस्ताहाल है पर दिशा उलट गई है. उसको मालूम पड़ गया है अत्याचार के दोनों रूप. जो गुजरात में हुआ वो फिजिकल है. अब उसको वो भी समझ आ रहा है जो इमोशनल है. कंपनी के सीईओ लोग हर पाँच साल में डिविडेंड निकाल लेते हैं और उनको वादों की चासनी चटा के चल देते हैं या आश्वासनों की घुट्टी पिला देते हैं.
जवान लड़के को घुट्टी पिलाना अत्याचार है. इस बार बहुमत किसी पार्टी का नहीं, जवानों का है. पर कौन समझाए हमारे लीडरों को. बीजेपी ने दिल्ली में शीला से मात खाई क्यूंकि दिल्ली के युवक-युवतियां मल्होत्रा अंकल को अपना भविष्य और अपनी स्वतंत्रता नहीं सौंपना चाहते थे. इसको शहरी फैड समझ कर भूलने वाले नेता लोग भूल भी गए हैं. मंगलौर में अत्याचार हुआ और बंगलौर में लोग इमोशनल हो गए. मंगलौर के कुकर्मियों को पकड़ तो लिया तब मुख्यमंत्री स्वयं इमोशनल हो गए. उन्होंने कहा कि पब कल्चर देश की संस्कृति पर अत्याचार है. बस फिर राजस्थान के सी.एम्. भी बोल पड़े कि लड़के लड़कियों का हाथ-में-हाथ डाल कर घूमना दुराचार है. लालू जी बोल पड़े कि बेटा जहाँ माँ-बाप कहें वहीँ प्यार करें नहीं तो चाँद मुहम्मद के फिजा की तरह न खुदा ही मिलेगा न विसाले सनम. एक सुर में सब बोल उठे कि भले घर कि लडकियां परदे में रहे, लड़का दारु पी के ठेके पे लंबा पसरा हो, कोई बात नहीं, बेटियों को जींस में देखना, पब में जाना मना है. बेटियाँ तो पराया धन है, उसको क्या अधिकार है. उनकी स्वतंत्रता कल्चरल अत्याचार है. सो श्री राम के नाम पर एक भगवा सेना उनको सरे-बाज़ार नोच खसोट कर उनको अबला होने कि औकात दिखा रही है. और अपनी प्राचीन संस्कृति के नाम पर उन लड़कियों पर अंकुश लगा रही है. अबकि वलेंटाइन डे पर वो बाहर निकलेंगी तो उनका मुंह काला करेंगे, उनको थप्पड़ जडेंगे. अपनी प्राचीन संस्कृति का प्रदर्शन करेंगे. मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर राम सेना के मर्द देश के बेटियों की मर्यादा का मर्दन करेंगे.
अत्याचार तो यह है कि हम ने अपनी प्राचीन संस्कृति को सर चढ़ा रखा है. अक्सर लोग इमोशनल हो जाते हैं पुरानी बातें याद कर के. क्या दिन थे, क्या ज़माने थे, आज तो मटियामेट है और आने वाले कल से तो भगवान् ही बचाए. क्या सुनहरा भविष्य मिलेगा बच्चों को जब हम उनके आज पर कालिख मल रहे हों क्योंकि किसी किताब में पढ़ लिया था भारत सोने कि चिड़िया था. इस था पर गौर करें. इस था के इमोशनल अत्याचार को समझें. चचा गौस ख्वामख्वाह दखनी में कहते हैं:
अपने देश में क्यां कि मिटटी, सोना चांदी कब उगली जी;
काय कू झूठी बातां कर रहे, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
अपने अरमानों की खेती अब तक सुक्खी कि सुक्खी है
बादल हैं के रोज़ गरज रहें, कुछ भी नै है क्या भी नै है!
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1 comment:
typical you! i don't agree with many things. Not funny dude!
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