Saturday, May 30, 2009
ज्वलनशील हैं हम
क्या है जाति में जो हमें छोड़कर जाती ही नहीं. एक चिन्तक ने मुझसे कहा था कुछ तो अच्छाइयां रही होंगी, वर्ना आधारहीन सिद्धांतों की तरह कब की भसक चुकी होती. उनका कहना था जाति व्यवस्था में व्यवस्था थी और हर समाज व्यवस्था को अव्यवस्था पर तरजीह देता है. मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा पर इतना ज़रूर कहा कि इस कुव्यवस्था में गंभीर बुराइयां हैं, जो यह हमारा दामन नहीं छोड़ रही. अच्छाइयां तो नज़र हटाओ और फुर्र हो जाती हैं. बुरी आदत कोई भी हो बा-आसानी नहीं जाती. अच्छाई को ज़िंदा रख पाना कठिन है, बुराई तो अमर बेल है, आपके सिरहाने उग आई तो आपको फाँस लगा देगी.
यह सवाल ज़िंदा है कि क्यूँ जातिवाद हमारे लोकतंत्र को अपनाने के बाद भी हमारे बीच न सिर्फ जिंदा है पर हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मुहावरे तय करता है, हमारे चुनावी समीकरणों का पर्यायवाची बन बैठा है? इस्लाम और क्रिश्चियनिटी बहुत पहले भारत में आये और उनके समता-मूलक सिद्धांतों से प्रभावित हो कईयों ने अपना धर्म त्याग इन धर्मों को अपनाया. इन में से एक बड़ा वर्ग उनका था जो पारंपरिक हिन्दू धर्म कि विषमताओं के भुक्तभोगी थे और सम्मान और समता की आस में मुसलमान या ईसाई बने. पर जातिवाद का चंगुल वहाँ भी बरकरार है.
बिहार में नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग का एक बड़ा हिस्सा है मुसलमानों में पिछडी जातियों को लामबंद करना. इनको पसमांदा मुस्लिम समाज का नाम दिया गया है, ऐसा समाज जिसे शेखों या सैयेदों ने कभी बराबरी का अहसास नहीं दिलाया, भले उनको अपना धर्म भाई माना हो. ठीक वैसे ही जैसे पंजाब में जाट सिखों ने दलित सिखों को सिख तो माना पर अपने बराबर का नहीं.
पाकिस्तान तो इस्लाम के नाम पर ही बना था पर वहां भी राजपूत, जाट या गूजर अपनी जाति-गत पहचान नहीं छोड़ना चाहते. अब तो वहां जाति-सूचक सरनेम रखने का फैशन हो गया है. लाहौर और पिंडी में गाड़ियों के पीछे राजपूत या जाट ऐसे लिखा मिलता है जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश में. क्रिकेटर नावेदउल-हसन राणा को राणा लिखने की ज़रुरत क्यों आन पडी? ऐसे ही पूरे उपमहाद्वीप में ईसाईयों के बीच जाति या जनजाति की पहचान और उसका भेद बना हुआ है.
जाति-आधारित आरक्षण के विरोधी अक्सर कहते हैं कि ऎसी व्यवस्था जातिवाद को और मजबूत करेगी. इस बात को अगर मान भी लें तो क्या आरक्षण नहीं रहने पर यह व्यवस्था ख़त्म हो जाती? उत्तर है नहीं. जाति कोई स्वीकार या ग्रहण नहीं करता. जाति जन्म से निर्धारित होती है. यानी धर्म बदलने की आजादी है पर जाति लेकर आप पैदा होते हैं. और अगर धर्म बदल भी लिया तो जाति नहीं बदलेगी.
ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढे हैं अपने रुढिवादी व्यवस्था से. शहरों में जातिवाद इतना सशक्त नहीं रह गया क्यूंकि शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति ने कई खाईयां पाट दी हैं. आप हिंदुस्तान के किसी भी शहर में चले जाओ, दोस्ती या अब रिश्तेदारी में जाति का रोल विलुप्त या कम हो गया है. धीरे धीरे ही सही, दूरियाँ नापी जा रही हैं पर समाज को सतर्क भी रहना पड़ेगा गाहे-बगाहे टपक पड़ने वाली चिंगारियों से. क्यूंकि ज्वलनशील हैं हम. अत्यंत ज्वलनशील.
Friday, May 29, 2009
Stalin in Chennai
पर इतना तो स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में अब दयानिधि मारण की हैसियत को बट्टा लग गया है। उनको कपडा मंत्रालय ही मिला, शायद इसलिए कि उनकी औकात ईनाम भर की रह गई है. वह भी इस लिए कि वह तमिलनाडु के मीडिया मोगुल हैं और द्रमुक को गाहे-बगाहे उनकी ज़रुरत होती है. थोडा योगदान इस बाद का भी था कि दयानिधि उनके भांजे के सुपुत्र हैं. करूणानिधि ने अपने वफादार ए. राजा को टेलिकॉम और सूचना तकनीक मंत्रालय में बिठाकर यह दिखा दिया कि पार्टी में वफादारी का महत्त्व है, अगर वफादारी को अंहकार के पर ना लगें. पिछली बार मारण को पर लग गए थे और दिल्ली के आकाश में उड़ते हुए वह भूल गए थे उनके पिता के मामा के पास एक तीर है जो उनको धडाम से ज़मीन पर ला सकता है.
पिछली सरकार में उन्हें ज़मीन पर लाने के बाद, करूणानिधि ने इस बार उन्हें लगाम डाल दिया है. दिल्ली में सत्तासीन यू.पी.ए. के करता-धर्ताओं को भी यह स्पष्ट हो गया है कि गठबंधन के मामलों में वह राजा या मारण से नहीं बल्कि अड़गिरि से बात करेंगे. अड़गिरि अब दिल्ली में करूणानिधि के आँख और कान बनकर बैठेंगे, वह काम जो कभी दयानिधि के पिताश्री मुरासोली करते थे. द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम जैसी क्षेत्रीय पार्टी के की साड़ी मलाई चेन्नई में पकती है, न कि दिल्ली में. दिल्ली तो सिर्फ आइसिंग है, पूरा केक तो चेन्नई में पडा है. आइसिंग कितनी भी लज़ीज़ हो, पेट तो केक से ही भरता है. पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अड़गिरि की भूख का क्या होगा? दक्षिण तमिलनाडु में अपने समर्पित काडर को कैसे मनाएंगे अड़गिरि जब पूरा केक स्टालिन के समर्थक गपोस जायेंगे? तमिलनाडु की राजनीति पर नज़र रखियेगा, बहुत ट्विस्ट बाक़ी हैं इस कहानी में.
Sunday, May 24, 2009
पिक्चर अभी बाकी है, दोस्त.
दोस्त गम्ख्वारी में मेरी, सही फर्मावेंगे क्या,
ज़ख्म के भरने तलक नाखून न बढ़ जावेंगे क्या?
--- मिर्जा गालिब
करूणानिधि की मुश्किलें तो अभी शुरू हुई हैं. उनके परिवार में मंत्रिमंडल मिल जाने भर से शांति नहीं आ जायेंगी. उनकी दूसरी पत्नी इस बात से खुश हो जायेंगी कि अड़गिरी को कैबिनेट में जगह मिल गयी है. पर दिल्ली से निकलते संकेत बताते हैं कि तीसरी पत्नी से हुई कनिमोई को राज्य मंत्री का दर्जा ही मिलेगा. तीनों पत्नियों में सिर्फ पहली हैं जिनसे हुआ पुत्र इस सत्ता संघर्ष में भाग नहीं ले रहा. पहली पत्नी वैसे भी स्वर्गवासी हैं. दूसरी पत्नी दयालु से हुए तीन पुत्रों में से दो के बीच राज्य के भीतर ही सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा है.
बड़े भाई अड़गिरी इस बात से खफा खफा रहते हैं कि राज्य की सत्ता में छोटे स्टालिन की बहुत चलती है. अड़गिरी दक्षिण तमिलनाडू में बहुत राजनितिक दबदबा रखते हैं, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत है और करूणानिधि को डर रहता है कि वह पार्टी विभाजित नहीं कर दें. पर स्टालिन उनका प्रिय है और यह लगभग तय हो गया है कि वही भविष्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे. यही कारण है कि वह अड़गिरी को केंद्र में व्यस्त देखना चाहते हैं ताकि स्टालिन की पार्टी पर पकड़ मजबूत हो. मुश्किल यह है कि तीसरी पत्नी रजति नहीं चाहती कि करूणानिधि की राजनितिक धरोहर दूसरी के संतानें समेत जाएँ. इस लिए उन्होंने कविता लेखन और महिला अधिकार एक्टिविस्ट कनिमोई को राजनीति में आने को प्रेरित किया.
अड़गिरी और स्टालिन की बहन सेल्वी की शादी उनके ममेरे भाई मुरासोली सेलवम से हुई थी. सेलवम के बड़े भाई मुरासोली मारन केंद्रीय राजनीति में करूणानिधि का प्रतिनिधित्व करते थे. मुरासोली मारन की मृत्यु के बाद दयानिधि मारन ने समझ लिया कि वह अधिकार उनका होगा. करूणानिधि और उनके बेटों को यह मंजूर नहीं था और दयानिधि को बीच में ही टेलिकॉम मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. ए. राजा ने उनसे यह पदभार लिया. फिर दोनों परिवारों में ठन गयी. यह झगड़ा सेल्वी के लिए मुसीबत बन गयी. एक तरफ घर वाले और एक तरफ ससुरालवाले. अंततः सेल्वी के प्रयासों से ही करूणानिधि ने मारन को माफ़ किया. पर ज़ख्म के भरने तलक नाखून बढ़ चुके थे. प्रेम का धागा जुड़ा पर गांठें रह गईं.
मारन और उनके भाई सन टीवी समुदाय के मालिक हैं जिनका केबल नेटवर्क पर आधिपत्य है और वे करीब दर्ज़न भर चैनलों के मालिक भी हैं. दुराव के समय उन्होंने करूणानिधि परिवार पर हमला बोल दिया. तब टेलिकॉम स्पेक्ट्रम ऑक्शन पर बेईमानी के आरोप लगे और ए. राजा पर कीचड उछला. मारन के टीवी नेटवर्क ने यह लाइन पकडी कि राजा ने अप्रत्यक्ष रूप से कनिमोई को फायदा पहुंचाया है. तब से कनिमोई और मारन भाईओं के बीच एक खाई बन गयी. किसी ने कहा है दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों.
आज अगर दयालु-पुत्र अड़गिरी और दयानिधि मारन को कैबिनेट में जगह मिलती है तो कनिमोई और उनकी अम्मा बिलकुल पसंद नहीं करेंगी. करूणानिधि कनिमोई की माँ के साथ ही रहते हैं. चूँकि कानून इन्हें दो पत्नियां रखने का अधिकार नहीं देता, करूणानिधि आज भी रजति को आधिकारिक रूप से कनिमोई की अम्मा ही कहते हैं. पत्नी कहेंगे तो फँस जायेंगे. उन्होंने जब दयालु से विवाह रचाया था तब उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया था. दयालु से उन्होंने अपने माँ बाप के कहने पर विवाह किया. और फिर रजति से प्यार और तीसरी शादी. रजति से वह अब भी प्यार करते हैं और कनिमोई उनकी आँखों का तारा है. पर कनिमोई के लिए वह अड़गिरी या स्टालिन को नाखुश नहीं कर सकते क्यूंकि उनकी उम्र ढल रही है और यह दोनों भाई पार्टी लेकर उड़ सकते हैं या उसका विभाजन कर सकते हैं.
यही मुश्किल है दक्षिण के इस कद्दावर नेता के लिए. जिस पार्टी को उन्होंने अपने खून पसीने से सींच कर बनाया उसे कभी जनता की पार्टी नहीं होने दिया. पार्टी परिवार की संपत्ति रही. और उनका परिवार छोटा परिवार नहीं है, शायद इसीलिए सुखी परिवार नहीं है. मनमोहन सिंह सरकार में कौन क्या बनेगा, इसका समाधान तो कल हो जाएगा पर उगते सूरज के निशाँ वाली उनकी पार्टी का सूरज तमिलनाडू के आकाश पर कब तक चमकेगा, इस पर संदेह उनको भी है. राजनीति में आने से पहले करूणानिधि ड्रामों और फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखा करते थे. आज जो स्क्रिप्ट उनके परिवार और पार्टी में लिखी जा रही है, इसका अंदाजा शायद उन्हें भी नहीं था. यह पिक्चर अभी बाकी है, दोस्त.
छः से छक्कों की दरकार, एक-दो रन से जीत नहीं मिलेगी
विश्व भर में फैली मंदी से अगर हम ध्वस्त नहीं हुए तो उसका एक बड़ा कारण था कृषि में संतोषजनक प्रदर्शन. देश में अनाज का भंडार लगा है पर किसान अभी त्रस्त हैं. एक किसान की आत्महत्या भी एक त्रासदी है और जब पंजाब जैसे संपन्न राज्य में किसान सल्फास खाने लगें तो चिंता स्वाभाविक है. पवार साहेब के अपने राज्य महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या पिछले कार्यकाल में बड़ा मुद्दा था. एक दो राज्यों को छोड़ दें तो हमारी कृषि में आधुनिक तकनीक का उपयोग नगण्य सा है. कृषकों को सम्मान, उचित दाम और कृषि में तकनीक को बढावा देना समय की मांग है. इस के लिए पवार साहेब को महाराष्ट्र के मांग से ऊपर उठना होगा.
भारत अपनी सैन्य क्षमता का चाहे जितना डंका पीट ले, हमारी सेना दुश्मन से ज्यादा अपनी समस्याओं से जूझ रही है. वेतन और पेंशन को लेकर असंतोष अपनी जगह है, हालत ऐसे हैं कि अब गोले बारूद और हथियारों की कमी तक सता रही है. रक्षा सौदे की ज़मीन बड़ी फिसलन भारी है उस पर कीचड़ ऐसा कि पिछले कई सालों में रक्षा सौदे इस के दर से लटके रहे. एंटनी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है थल, जल और वायु सेना को उनकी ज़रुरत के सामान दिए जाएँ. चीन के मोतियों की माला में घिरे भारत के सामने पाकिस्तान के आण्विक हथियार संवर्धन में आई तेजी से निपटना बड़ी चुनौती है.
शिवराज पाटिल जब २००४ में गृह मंत्री बने तो उन्होंने माओवादियों के खिलाफ संघर्ष विराम की घोषणा कर दी. कहा बातचीत से समाधान निकलेगा. गांधीवाद और माओवाद के बीच की दूरी पाटी नहीं जा सकी और उनका कार्यकाल रक्तरंजित रहा. फिर सीमा-पर समर्थित आतंकवाद, घरेलु आतंकवाद बम बनकर फटे इस देश की छाती पर. पाटिल साहेब के दामन पर जब दाग लगे तो वह अपना सफारी सूट बदल लेते थे. चिदंबरम जब शपथ ले रहे थे तब महाराष्ट्र में १६ घरों में मातम था. ये उन पुलिसकर्मियों के घर थे जो एक दिन पहले गढ़चिरौली में नक्सलियों के हाथ मारे गए थे. गढ़चिरौली महाराष्ट्र का वह जिला है जो तथाकथित रेड कॉरिडोर पर है. यह लाल गलियारा नेपाल से लेकर कन्याकुमारी तक कैसे खींचता गया, हमारे नीति-निर्धारकों की असफलता की कहानी है. चिदंबरम की सबसे बड़ी, हाँ आतंकवाद से भी बड़ी, चुनौती है माओवाद का बढ़ता प्रभाव. बात सिर्फ बन्दूक से नहीं बनती पर बन्दूक का जवाब हमेशा बातें नहीं हो सकती.
ममता दीदी या तो रेल में बैठेंगी या रायटर्स बिल्डिंग में. उन्होंने रेल से कोल्कता का सफ़र शुरू किया है पर उनको यह याद रखना पड़ेगा कि वह भारत की रेल मंत्री हैं, पूर्व रेल की नहीं. उनके पहले के बहुत रेल मंत्री इस तथ्य को भूल जाते थे. लालू राज में मुनाफा शब्द रेलवे का मन्त्र बन गया था. इस को मैनेजमेंट स्कूलों में जगह मिल गयी पर रेलवे की दुर्दशा पर किसी का ध्यान नहीं गया. आज भी सर्विस और जान माल की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं. खस्ताहाल पटरियाँ, मरियल डिब्बे और दुर्घटनाएं दुनिया की सबसे बड़ी रेल व्यवस्था पर दाग हैं. लोकप्रियता राजनीतिकों की मजबूरी है पर हमारे देश में अभी भी ग़रीबों को ट्रेन में लकडी के पट्टों पर बैठना पड़ता है. गरीब रथ ठीक है पर बाकी को कम से कम आरामदायक तो बना दो.
बहुत बुरे फंसे हैं हमारे वोक्कालिगा लीडर. कर्नाटक की राजनीति वैसे कम कठिन नहीं है पर ओबामा के अमेरिका में कुछ पक रहा है. इसका टेस्ट तो नहीं मालूम पर कढाई से जो गंध आ रही है, हमारे नथुनों को नहीं भा रही है. बुश के समय में जो सब पुश हुआ था वह सब फुस्स ना हो जाए इसका डर साउथ ब्लाक में कईयों को सता रहा है. पाकिस्तान के साथ डिप्लोमेसी को आतंकवाद का नाग सूंघ गया है और यूरोप में सब आपस में व्यस्त हैं. चीन ने अफ्रीका में अपना वर्चस्व सा बना लिया है और मंदी से जूझते बाकी विश्व के स्मृति पटल से भारत उतरता जा रहा है. नेहरु जी की नीतियों को कोसने वाले भी मानते हैं कि दबे कुचले देशों का नेत्रित्व भारत के हाथ में होने से दुनिया को हमारी ज़रुरत आन पड़ती थी. अब हम आर्थिक, सामरिक रूप से मजबूत हुए हैं पर दुनिया की राजनीति में लीडरशिप तो दूर पिछलग्गू वाली स्थिति आ गयी है. कृष्णा को अपनी बाँसुरी पर कुछ ऐसे धुन छेड़ने पड़ेंगे कि हमको कश्मीर और बंगलोर के अलावा अन्य कारणों से भी जाना जाए.
Sunday, May 17, 2009
Oft In a S(t)illy Night: अक्सर शब्-ए-अडवानी में
Hazrat Mirza Tahir Ahmed translated Thomas Moore's Oft, In a Stilly Night into Urdu. In my opinion, Mirza's translation is among the few where the verses gained in translation, and did not, as it often happens, lose the spirit, imagery or the pathos of the original. Reshma's voice did the rest, it's a melody that grows on you. A rare song where enchanting and haunting become one. And L.K. Advani never knew it was written for him.
Here is Sir Thomas's original:
Oft, in the Stilly Night
Oft, in the stilly night,
Ere slumber's chain has bound me,
Fond memory brings the light
Of other days around me;
The smiles, the tears,
Of boyhood's years,
The words of love then spoken;
The eyes that shone,
Now dimm'd and gone,
The cheerful hearts now broken!
Thus, in the stilly night,
Ere slumber's chain hath bound me,
Sad memory brings the light
Of other days around me.
Saturday, May 16, 2009
बीजेपी को एक और वाजपेयी चाहिए
आज वह भाजपा जिसे अटल बिहारी वाजपयी दक्षिण पंथ से मोड़कर बीच के रास्ते पर लाये थे, फिर एक दोमुहाने पर खड़ी है जहाँ से एक रास्ता अति-दक्षिण पंथ या हार्डकोर हिंदुत्व की ओर जाता है और एक बीच से ठीक दाएं, जिसे सॉफ्ट हिंदुत्व कहा जाता है. हार का विश्लेषण होगा, आत्म मंथन होगा और फिर सवाल खड़ा होगा कि जाएँ तो जाएँ कहाँ. चुनाव के वक़्त एक बड़ी भूल उसने की और वह भूल थी यह बताना कि आगे कौन सा रास्ता अपनाया जाएगा. यह तब हुआ जब नरेन्द्र मोदी को अडवाणी के बाद अगला प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. यह बड़ी नाज़ुक घडी थी, चुनाव प्रचार के दौरान. जनता अपना मन बना रही थी. तभी वरुण ने बीजेपी के प्रचार को एक यू-टर्न दे दिया और बीजेपी ने उनकी लाइन को नकारा नहीं. उस के ऊपर मोदी को अडवाणी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. ऐसा नहीं कि उनके मुस्लिम वोट कट गए. मुस्लिम वोट तो बीजेपी का था ही नहीं. पर इस धुर दक्षिणपंथ से हिन्दू डर गए. ख़ास कर मध्य वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग जो इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा के मुद्दों पर बीजेपी की तरफ झुका था. दुनिया में आर्थिक मंदी है और भारतीय अर्थव्यवस्था उस से बुरी तरह प्रभावित हो रही थी. हमारे सभी पडोसी देशों में गृह युद्घ जैसा माहौल है. उस में जनता नहीं चाहती कि ऐसे लोग सत्ता आसीन हो जाएँ जो घर की शांति और सद्भाव बिगाड़ दें. बीजेपी को बिहार में बहुत समर्थन मिला क्यूंकि वहां के मोदी, सुशिल कुमार मोदी, वैसी नीतियों में विश्वास करते हैं जो नीतिश कुमार ने बनायी हैं, न कि नरेन्द्र मोदी ने।
अभी भारत देश ऐसे मुकाम पर खडा है जहाँ उसके विश्व शक्ति बन्ने का सपना पूरा होता दिखाई देता है. ऐसा नहीं कि यह सपना सिर्फ कांग्रेस का है. बीजेपी ने अपना प्रचार अभियान इसी से शुरू किया था. पर अचानक वरुण ने नदा के सतरंगे सपने पर गहरा भगवा पोत दिया. प्रचार अचानक निगेटिव हो गयी. व्यक्तिगत आघात-और प्रत्याघात बढ़ गए. जनता पोजिटिव थी. और काफी अरसे बाद पोजिटिव वोटिंग हुई इस देश में. मनमोहन सिंह की छवि और उनके पांच साल के शाशन में सद्भाव और शांति रही, प्रगति होती रही. और परिणाम सबके सामने है।
नीतिश कुमार बीजेपी के साथ रहे फिर भी उनके पोजिटिव केम्पेन को जनता ने पसंद किया. वहां मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट किया। कंधमाल में भगवा ब्रिगेड के आचार के बाद नवीन पटनायक के लिए बीजेपी के साथ रहना संभव नहीं रहा था. वहां भी बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हो गया और नवीन पटनायक ने फिर झंडा गाडा. बीजेपी के पास पांच साल हैं एक लीडर तलाशने को. अडवाणी की उम्र हो गयी है. मोदी के ऊपर दाग है. इस पार्टी को एक नेता चाहिए जो अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, विकास और सुरक्षा के मामलों में आक्रामक हो पर हिंदुत्व के मुद्दे पर सॉफ्ट हो. बीजेपी को एक वाजपयी चाहिए. कोई है?
Wednesday, May 13, 2009
Tuesday, May 12, 2009
Mujhse Pehli si muhabbat mere mahbuub na maang
FAIZ AHMED FAIZ
Ask me not, my beloved, for our first love
I believed that if I had you, the world would shine eternally
If you were sorrowful, what mattered then the sorrows of the world?
From your beauty poured into the world an eternal spring
Beyond your eyes what is there to be seen in this world?
To have you would be to hold fate in my grasp
It was not as such; I fervently desired it to be so
The world knows pains besides those of love
There are joys besides the joys of our love
The dread spell of countless centuries
Draped in silk, satin, and gold brocade
In those streets and bazaars, everywhere bodies are sold
Besmeared with dirt, bathed in blood.
My gaze turns to there: what can I do?
Even now your beauty shines bright: but what can I do?
The world knows pains besides those of love
There are joys besides the joys of our love
Ask me not, my beloved, for our first love